Saturday, August 8, 2020

कर्म करने की विधि - दिनांक – 08-08-2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान               

 

महाभारत के युद्ध के लिए कौरवों और पांडवों की सेनाएं कुरुक्षेत्र के मैदान में पूरी तरह से तैयार खड़ी थी,  युद्ध का शंखनाद हो चुका था। तभी अचानक अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से कहा कि हे अच्युत मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कर दीजिए ताकि युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को मैं भली प्रकार देख लूं कि मुझे किन किन के साथ युद्ध करना है। तब भगवान श्री कृष्ण जो  कि अर्जुन के सारथी थेरथ को दोनो सेनाओं के मध्य में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने खड़ा कर दिया। कौरवों की सेना में जब अर्जुन ने अपने सगे-संबंधियों को देखा तब उसे बहुत ही शोक हो गया और मोह के कारण अर्जुन ने भगवान से  कहा कि मैं युद्ध नहीं करूंगा। अर्थात अपने नियत कर्म से अर्जुन उस समय पीछे हटने लगाजिसके कारण भगवान ने गीता का उपदेश अर्जुन के मोह को दूर करके कर्म करने के लिए दिया। हम विचार करें कि यदि भगवान अर्जुन के रथ को दुर्योधन और दुशासन के ठीक सामने खड़ा कर देते तो हो सकता है अर्जुन को मोह ना होता और भगवान के उपदेश से हम सब भी वंचित रह जाते। अतः प्रत्येक कर्मफल के पीछे ईश्वर का कोई विधान या हित ही छुपा रहता है जिसको उस समय हम नहीं समझ पाते। पूरी गीता के उपदेश को सुनने के पश्चात अर्जुन ने गीता के श्लोक 18/73 में कहा कि हे अच्युत आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है अब मैं संशय रहित होकर स्थित हूंअतः आपकी आज्ञा का पालन करूंगा।

 

गीता के श्लोक 2/7 में आता है कि कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ अर्जुन भगवान से पूछता है कि जो साधन निश्चित कल्याण कारक होवह मेरे लिए कहिएक्योंकि मैं आपका शिष्य हूंइसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए। अतः अर्जुन के शरणागति होने के पश्चात ही भगवान ने उसे गीता का उपदेश दियाजिससे अर्जुन का सारा मोह दूर हो गया और फिर उसने पूरे युद्ध में भगवान की आज्ञानुसार ही युद्ध किया अर्थात अपना कर्म किया।

 

भगवान ने सांख्य योगभक्ति योग और कर्म योग के विषय में अर्जुन को गीता के अनेकों श्लोकों द्वारा उपदेश दिया। भगवान ने उपदेश के उपसंहार में अर्थात गीता के अंतिम अध्याय 18 के श्लोक 56, 57 और 58 में कर्म करने की विधि के विषय में फिर से अर्जुन को बताया क्योंकि भगवान के उपदेश का मुख्य प्रयोजन तो अर्जुन को कर्म में लगाना ही थाजिससे वह मोह के कारण भागना चाह रहा था। भगवान इन श्लोकों में कहते हैं:

 

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर: ।

बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चितः सततं भव।।

मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।

अथचेत्वमहक्ङारात्र श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्पपाश्रयः।

मत्प्रसादादवाप्रोति शाश्र्वतं पदमव्यम्।।

 

सब कर्मों को मन से मुझमें अर्पण करके तथा समबुद्धिरूप योग को अवलंबन करके मेरे परायण और मुझमें चित्तवाला हो।

 

उपर्युक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को ना सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा।

मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो संपूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है ।

 

भगवान ने उपर्युक्त श्लोकों में कर्म करने की विधि जिसके द्वारा कर्म करते हुए मनुष्य उस अविनाशी परम पद को प्राप्त कर सकता है,  जिसके लिए उसने मनुष्य जन्म लिया है और यही उसका मुख्य उद्देश्य भी है। यहां पर भगवान ने हमें चार बातों को ध्यान में रखते हुए कर्म करने के विषय में बताया है।

 

1)    प्रत्येक कर्म को मन से भगवान में अर्पण करते हुए करना। मनुष्य कर्म दो प्रकार से करता हैसकाम भाव से अर्थात कामनाआसक्तिफल की इच्छा रखते हुएअर्थात स्वार्थ बुद्धि के साथ करता हैजिसके कारण वह कर्म बंधन में पड़ जाता है और बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ा रहता है। पुण्य कर्म से उच्च लोक में जाकर पुनःजन्म लेता हैबुरे कर्म के कारण पशुपक्षी योगियों में जन्म लेता है और पुण्य-पाप मिश्रित कर्म के द्वारा पुनः मनुष्य योनि में जन्म लेता हैउसका जन्म-मरण से छुटकारा नहीं हो पाता। दूसरा निष्काम भाव के साथ कर्म करना अर्थात कोई कामना,  आसक्तिफल की इच्छा ना रखते हुए और निर्लिप्त भाव से लोकहित की दृष्टि से ईश्वर को अर्पण करते हुए अर्थात यह मानकर की ईश्वर के द्वारा दिए गए कार्यों कोउनकी आज्ञा से (शास्त्रानुसार)और जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है उस परमेश्वर कि अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा कर रहा हूं। मैं तो इसमें केवल निमित्त मात्र हूं। भगवान के द्वारा दी गई शक्ति के द्वारा ही यह कर्म हो रहा हैवह ही इसे करा रहे हैं आदि-आदि। निष्काम भाव से और ईश्वर अर्पण बुद्धि द्वारा कर्म करने से मनुष्य कर्म करते हुए भी कर्म बंधन से मुक्त रहता है। जैसे भुने हुए बीज यदि बो दिए जाएं तब वह फलित नहीं होतेइसी प्रकार मनुष्य को ज्ञान हो जाने के पश्चात उसके कर्म भी ज्ञानाग्नि में भस्म होकर उस मनुष्य की मुक्ति का कारण बन जाते हैं और उसे कर्मफल भोगने के लिए पुनःजन्म नहीं लेना पड़ता। गीता के श्लोक 4/41 में भगवान कहते हैं जिसने कर्म योग की विधि से समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया हैऐसे वश में किए हुए अंतःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बांधते।” और श्लोक 5/10 में कहा है जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता हैवह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भांति पाप से लिप्त नहीं होता।” अतः हमें अपने सभी कर्म ईश्वर अर्पण बुद्धि के साथ पूर्ण निर्लिप्त भाव से शास्त्रानुसार ही करने चाहिए।

 

2)    समबुद्धिरूप योग को अवलंबन करके कर्म करना। भगवान ने गीता में समता को बहुत महत्व दिया है। सर्वप्रथम भगवान ने गीता के श्लोक 2/48 में कहा है कि तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को करसमत्व ही योग कहलाता है” समत्व योग उच्यते। और 2/50वें श्लोक में भगवान कहते हैं समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जायह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है, योग: कर्मसु कौशलम् अर्थात कर्म बंधन से छूटने का उपाय है।” जब मनुष्य समबुद्धिरूप योग को अवलंबन करके कर्म करता है तब वह पाप और पुण्य दोनों से मुक्त हो जाता है अर्थात उसका पुनर्जन्म नहीं होता। इसलिए भगवान ने अर्जुन को माध्यम बनाकर हम सबको मुक्त होने का मार्ग बताया है कि किस तरह मनुष्य कर्म करते हुए भी कर्म बंधन से मुक्त होकर इस संसार के आवागमन से मुक्त हो सकता है। हम देखते हैं कि आजकल के समय में समता का पूर्ण रूप से पालन करना थोड़ा कठिन है लेकिन जो मनुष्य इस समता के लाभ को जानता है वह लाभ-हानिसुख-दुखजय-पराजयअनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति से थोड़ा कम प्रभावित होता है और जल्दी ही उससे बाहर निकल आता है। उसको अपने मन में सदा के लिए रखकर मानसिक तनाव जैसी बीमारियों मैं नहीं फंसता। वह सभी प्रतिकूल परिस्थितियों को भी अपना प्रारब्ध या ईश्वर की इच्छा समझ कर भोग लेता हैउससे ज्यादा समय तक प्रभावित नहीं रहता। अतः हमें कर्म करते हुए समबुद्धिरूप योग का सहारा लेते रहने का पूरा प्रयास करते रहना चाहिए।

 

3)    भगवान के परायण (आश्रय) होकर कर्म करना। जो भी कर्म करें उसमें भगवान का ही आश्रय रखकर करें। जब हम अपने सभी कर्म भगवान को अर्पण बुद्धि से करेंगे तब हम भगवान का ही आश्रय रखेंगे अर्थात भगवान के परायण होकर ही कर्म करेंगे। भगवान गीता के श्लोक 9/34  में कहते हैं मुझ में मनवाला हो, मेरा भक्त बनमेरा पूजन करने वाला हो,  मुझ को प्रणाम कर। इस प्रकार आत्मा को मुझ में नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा।” और श्लोक 11/55 में भगवान कहते हैं जो पुरुष केवल मेरे लिए ही संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला हैमेरे परायण हैमेरा भक्त हैआसक्ति रहित है और संपूर्ण भूत-प्राणियों में बैरभाव से रहित हैवह अनन्यभक्तियुक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है।” जिस मनुष्य की मन और बुद्धि परमात्मा के चिंतन में लगी रहती है वह मनुष्य परमात्मा अर्थात अपनी आत्मा में ही स्थित रहता हैइसमें कुछ भी संशय नहीं है। भगवान ने उपरोक्त श्लोक मैं कहा भी है कि मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो संपूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परम पद को प्राप्त हो जाता है। इसलिए अपने कर्म अपने मन से परमात्मा को अर्पण करके उन्हीं का आश्रय लेकर पूर्ण निष्काम भाव से लोकहित की दृष्टि रखते हुए ही करते रहे। इसका सतत अभ्यास करते रहना चाहिए।

 

4)    अपने चित्त को भगवान में लगाए रखते हुए कर्म करना।  हमारा मन,  बुद्धिचित्त और अहंकार हमारे अंत:करण के भाग हैं अर्थात करण या साधन हैं। हमारा मन निरंतर संकल्प विकल्प करता रहता है, बुद्धि द्वारा हम निश्चय करते हैं और चित्त द्वारा चिंतन करते हैं।  इन सबके एक साथ निर्णय लेने पर हम उस कर्म में प्रवृत्त होते हैं। जब हम कोई कर्म करते हैं तब भी हमारा मन चंचल रहता हैएकाग्र नहीं हो पातासंसार में घूमता रहता है। अतः भगवान कहते हैं कि तू चित्त को मेरे में लगाकर कर्म कर अर्थात अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए पूर्ण एकाग्र भाव से अपना शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म पूर्ण निष्काम और निर्लिप्त भाव से करता रहे। कर्म के आरंभ और अंत में ईश्वर को याद करके और उन्हीं को मन से अर्पण करते हुए अपना कर्म करेंइससे हमारी स्वार्थ बुद्धि उस कर्म मे नहीं रहेगी और हम उसके फल से जो हमारे अनुकूल या प्रतिकूल हो सकता हैबहुत ज्यादा प्रभावित नहीं होंगे। भगवान उपरोक्त श्लोक में कहते भी हैं कि मुझ में चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को ना सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा। भगवान ने गीता के श्लोक 12/7 में स्पष्ट रूप से कहा है उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का  मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूं। अतः यदि हम अपना चित्त भगवान में लगाते हुए अपना कर्म करेंगे तब उन्हीं की कृपा से समस्त संकटों से भी पार हो जाएंगे और संसार से भी हमारा उद्धार होकर इस जन्म मृत्यु के चक्कर से छुटकारा भी मिल जाएगा ।

 

शुक्लयजुर्वेदकाण्वशाखीय संहिता का चालीसवां अध्याय जोकि ईशावास्योपनिषद कहलाता है के दूसरे मंत्र में भी ईश्वर अर्पण बुद्धि से कर्म करने के विषय में बहुत ही स्पष्ट बतलाया गया है-

 

कुर्वत्रेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।

एवं त्वयि नान्यथेतोस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।

 

इस जगत में शास्त्रनियत कर्मों को ईश्वरपूजार्थ करते हुए ही सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करनी चाहिएइस प्रकार त्यागभाव से और परमेश्वर के लिए किए जाने वाले कर्म तुझ मनुष्य में   लिप्त नहीं होंगेइससे अन्य कोई प्रकार या मार्ग नहीं है जिससे कि मनुष्य कर्म बंधन से मुक्त हो सके।

 

इस प्रकार से हम देखते हैं कि वेदउपनिषदगीता और अन्य शास्त्र भी हमें ईश्वर अर्पण बुद्धि से पूर्ण निष्काम और निर्लिप्त भाव से ईश्वर के परायण होकर कर्म करने की प्रेरणा देते हैं और उससे होने वाले लाभ और हानि के विषय में भी स्पष्ट रूप से हमें सचेत करते हैं। अतः हमें शास्त्रों में बताई गई विधि द्वारा ही अपने कर्तव्य कर्म करते हुए इस संसार सागर से ईश्वर की कृपा प्राप्त करते हुए मुक्त होने का सतत प्रयास करते रहना चाहिए।

 

 

                              धन्यवाद

डॉ. बी. के. शर्मा

No comments:

Post a Comment