व्यावहारिक गीता ज्ञान
मनुष्य अपने जीवन में कुछ अच्छे या पुण्य कर्म करता है और कुछ बुरे या पाप कर्म जाने या अनजाने या अज्ञान के कारण कर देता है। पुण्य कर्म का उसे अच्छा फल या अनुकूल परिस्थिति और पाप कर्म का बुरा फल या प्रतिकूल परिस्थिति की तरह उसके सामने आते रहते हैं। कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का अच्छा या बुरा या मिला हुआ ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य मिलता है, किंतु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में नहीं होता, ऐसा भगवान ने गीता के श्लोक 18/12 में कहा है ।
जब मनुष्य यह जानता है कि बुरे कर्म करने का फल उसे बुरा ही मिलेगा तब वह बुरे कर्म करता ही क्यों है। अर्जुन के मन में भी ऐसी ही जिज्ञासा पैदा हो गई और उसने भगवान से गीता के श्लोक 3/36 में पूछा “हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात लगाए हुए की भांति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है।” अर्थात मनुष्य के अंदर ऐसा कौन है जो उसके न चाहने पर भी उसे बलपूर्वक खींचकर पाप कर्म में लगा देता है और वह स्वयं भी उसमें लग जाता है।
शंकर भाष्य में भगवान शंकराचार्य पहले भगवान शब्द का अर्थ करते हैं:-
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशस: श्रिय:।
वैराग्यस्याथ मोक्षस्य षण्णां भग इतीरणा।।
उत्पत्ति प्रलयं चैव भूतानामागतिं गतिम्।
वेत्ति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति।। (विष्णु पु. 6/5/ 74&78)
संपूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, वैराग्य और मोक्ष - इन 6 का नाम भग है, यह ऐश्वर्य आदि 6 गुण बिना प्रतिबंध के, संपूर्णता से जिस वासुदेव में सदा रहते हैं। तथा उत्पत्ति और प्रलय को, भूतों के आने और जाने को एवं विद्या और अविद्या को जो जानता है उसका नाम भगवान है, अतः उत्पत्ति आदि सब विषयों को जो भली-भांति जानते हैं, वे वासुदेव 'भगवान' से वाच्य है।
अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में भगवान कहते हैं: -
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव: ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयनमिह वैरिणम् ।।
रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में बैरी जान।
त्रिगुणात्मक (सात्विक, राजस, तामस) प्रकृति या भगवान की त्रिगुणमयी माया से मोहित और उसमें स्थित पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी, बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है।
देवता सत्व गुण प्रधान, मनुष्य रजोगुण प्रधान और पशु-पक्षी आदि तमोगुण प्रधान होते हैं। रागरुप रजोगुण कामना और आसक्ति से उत्पन्न होता है और मनुष्य में रजोगुण के बढ़ने पर लोभप्रवृत्ति, स्वार्थबुद्धि से कर्मों का सकाम भाव से आरंभ, अशांति और विषयभोगों की लालसा - ये सब उत्पन्न होते हैं ऐसा भगवान ने गीता के अध्याय 14 में कहा है । अर्थात मनुष्य के अंदर अनेक वस्तुओं की कामना और उनको प्राप्त करने की आसक्ति ओर प्राप्त हो जाने पर उनको अपने पास सदैव रखने की ममता आदि से उसके अंदर रजोगुण बढ़ता रहता है। उसके कारण उसमें लोभ और स्वार्थ बुद्धि के साथ सकाम कर्म करने से वह पूरी तरह बंधन में पड़कर जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ा रहता है।
इन सब के मूल में यदि हम जाएं तब हमें ज्ञात होता है कि हमारे मन द्वारा किए जाने वाले चिंतन से ही इसकी शुरुआत होती है। भगवान ने गीता के श्लोक 2/62-63 में स्पष्ट कहा है कि ‘‘विषयों के चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है और क्रमशः उसकी बुद्धि या ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है और वह पाप कर्म में प्रवृत्त हो जाता है उसे उस समय पुण्य और पाप या अच्छे और बुरे कर्म का ज्ञान ही नहीं रहता। हम सभी जानते हैं कि कामनाओं (इच्छाओं) का कोई अंत ही हीं होता, एक के पूरा हो जाने के बाद कोई दूसरी कामना पैदा हो जाती है और मनुष्य उसे पूरी करने में लग जाता है। इस प्रकार कामना पूरी होती चली गई तब तो ठीक है नहीं तो कामना पूरी न होने के कारण मनुष्य के अंदर क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से उत्पन्न मूढ़भाव और मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है और उसके परिणाम स्वरुप मनुष्य की बुद्धि और विवेक का नाश हो जाता है और वह पाप का आचरण करते हुए अपना पतन कर लेता है। इसलिए भगवान ने कामना और क्रोध को ही मुख्य रूप से मनुष्य द्वारा पाप का आचरण करने का कारण बताया है। श्री रामचरितमानस के सुंदरकांड में भी आता है –
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ।।
हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ - ये सब नरक के रास्ते हैं। इन सबको छोड़कर श्रीरामचंद्र जी को भजिए, जिन्हें संत (महापुरुष) भजते हैं। कामना और क्रोध के कारण जब मनुष्य पाप का आचरण करता है तब उसे निम्न लोकों (नरक) की यातना सहन करके पशु-पक्षी आदि योनियों में जन्म लेना पड़ता है। भगवान ने गीता के श्लोक 16/21 में काम, क्रोध और लोभ को नरक के द्वार कहा है: -
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन: ।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत ।।
काम, क्रोध तथा लोभ - ये तीन प्रकार के नरक के द्वार अर्थात सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु तथा आत्मा का नाश करने वाले अर्थात उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए ।
भगवान ने गीता के अनेक श्लोकों में बार-बार कामना, आसक्ति, ममता, फल की इच्छा और स्वार्थ रहित होकर, अर्थात इन सब का त्याग करते हुए पूर्ण निष्काम भाव से ईश्वर अर्पण बुद्धि द्वारा दूसरों के हित को ध्यान में रखते हुए मनुष्य को अपने कर्तव्य कर्म करने के लिए कहा है। उपरोक्त श्लोकों में भगवान ने कामना को ही मूल रुप से पाप कर्म करने के लिए प्रेरित करने वाला बताया है। मनुष्य अपनी कामनाओं जो उसकी सामर्थय से बाहर होती हैं की पूर्ति के लिए ही रिश्वत लेता है, व्यापार में बेईमानी कर लेता है और यदि दूसरा कोई उनकी पूर्ति के रास्ते में रुकावट डालता है तब उसे मार डालने तक की सोचता है या उसे कष्ट पहुंचाता है। लेकिन उसे यह ज्ञान ही नहीं हो पाता की सारी इच्छाएं कभी भी किसी मनुष्य की पूरी नहीं हो सकती क्योंकि उनका कोई अंत ही नहीं है। इन्हीं को गलत तरीकों से पूरा करते हुए अपनी आत्मा को ही अधोगति में डाल देता है और नरक में दुख भोगकर फिर निम्न योनियों में घूमता रहता है। भगवान शंकराचार्य ने भजगोविन्दम् ग्रंथ में दूसरे ही श्लोक में कामनाओं के विषय में कहा है “हे मोहित बुद्धि! धन एकत्र करने के लोभ को त्यागो। अपने मन से इन समस्त कामनाओं का त्याग करो। सत्यता के पथ का अनुसरण करो, अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त हो उससे ही अपने मन को प्रसन्न रखो।” और श्लोक 26 में कहा है कि “काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़कर स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ, जो आत्मज्ञान से रहित मोहित व्यक्ति है वे बार-बार छिपे हुए इस संसार रूपी नरक में पड़ते हैं।
मनुष्य के मन में संकल्प विकल्प के रूप में अनेक विषय आते-जाते रहते हैं, हमारी इंद्रियां उसमें सहायक हो जाती है, जैसे आंख की इच्छा होती है रूप को देखना, जीभ की स्वादिष्ट भोजन करना, श्रोत्र की शब्द सुनना आदि आदि। मन जिस इंद्रिय साथ हो जाता है और उसकी कामना में आसक्त होकर उसको पूरा करने का विचार करता है तब यदि अज्ञान के कारण बुद्धि भी उसके साथ हो जाए तब वह उचित या अनुचित का विचार किए बिना उस कामना को पूरी करने में लग जाता है। भगवान ने गीता के श्लोक 3/40 में कहा है “इंद्रियां, मन, और बुद्धि कामना के वासस्थान कहे जाते हैं । यह काम इन मन, बुद्धि और इंद्रियों के द्वारा ही ज्ञान को अच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है।” इसलिए मनुष्य को अपनी इंद्रियों को मन द्वारा वश में रखना चाहिए और अपने मन को बुद्धि या विवेक द्वारा वश में रखना चाहिए। विवेक के लिए मनुष्य को शास्त्रों का स्वाध्याय करते रहना चाहिए और निष्काम कर्म करते हुए अपने अंतःकरण को शुद्ध रखना चाहिए। गीता के श्लोक 2/71 में भगवान ने कहा है “जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता रहित, अहंकार रहित और स्पृहा रहित हुआ विचरता है वही शांति को प्राप्त होता है।” और श्लोक 5/23 में भगवान कहते हैं कि “जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही पुरुष योगी है और वही सुखी है।”
इसलिए मनुष्य को मन और इंद्रियों को अभ्यास द्वारा अपने वश में रखते रहने का प्रयास करते रहना चाहिए। जब मन और इंद्रियाँ मनुष्य के अपने वश में होंगी तभी वह विवेक द्वारा कामनाओं का त्याग कर सकता है अर्थात कामनाओं पर विजय प्राप्त करके लोभ, मोह तथा क्रोध आदि से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो सकता है। इससे उसका आचरण भी सुधर जाएगा, बुरे कर्मों या पाप कर्मों से भी दूर होकर सुखी रहेगा और अपनी आत्मा को भी उन्नति के मार्ग पर ले जाएगा जो कि उसका उद्देश्य भी है। लेकिन यह सब उसको स्वयं ही करना पड़ेगा, शास्त्रों ने तो हमें मार्ग बतलाया है, उस पर चलना या अपने व्यवहार में लाना तो उसे स्वयं को ही पड़ेगा।
धन्यवाद
डॉ. बी. के. शर्मा
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