Friday, September 4, 2020

सत और असत वस्तु का विवेक - दिनांकः- 04-09-20

व्यावहारिक गीता ज्ञान

 मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है अपनी आत्मा की उन्नति करना। मनुष्यों में दो प्रकार की वृतियां होती है, एक विवेक वृत्ति जो आत्मा को उन्नत करने वाली और दूसरी अविवेक वृत्ति जो आत्मा को अधोगति में ले जाती हैं । विवेक वृत्ति द्वारा मनुष्य उत्तम आचरण करके अपना कल्याण करना चाहता है लेकिन  अविवेक वृत्ति उसे राग - द्वेष और अहंकार आदि में डालकर नीचे की तरफ ले जाने का प्रयास करती रहती है । मनुष्य के अंदर इसी प्रकार दैव और असुर संग्राम चलता रहता है। दुर्गासप्तश्लोकी के प्रथम मंत्र में आता है कि वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती है ।

ऊँ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा ।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ।।

अतः मनुष्य को प्रत्येक क्षण बहुत ही सावधान रहने की आवश्यकता होती है । थोड़ी सी भी असावधानी होने पर अविवेकवृत्ति उसका पतन कर सकती है। भगवान शंकराचार्य ने तत्वबोध ग्रंथ में साधक के लिए साधन चतुष्टय (चार साधन) में पहला ही साधन नित्य - अनित्य वस्तु का विवेक बतलाया है । एक ब्रह्म नित्य वस्तु है, उससे भिन्न संपूर्ण विश्व अनित्य है यही नित्य - अनित्य वस्तु विवेक है। अर्थात नित्य वस्तु ही सत है और अनित्य वस्तु असत है । भगवान गीता में सत और असत के विषय में दूसरे अध्याय के श्लोक 16 में कहते हैं :-

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत: ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभि।।

असत  वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत का अभाव नहीं है । इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।

जिस वस्तु में सदा परिवर्तन होता रहता है अर्थात जैसी वह भूतकाल में या कुछ समय पहले थी अब वर्तमान काल में वैसी नहीं है और भविष्य काल में फिर बदल जाएगी । परिवर्तन होते रहना उसका स्वभाव है, और अंत में उसका नाश हो जाता है उसको ही असत वस्तु कहते हैं। जैसे हमारा शरीर हैवह जन्म के समय जैसा थाबचपनजवानी और प्रौणावस्था  में लगातार बदलता रहा और अंत में वह समाप्त हो जाता है, सदा नहीं रहताअतः इसको असत कहा है। असत वस्तु का सदा विद्यमान रहना संभव नहीं है इसलिए असत वस्तु की सत्ता नहीं होती। जबकि सत वस्तु सदा विद्यमान रहती है उसमें कभी भी किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता और न ही उसका नाश होता है। अर्थात  सत  वस्तु का कभी अभाव नहीं होता । सत वस्तु को ही नित्य, क्षेत्रज्ञ, चेतन, पुरुष, देही, शरीरी, आत्मापरमात्मा और ब्रह्म  आदि नामों से कहा गया है। जबकि असत वस्तु कोअनित्यक्षेत्रजड़प्रकृतिदेहशरीरइंद्रियां आदि कहा है । सभी पदार्थ जिनकी उत्पत्ति और विनाश होता है एवं सभी क्रियाएं जिनका आरंभ और अंत होता हैअसत ही है क्योंकि वह सब परिवर्तनशील हैं प्रत्येक परिवर्तनशील वस्तु असत है और परिवर्तनरहित वस्तु जो सदा एक सी रहती है वह  सत वस्तु है । शरीर में स्थित जीवात्मा ही इस शरीर के बालकपनजवानी और प्रौणावस्था के परिवर्तन का साक्षी रहता हैवह नहीं बदलता । यह जीवात्मा ही स्थूल शरीर की जागृत अवस्था, सूक्ष्म शरीर की स्वप्नावस्था और कारण शरीर की सुषुप्तिवस्था का भी साक्षी रहता है और नींद से जागने पर तभी मनुष्य कहता है कि मैंने यह स्वप्न देखे या मैं बड़े ही आनंद से सोया । अतः तीनों अवस्थाओं में मनुष्य के शरीर में तो परिवर्तन होता है लेकिन इसको जानने वाला (जीवात्मा) वही एक ही स्वरूप में रहता है वह तो इनको जन्म से लेकर मृत्यु तक साक्षी भाव से लगातार देखता रहता है। गीता के श्लोक 2/18 में भगवान कहते हैं कि “इस नाशरहितअप्रमेयनित्यस्वरूप जीवात्मा के यह सब शरीर नाशवान कहे गए हैं।” और श्लोक 20 में भगवान कहते हैं कि “यह आत्मा किसी काल में भी  न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही हैक्योंकि यह अजन्मानित्यसनातन और पुरातन हैशरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।” 

भगवान श्लोक 22 में कहते हैं कि “जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता हैवैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।” 

गीता के श्लोक  2/ 13 में भगवान कहते हैं कि “जैसे जीवात्मा की इस देह  में बालकपनजवानी और वृद्धावस्था होती हैवैसे ही अन्य शरीरों की प्राप्ति होती है उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता ।” 

इस प्रकार जीवात्मा (आत्मा) सत स्वरूप होने से नाशरहितअजन्मा और सदा रहने वाला है, जबकि शरीर बदलता रहता है और इसका नाश हो जाने के कारण यह असत कहलाता है। यह संसार और इसके सब पदार्थ और क्रियाएं परिवर्तनशील होने के कारण असत है जबकि शरीरों में स्थित जीवात्मा ही सत हैजो सदा एकरस रहने के कारण सभी शरीर और संसार में होने वाले परिवर्तनों को साक्षी भाव से देखता रहता है।

कठोपनिषद (द्वितीय बल्ली)  में यमराज नचिकेता से आत्मा के विषय में कहते हैं कि “नित्य ज्ञान स्वरूप आत्मा न तो जन्मता है और न ही मरता हैयह ना तो किसी का कार्य है और ना कारण ही है यह अजन्मा नित्यसदा एकरस रहने वाला और पुरातन है अर्थात क्षय और वृद्धि से रहित हैशरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं किया जा सकता ।” आगे श्लोक 20 में यमराज कहते हैं “इस जीवात्मा के हृदयरूप गुफा में रहनेवाला आत्मा (परमात्मा) सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म और महान से भी अतिमहान है। परमात्मा की उस महिमा को कामना रहित और चिंतारहित कोई बिरला साधक, सर्वाधार परब्रह्म परमेश्वर की कृपा से ही देख पाता है। 

मनुष्य को विवेक वृत्ति द्वारा नित्य और अनित्य वस्तु या सत और असत वस्तु के विषय में जानने का प्रयास करना चाहिए। सत और असत वस्तु अर्थात आत्मा और अनात्मा का बोध प्राप्त कर लेना ही ज्ञान है, एवं उसका जो विशेष रुप से अनुभव है उसका नाम विज्ञान है। समस्या तब होती है जब मनुष्य अपने सत स्वरूप (आत्मा) का संबंध असत स्वरुप (शरीर) के साथ करके अपने को ही मनबुद्धि और शरीर मानकर जन्म-मृत्यु के बंधन में पड़ जाता है। जबकि दोनों ही पूर्णतया भिन्न है । अज्ञान या अविवेक  वृत्ति के द्वारा वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर अर्थात सत स्वरूप होते हुए भी असत के साथ संबंध बनाकर इस संसार में अनेक योनियों में भटकता रहता है। इसलिए मनुष्य को सत और असत वस्तु का ज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहिए जिससे वह अपना उद्धार कर सके और अपनी आत्मा को अधोगति में न डालें। हमारा मनुष्य शरीर भी एक लोक हैइसमें परब्रह्म परमेश्वर और जीवात्मा नों धूप और छाया की भांति हमारे ही हृदयरूपी गुहा में रहते हैं अतः हमें इसी मनुष्य शरीर में रहते हुए सत और असत वस्तु का विवेक करके उस सतस्वरूप परमेश्वर को अपने अंतःकरण की शुद्धि द्वारा जानने का प्रयास करना चाहिए जो कि मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य है।


धन्यवाद
डॉ. बी. के. शर्मा 

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