व्यवहारिक गीता ज्ञान
भगवान गीता के अध्याय 16 में दैवी और आसुरी प्रकृति (सम्पदा) वाले मनुष्यों के स्वभाव और उनके लक्षण के विषय में बहुत ही विस्तार से बताते हैं जैसे मनुष्य के पास धन संपत्ति होती है उसी प्रकार यहां पर मनुष्य के स्वभाव के लिए भी संपदा (संपत्ति) शब्द का प्रयोग किया गया है। मनुष्य जन्म के साथ ही अच्छे या बुरे स्वभाव (गुण) अर्थात दैवी या आसुरी संपत्ति (सम्पदा) के साथ इस संसार में अपने नये शरीर के साथ आता है।
अपने पूर्व जन्म के शरीर को जब जीवात्मा छोड़ता है तब उसके साथ उसका सूक्ष्म शरीर भी जाता है और फिर नए शरीर को प्राप्त कर लेता है ।अर्थात जो उसका अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) में गुण (स्वभाव या प्रकृति) थे वह उसके साथ ही चलते रहते हैं जब तक कि यह उनमें परिवर्तन का प्रयास नहीं करता जिसके लिए वह पूर्ण रुप से स्वतंत्र हैi लेकिन यह गुण (सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण) तब ही बदल सकते है जब मनुष्य अपने अन्दर के दोषों के विषय में चिंतन करें अधिकांशतः हम देखते हैं कि हम अपने स्वभाव(प्रकृति) या गुण, दोष के विषय में ना सोचकर दूसरों के ही दोषों को देखते रहते हैं और अपने गुणों के विषय में कहते रहते हैं i
संसार में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसके अंदर सारे दोष ही दोष हो, एक भी गुण न हो और ना ही ऐसा मनुष्य है जिसमें सारे गुण ही गुण हो एक भी दोष न होi प्रकृति ही त्रिगुणात्मक है अर्थात सभी में तीनों सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण रहते हैं बस कोई मनुष्य सत्वगुण प्रधान है औरकोई रजोगुण प्रधान या तमोगुणी स्वभाव का है।हम देखते भी हैं कि एक ही माता-पिता की संतान अलग-अलग गुणों वाली होती है एक बच्चा अच्छे स्वभाव का और एक बुरे स्वभाव का हो जाता है ।
रामायण में आता है “सुमति कुमति सब के उर रहहीं, नाथ, पुरान, निगम अस कहहीं”
भगवान गीता के श्लोक 16/6 में दो प्रकार के मनुष्यों के विषय में बताते हैं-
“द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।” अर्थात इस लोक में भूतों की सृष्टि यानी मनुष्य समुदाय दो ही प्रकार का है, एक तो दैवी प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला।
भगवान कहते हैं दैवी संपदा मुक्ति के लिए और आसुरी संपदा बांधने के लिए मानी गई हैi इसलिए “हे अर्जुन तू शोक मत कर क्योंकि तू दैवी संपदा को लेकर उत्पन्न हुआ है।” भगवान गीता के श्लोक 9/13 में कहते हैं कि दैवी प्रकृति के आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाश रहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त होकर निरन्तर भजते हैं।” और आसुरी प्रकृति वाले मनुष्यों के विषय में श्लोक 7/15 में कहते हैं कि “माया के द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है ऐसे आसुर स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते।” यहां पर दैवी प्रकृति वाले मनुष्यों के लिए भगवान ने महात्मा शब्द का प्रयोग किया है और आसुरी प्रकृति वाले मनुष्यों के लिए नीच, दूषित कर्म करने वाले एवं मूढ़ लोग आदि शब्दों का प्रयोग किया है।
श्लोक 9/12 में भगवान ने कहा है “वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म, और व्यर्थ ज्ञान वाले विक्षिप्त चित्त, अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति को ही धारण किए रहते हैं।” अतः आसुरी प्रकृति वाले मनुष्यों के चित्त को ही भगवान ने विक्षिप्त (पागल) कहा है और उनके कर्म, ज्ञान, आशा आदि सभी व्यर्थ है।
भगवान ने गीता के अध्याय 16 के श्लोक 1 से 3 तक दैवी प्रकृति वाले मनुष्य के लक्षण अर्थात गुणों या उनके स्वभाव के विषय में विस्तार से बताया है।
अभयं सत्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितः।
दानं दमच्श्र यज्ञच्श्र स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।
तेजः क्षमा घृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।।
यह सात्विक पुरुष अर्थात दैवी प्राकृति वाले मनुष्य के 26 लक्षण हैं।
1. भय का सर्वथा अभाव
2. शुद्ध अंतःकरण
3. तत्वज्ञान के लिए निरंतर ध्यान योग
4. सात्विक दान करने की प्रवृत्ति
5. इंद्रियों का दमन करने का स्वभाव
6. भगवान, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा यज्ञ आदि उत्तम कर्मों का आचरण
7. वेद, उपनिषद, गीता,रामायण, भागवत, महाभारत आदि शास्त्रों एवं पुराणों का पाठन - पठन (निरंतर स्वाध्याय करते रहने का स्वभाव) तथा भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन
8. स्वधर्म पालन के लिए कष्ट सहन करना
9. शरीर तथा इंद्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता
10. मन, वाणी, शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना
11. यथार्थ और प्रिय बात बोलना
12. अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना
13. कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग
14. अंतः करण की उपरति अर्थात चित्त की चंचलता का न होना
15. किसी भी प्राणी की निंदा आदि न करना
16. सब भूत प्राणियों में हेतु रहित दया
17. इंद्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना
18. कोमलता अर्थात अंतःकरण, वाणी और व्यवहार में कठोरता का ना होना
19. लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा
20. व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव
21. व्यक्तित्व में एक विशेष प्रकार के तेज का होना
22. क्षमा का स्वभाव होना
23. धैर्य अर्थात विपत्ति या दुख आने पर भी धैर्य रखना
24. बाहर की शुद्धि अर्थात शरीर और आचरण (व्यवहार) में शुद्धि
25. किसी से भी शत्रुभाव का न होना
26. अपने को श्रेष्ठ, बड़ा या पूज्य समझने के अभिमान का त्याग
उपरोक्त 26 लक्षण सत्वगुण प्रधान सात्विक अर्थात दैवी प्रकृति वाले मनुष्य के हैं। हम सबको इन पर भली -भांति विचार करना चाहिए एवं जो हमारे अंदर हैं, वह तो ठीक है और जो नहीं है उनको अपने अंदर और व्यवहार में लाते रहने का निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए।
सात्विक पुरुष मृत्यु के पश्चात उच्च लोकों में जाता है और भगवान ने तो गीता में कहा है कि दैवी संपदा मुक्ति के लिए है ।इसके लिए हमारा अंतःकरण (मन, बुद्धि आदि) का शुद्ध होना आवश्यक है,जिसके लिए हमें निष्काम कर्म करने का प्रयास करना चाहिए एवं शुद्ध भोजन अपनी ईमानदारी के कमाए हुए धन द्वारा करना चाहिए। अंतःकरण की शुद्धि से हमारे विचार सात्विक होते हैं और अज्ञान दूर होकर हमारे अंदर विवेक जाग्रत हो जाता है उसके उपरांत उपरोक्त गुण हमारे अंदर स्वतः ही प्रकट होने लगते हैः लेकिन प्रयास तो हमें ही करना पड़ेगा। भगवान ने तो हमें मार्ग बता दिया है उस पर चलना तो स्वयं को पड़ेगा।
अब आसुरी प्रकृति वाले मनुष्यों के विषय में भगवान गीता के अध्याय 16 के अगले श्लोकों में निम्नलिखित लक्षण बताते हैः-
1. आसुरी प्रकृति के मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति अर्थात कौन सा कर्म करना चाहिए और कौन सा नहीं करना चाहिए इस प्रकार कर्तव्य और अकर्तव्य को नहीं जानते। जो मन में आ जाता है, वही करते हैं। इसके कारण न तो उसका अंतःकरण शुद्ध होता है और न वह बाहर से भी शुद्ध आचरण करते हैं।
2. सत्य भाषण अर्थात यथार्थ बात नहीं करते।हमेशा झूठ का सहारा लेते हैं।
3. कहते हैं कि यह संसार आश्रय रहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के अपने आप स्त्री, पुरुष के संयोग से उत्पन्न है, अतः केवल काम ही इसका कारण है । इसके सिवा और क्या है।
4. मिथ्या ज्ञान के कारण जिन का स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुद्धि मंद है, वे सब का अपकार करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत के नाश के लिए ही समर्थ होते हैं।
5. वे दम्भ (ढोंग करने वाले), अपने में पूज्यमान होने का अभिमान रखने वाले अर्थात अपने धन, पद आदि के नशे में रहने वाले मनुष्य किसी प्रकार पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर अज्ञान अज्ञान से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके और भ्रष्ट आचरण को धारण करके संसार में विचरते हैं।
6. वे मृत्युपर्यंत रहने वाली असंख्य चिंताओं का आश्रय लेने वाले, विषय भोगों के भोगने में तत्पर रहने वाले और इतना ही सुख है, इस प्रकार मानने वाले होते हैं।
7. काम क्रोध के परायण होकर विषय भोगों के लिए अन्याय पूर्वक धन आदि पदार्थों का संग्रह करने की चेष्टा करते हैं।
8. वे सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को पूरा कर लूंगा। मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह हो जाएगा।
9. वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूंगा। मैं ईश्वर हूं, ऐश्वर्य, को भोगने वाला हूं। मैं सब सिद्धियों से युक्त हूं और बलवान तथा सुखी हूं।
10. मैं बड़ा धनी हूं और बड़े कुटुम्ब वाला हूं। मेरे समान दूसरा कौन है। मैं यज्ञ करूंगा, दान दूंगा और आमोद-प्रमोद करूंगा।
11. वे अपने आप को ही श्रेष्ठ मानने वाले, घमंडी पुरुष धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखंड से शास्त्रविधि रहित यजन करता है।
12. वे अहंकार, बल, घमंड, कामना और क्रोधआदि के परायण और दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं।
उपरोक्त लक्षण भगवान ने आसुरी प्रवृति अर्थात तमोगुण प्रधान वाले मनुष्यों के बताये हैं।
ऐसे मनुष्यों को भगवान ने पापाचारी, क्रूरकर्मी और नराधम (मनुष्यों में नीच), मूढ़लोग, अज्ञानी, राक्षसी, आसुरी और मोहनी प्रकृति को धारण करने वाले बताया है।
भगवान ने गीता के श्लोक 16/20 में कहा है कि ऐसे मूढ़ लोग मुझको न प्राप्त होकर जन्म जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं अर्थात घोर नरकों में पड़ते हैं।
ईशावास्योपनिषद जो कि शुक्लयजुर्वेदकाण्वशाखीय संहिता का चालीसवाँ अध्याय है उसके तीसरे मंत्र में आता हैः-
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता तमसाऽऽवृताः।
ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चातमहनो जनाः।।
आसुरों के जो प्रसिद्ध नाना प्रकार की योनियाँ एवं नरकरूप लोक हैं वे सभी अज्ञान तथा दुख क्लेशरूप महान अंधकार से आच्छादित हैं। जो कोई भी आत्मा की हत्या करने वाले (आत्मज्ञान से रहित) मनुष्य हों वे मरकर उन्हीं भयंकर लोकों को बार-बार प्राप्त होते हैं।
आसुरी प्रवृत्ति के उपरोक्त लक्षणों को हमें ध्यानपूर्वक विचार करना चाहिए कि इनमें से एक भी लक्षण तो हमारे अंदर नहीं है, यदि है तब शीघ्रतापूर्वक और यत्न करके उसे अपने अंदर से दूर कर देना चाहिए नहीं तो बड़ी दुर्गति होगी। मनुष्य चाहे और ठान ले तब वह सब कुछ कर सकता है। ऐसी स्थिति में क्या वह अपने दुर्गुणों को पहचान कर उन्हें दूर करने का प्रयास नहीं कर सकता।
गीता के श्लोक 13/8 में भगवान कहते हैं कि जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा (जरा) और रोग आदि में दुख और दोषों का भी बार-बार विचार करना चाहिए “जन्ममृत्युजराव्याधिदुखदोषानुदर्शनम”, ताकि हम इसी जन्म में मुक्त हो सकें और फिर बार-बार जन्म, मृत्यु, रोग आदि दुखों से छुटकारा मिल सके।
भगवान द्वारा बतलाये गए दैवी प्रकृति वाले मनुष्यों के गुणों और सदाचारों को जो भी उनमें से हमारे अंदर नहीं हैं उन्हें धारण करने का प्रयास आज से ही शुरु कर देना चाहिए और आसुरी प्रकृति वाले मनुष्यों के दुर्गुणों और दुराचारों का जितनी जल्दी हो सके त्याग करने का प्रयास शुरू कर देना चाहिए। यह कार्य इतना आसान भी नहीं है चूँकि यह गुण अनेक जन्मों से हमारे साथ लगे हैं लेकिन हमें अपना उद्धार तो इसी मनुष्य जन्म में स्वयं द्वारा ही करना पड़ेगा। भगवान और शास्त्र तो हमें मार्ग बतला रहे हैं अन्यथा यदि कुछ भी आसुरी प्रवृति के दुर्गुण हमारे अंदर रह गए तब कितना बड़ा नुकसान होगा इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है।
भगवान ने तो गीता के अध्याय 14 के श्लोक 14 - 15 में स्पष्ट कहा है कि “जब यह मनुष्य सत्वगुण (दैवी प्रकृति) की बुद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है तब तो उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है ।
रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्योंमें उत्पन्न होता है तथा तमोगुण (आसुरी प्रकृति) के बढ़ने पर मरा हुआ मनुष्य कीट, पशु आदि मूढ़योनियों में उत्पन्न होता है।” अभी भी हमारे पास समय है कि अपने अंदर के गुण और दोषों पर विचार करें और दोष (आसुरी प्रकृति) जो भी हमारे अंदर हैं उनका त्याग करके दैवी प्रकृति के गुणों को धारण करने का प्रयास शुरू करें।
धन्यवाद
डॉ. बी. के. शर्मा
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