व्यावहारिक गीता ज्ञान
हम
देख रहे हैं कि कहीं पर वर्षा औसत से कम हो रही है और कहीं अधिक वर्षा से बाढ़ का
सामना करना पड़ रहा है। कोविड-19 जैसी बिमारी का सामना पूरे विश्व को करना पड़
रहा है। ऐसे काफी कारण प्राकृतिक हैं जिनसे मनुष्य जूझ रहा है। क्या मानवजाति के
किए जाने वाले कर्मों का सृष्टिचक्र पर अनुचित प्रभाव पड़ रहा है? क्या
इसके लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। यदि इन प्रश्नों के उत्तर हम अपने ही
शास्त्रों में देखें तब हम स्वयं इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि केवल अपने हितों
को ही ध्यान में रखकर कर्म किए जा रहे हैं । भगवान ने गीता में मनुष्यों के कर्मों
के सृष्टिचक्र पर प्रभाव बतलाया है। गीता में आता है- संपूर्ण प्राणी अन्न से
उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है, वर्षा
यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। कर्म समुदाय को तू
वेद से उत्पन्न जान, और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध
होता है कि सर्वव्यापी परमात्मा सदा ही विहित कर्मों में प्रतिष्ठित हैं। जो इस
प्रकार परंपरा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं चलता, यानी अपने कर्तव्य का
पालन नहीं करता, वह इंद्रियों के भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही
जीता है। शास्त्रविहित कर्मों को यज्ञ कहा है। प्रत्येक मनुष्य यदि अपने कर्तव्य
कर्म का ठीक तरह से पालन नहीं करेगा, तब उसका प्रभाव सृष्टि चक्र पर पड़कर पूरी
मानव जाति को ही भुगतना पड़ेगा।
जैसे
एक मशीन में अनेक पुर्जे होते हैं। यदि सभी पुर्जे ठीक से काम कर रहे हों, तब मशीन
ठीक से काम करती है। और अगर उसका एक भी पुर्जा ठीक से अपना काम न करे, तब मशीन भी
ठीक प्रकार से काम नहीं करेगी और अपना पूरा उत्पादन नहीं देगी। इसी प्रकार हमारे
शरीर में अनेक अंग हैं और उनमें से एक भी अंग खराब हो जाए, तब उसका
असर हमारे पूरे शरीर पर पड़ता है और हम दुखी हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार प्रत्येक
मनुष्य इस सृष्टि का एक महत्वपूर्ण अंग है। यदि वह अपना कर्तव्य और कर्म स्वार्थ
बुद्धि से केवल अपने हित को ध्यान में रखकर करेगा उसका प्रभाव पूरी सृष्टि या प्रकृति
पर भी पड़ेगा। प्रकृति का प्रकोप पूरी मानव जाति को ही भुगतना पड़ेगा। यदि मनुष्य
अपना कर्म पूरे निस्वार्थ और निष्काम भाव से दूसरों के हित को भी ध्यान में रखते
हुए करेगा, तब वह भी बंधन से मुक्त रहेगा और सृष्टि या प्रकृति भी अपना कार्य
सुचारू रूप से मानव जाति के हित के लिए करती रहेगी।
मानस के उत्तरकांड में आता है कि भरत जी से भगवान राम कहते हैं, ‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई’ यानि दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं और दूसरों को दुख पहुंचाने के समान कोई नीचता (पाप) नहीं है। पिछले 50-60 वर्षों में दुनिया में बहुत परिवर्तन आ गया है। अधिकांश मनुष्य केवल अपना ही हित को ध्यान में रखकर काम करते हैं, चाहे उससे दूसरों का कितना भी अहित हो जाए। हमें आत्मनिरीक्षण करना पड़ेगा और प्रत्येक मनुष्य को अपने कार्य करने के तरीकों को बदलने का प्रयास करना पड़ेगा। अन्यथा, हो सकता है कि यह सब प्रकृति की एक चेतावनी के रूप में हो। अभी से सतर्क होकर हम आने वाली बड़ी परेशानी से बच सकते हैं।
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