Thursday, August 20, 2020

अपरा और परा प्रकृति - दिनांक – 20-08-2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान 

भगवान गीता के अध्याय में अर्जुन से कहते हैं कि मैं तेरे लिए इस विज्ञानसहित तत्वज्ञान को संपूर्णतया कहूंगाजिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य नहीं रहता। इसलिए इस अध्याय का नाम भी ज्ञान विज्ञान योग रखा है। गीता के अध्याय 13 के श्लोक से 11 तक भगवान ने ज्ञान के लक्षणों के विषय में हमें बतलाया है। अधिकांश मनुष्य कहते हैं कि हम ज्ञान के विषय में तो जानते हैं लेकिन जो विज्ञान है अर्थात उस ज्ञान का उन्हें अनुभव नहीं हो पाताउसे वह अपने व्यवहार में नहीं ला पातेइस कारण से वह उसके लाभ से वंचित रह जाते हैं। महाभारत में आता है कि दुर्योधन भी कहता था कि मैं ज्ञान और धर्म के विषय में भली-भांति जानता हूंलेकिन मेरे अंदर कोई है जो मुझे उसका पालन नहीं करने देतामुझे रोक देता है। इस प्रकार हमारे अंदर  दैवी और आसुरी संपत्ति दोनों ही रहती हैं और कुछ मनुष्य दैवी संपदा और कुछ आसुरी संपदा के वश में रहते हुए इस संसार में अपना व्यवहार करते हैं। कलयुग के विषय में मानस में आता है तामस बहुत रजोगुण थोराकलि प्रभाव विरोध चहुँ ओरा” अर्थात तमोगुण बहुत होरजोगुण थोड़ा होचारों ओर वैर - विरोध हो । यह कलयुग का प्रभाव है। गीता के श्लोक 7/3 में भगवान कहते हैं कि हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्व से अर्थात यथार्थ रूप से जानता है।” मानस के उत्तरकांड में माता पार्वतीभगवान शंकर से कहती हैं कि हे त्रिपुरारि ! सुनिएहजारों मनुष्यों में कोई एक धर्म के व्रत का धारण करने वाला होता है और करोड़ों धर्मात्माओं में कोई एक विषय से विमुख (विषयों का त्यागी) और वैराग्य परायण होता है। श्रुति कहती है कि करोड़ों विरक्तों में कोई एक ही सम्यक (ज्ञान) को प्राप्त करता है और करोड़ों ज्ञानियों में कोई एक ही जीवन मुक्त होता है। अर्थात ज्ञान को प्राप्त करके उसको अपने अनुभव में और व्यवहार में लाने वाले विरले ही मनुष्य होते हैं। इसी दिशा में हमें सतत प्रयास करते रहने  की आवश्यकता है।

इसी ज्ञान के विषय में भगवान श्लोक  7/4-5  में  अपरा (जड़) और परा (चेतन) प्रकृति के विषय में बताते हैं:

भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत।।

पृथ्वीजलअग्निवायुआकाशमनबुद्धि और अहंकार भी-  इस प्रकार यह आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा अर्थात मेरी जड़ प्रकृति है और हे महाबाहो ! इससे दूसरी कोजिससे यह संपूर्ण जगत धारण किया जाता है मेरी जीव रूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति जान।

हमारे स्थूल शरीर पंचमहाभूतों पृथ्वीजलअग्निवायु और आकाश से बने हैं और अंत में इन्हीं पंचतत्वों में विलीन  हो जाते हैं अतः यह हमारी स्थूल सृष्टि को बताते हैं। इसके अतिरिक्त हमारे सूक्ष्म शरीर में अंतःकरण मनबुद्धिअहंकार आते हैं अतः यह सूक्ष्म सृष्टि को बताते है। गीता के श्लोक 13/5  में प्रकृति के 23 कार्य को बताया गया है जिसमें पंचमहाभूत मनबुद्धिअहंकारदस इंद्रियां और पांच इंद्रियों के विषय अर्थात शब्दस्पर्शरूपरस और गंध आते हैं।

यह 23 कार्य भी उपरोक्त प्रकृति के कार्यों अर्थात स्थूल और सूक्ष्म सृष्टि के अंतर्गत ही आ जाते हैं अतः इनमें कोई अंतर नहीं है। अध्याय 13 में शरीर को क्षेत्र और आत्मा या चेतन तत्व जो परमात्मा का अंश है उसको क्षेत्रज्ञ कहा है, यहां पर उसी का अपरा और परा प्रकृति कहा है। कहीं पर शरीर और शरीरी, देह और देहीक्षर और अक्षर या प्रकृति और पुरुष आदि भी कहा गया है। इनमें अपरा प्रकृति तो जड़ है और परा प्रकृति चेतन है। दोनों पूरी तरह से अलग-अलग है । जब परा प्रकृति अपना संबंध अपरा प्रकृति के साथ कर लेती है तब वह बंधन में पड़कर जन्म-मृत्यु के चक्र में आ जाती है। क्षेत्र या अपरा प्रकृति जड़विकारीक्षणिक,परिवर्तनशील और नाशवान है जबकि परा प्रकृति चेतन,अविनाशीअविकारीपरिवर्तनरहित है अर्थात दोनों पूर्णतया भिन्न है। परा श्रेष्ठ को कहते हैं और अपरा निकृष्टअशुद्धअनर्थ करने वाली एवं बंधन स्वरूप वाली है।

दोनों ही एक दूसरे के विपरीत हैं। श्लोक 13/6 में इच्छाद्वेषसुख-दुखस्थूल देह का पिंड चेतना और धृत्ति को प्रकृति के विकार बताया गया है। भगवान श्लोक 7/6 में कहते हैं कि संपूर्ण भूत अपरा और परा प्रकृति से ही उत्पन्न होने वाले हैं और मैं (भगवान) संपूर्ण जगत का प्रभव (उत्पत्ति) तथा प्रलय हूं अर्थात संपूर्ण जगत का मूल कारण हूं। और अगले श्लोक में भगवान कहते हैं कि मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी कारण नहीं है। यह संपूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश्य मुझ में गुथा हुआ है।” अर्थात यदि सूत की माला में सूत का धागा है और सूत की गांठे लगा लगा कर उसमें मणियाँ बना ली जाए तब उस माला में केवल सूत ही सूत होगा उसके अतिरिक्त कुछ नहीं हैइसी प्रकार भगवान कहते हैं कि यह संपूर्ण जगत मेरा ही रूप है। जैसे सोने के आभूषणों के बनने से पहले सोना थाआभूषणों में भी सोना है और आभूषण नष्ट हो जाने के बाद भी सोना ही शेष रहेगाइसी प्रकार सृष्टि के या भूतों के आदि में भी भगवान थे, मध्य में भी भगवान है और प्रलय या अंत के बाद भी भगवान ही रहेंगे। गीता के श्लोक 9 /4 में भी भगवान कहते हैं कि मुझ निराकार परमात्मा से यह सब जगत जल से बर्फ के सदृश परिपूर्ण है। ” और श्लोक 9/6 में भगवान कहते हैं कि जैसे अकाश से उत्पन्न सर्वत्र विचरनेवाला महान वायु सदा आकाश में ही स्थित हैवैसे ही मेरे संकल्प द्वारा उत्पन्न होने से संपूर्ण भूत मुझ में स्थित है।” इस शरीर में स्थित आत्मा (चेतनतत्व) अर्थात परा प्रकृति परमात्मा का  ही अंश है लेकिन जब यह प्रकृति मे स्थित मन और इंद्रियों को आकर्षण करता है अर्थात जब अपरा प्रकृति के साथ अपना संबंध स्थापित कर लेता है तब यह स्वयं को ही शरीर मानता है और इसमें अहम भाव तथा ममता रखने लगता है जो जीव के बंधन का मुख्य कारण बन जाता हैअन्यथा तो जीव मुक्त ही हैबस अज्ञान के कारण अपने को बंधन में पड़ा जानकर जन्म-मृत्यु के चक्कर में चलता रहता है। श्रीमद्भागवत महापुराण में  आता है कि ब्रह्मा जी भगवान कृष्ण की स्तुति करते हुए कहते हैं भगवन ! कितने आश्चर्य की बात है कि आप हैं अपने आत्मापर लोग आप को पराया मानते हैं। और शरीर आदि है पराएकिंतु उनको आत्मा मान बैठते हैं। और इसके बाद आपको कहीं अलग ढूंढने लगते हैं। भला अज्ञानी जीवो का यह कितना बड़ा अज्ञान है। हे अनंत ! आप तो सबके अंतःकरण में  ही विराजमान है इसलिए संत लोग आपके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है उसका परित्याग  करते हुए अपने भीतर ही आपको ढूंढते हैं।

श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध  में अपरा प्रकृति और परा प्रकृति के बारे में आता है कि भगवान शंकर और ब्रह्मा जी कंस के कैद खाने में भगवान कृष्ण की गर्भ स्तुति करते हुए कहते हैं कि पृथ्वीजलतेजवायु और आकाश इन पांच दृश्यमान सत्यों के आप ही कारण हैं। और उनमें अंतर्यामी रूप से विराजमान भी हैं। यह संसार क्या है एक सनातन वृक्ष। इस वृक्ष का आश्रय है - एक प्रकृति। इसके दो फल हैं - सुख और दुखतीन जड़े हैं - सत्वरज और तमचार रस है - धर्मअर्थकाम और मोक्ष। इसके जानने के पांच प्रकार हैं - श्रोत्रत्वचानेत्र रसना और नासिका। इसके छ: स्वभाव है - पैदा होनारहनाबढ़नाबदलनाघटना और नष्ट हो जाना । इस वृक्ष की छाल हैं सात धातुएं - रसरुधिरमांसमेदअस्थिमज्जा और शुक्र। आठ शाखाएं हैं - पृथ्वीजलतेजवायुआकाशमनबुद्धि और अहंकार अर्थात अपरा प्रकृति। इसमें मुख आदि नवो द्वार खोड़र हैं । प्राणअपानव्यानउदानसमाननागकूर्मकृकलदेवदत्त और धनंज्जय - यह दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं। इस संसार रूपी वृक्ष पर दो पक्षी हैं - जीव और ईश्वर अर्थात परा प्रकृति। इस संसार रूपी वृक्ष की उत्पत्ति के आधार एकमात्र आप ही है। आप में ही इसका प्रलय होता है और आपके ही अनुग्रह से इसकी रक्षा भी होती है। तत्व ज्ञानी पुरुष तो सबके रूप में केवल आपका ही दर्शन करता है।

संपूर्ण महाभूत विधाता की पहली सृष्टि है। वे प्राणियों के शरीर में भरे हुए हैं । पृथ्वी से देह का निर्माण हुआ है। चिकनाहट और पसीने आदि जल के अंश हैं और अग्नि से नेत्र तथा वायु से प्राण और अपान उत्पन्न हुए हैं। नाक, कान आदि के छिद्र आकाश तत्व के स्वरूप हैं । इस प्रकार से यह स्थूल सृष्टि है। सूक्ष्म सृष्टि के अंतर्गत मनबुद्धिअहंकारदस इंद्रियां और पांच इंद्रियों के विषय या पांच प्राण आ जाते हैं। इन सब को ही अपरा प्रकृति कहते हैं। जब जीवात्मा या जीव  परा प्रकृति अपना संबंध अपरा प्रकृति के साथ रखती है तब इस अज्ञान के कारण वह जीव  बंधन में पड़ा रहता है। जब उसे ज्ञान हो जाता है कि प्रकृति और पुरुष सर्वथा भिन्न है उनमें कोई समानता नहीं है तब जीवभाव समाप्त होकर वह ब्रह्म हो जाता है और सब बंधनों से मुक्त हो जाता है। अतः हमें शास्त्रों का स्वाध्याय करते हुएचिंतन मनन द्वारा अपने स्वरूप को जानने का प्रयास करते रहना चाहिए: ताकि हम अपने शरीर में रहते हुए, अपने सब कर्तव्य कर्म तटस्थ भाव से करते हुए अपने जीव भाव को अपने स्वरूप में स्थित करते रहने का प्रयास करते हुए हमें इस बंधन से मुक्त हो जाना चाहिए।

 

धन्यवाद
डॉ.बी. के. शर्मा

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