Wednesday, July 29, 2020

कर्तव्यपालन का सृष्टिचक्र पर प्रभाव - दिनांकः- 28-07-2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान


भगवान गीता के अध्याय के श्लोक 14 से 16 में मनुष्य द्वारा अपना कर्तव्य पालन करने या न करने से सृष्टिचक्र पर क्या प्रभाव होता है के विषय में बताते हैं:


अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादत्रसम्भवः।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।।

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।

अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।


संपूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैंअन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती हैवृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परमअक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ (विहित कर्म) में प्रतिष्ठित है। हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परंपरा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं वरतता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इंद्रियों के द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है।

गीता के इन श्लोकों में भगवान ने सृष्टिचक्र के अंतर्गत बातें क्रम से हम मनुष्यों को बताई हैं 

1.    संपूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। तैत्तिरीयोपनिषद में अन्न  की महिमा का वर्णन किया गया है। कि इस पृथ्वी लोक में निवास करने वाले जितने भी प्राणी हैंवे सब अन्न से ही उत्पन्न हुए हैंअन्न से ही उनका पालन पोषण होता है अतः अन्न से ही वह जीते हैं। फिर  अंत में इस अन्न में ही- अन्न उत्पन्न करने वाली पृथ्वी में ही विलीन हो जाते हैं। खाया हुआ अन्न तीन प्रकार का हो जाता है। उसका जो अत्यंत स्थूल भाग होता हैवह मल हो जाता हैजो मध्यम भाग है वह मांस हो जाता है और जो अत्यंत सूक्ष्म होता है वह मन हो जाता है। अतः कहा है जैसा खाए अन्न वैसा हो जाए मन। अन्न को सर्वौषधरुप कहा है क्योंकि इसी से प्राणियों का क्षुघाजन्य संताप दूर होता है । अन्न ही सब भूतों में श्रेष्ठ है इसलिए यह सर्वौषधमय कहलाता है। जो साधक इस अन्न की ब्रह्म रूप में  उपासना करते हैं अर्थात यह अन्न ही सर्वश्रेष्ठ है सबसे बड़ा है वे समस्त अन्न को प्राप्त कर लेते हैं। उन्हें अन्न का अभाव नहीं रहता। अतः हमें  अन्न का तिरस्कार नहीं करना चाहिए । सब प्राणी अन्न को खाते हैं तथा यह भी सब प्राणियों को खा जाता अर्थात अपने में विलीन कर लेता है इसलिए अन्न नाम से जाना जाता है अघतेअत्ति च भूतानि, तस्मादन्नं तदुच्यत इति ।

 

2.   अन्न  की उत्पत्ति वर्षा से होती है। जैसा कि हम जानते ही हैं कि अन्नफलसब्जी और सभी वनस्पतियों की उत्पत्ति का आधार जल है अर्थात मिट्टी (भूमि) के साथ-साथ उन्हें जल की भी आवश्यकता होती है। इसी प्रकार सभी प्राणियों को जीवित रहने के लिए भी जल की आवश्यकता होती है और जल वर्षा द्वारा प्राप्त होता है। अतः समय पर और उचित मात्रा में वर्षा का होना सभी के लिए आवश्यक है। यदि एक साल भी ठीक से वर्षा न हो तब कितना बड़ा अकाल या जल का संकट सभी के सामने उपस्थित हो जाता है और यदि ज्यादा वर्षा हो जाए तब बाढ़ और अन्य संकट आ जाते हैं। क्योंकि उनकी उत्पत्ति जल से होती है अतः जल ही अन्न  की अपेक्षा उत्कृष्ट है। छान्दोग्योपनिषद में आता है कि यह जो पृथ्वी है मूर्तिमान जल ही है अतः तुम जल की उपासना करो। वह जो कि जल की यह ब्रह्म है” ऐसी उपासना करता हैसंपूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है और तृप्तिमान होता है। अतः हमें कभी भी जल को निरर्थक बर्बाद नहीं करना चाहिएइसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । सृष्टिचक्र में जल का बहुत महत्व है । पिया हुआ जल तीन प्रकार का हो जाता है । उसका जो स्थूलतम भाग होता है वह मूत्र हो जाता हैजो मध्यम भाग है वह रक्त हो जाता है और जो सूक्ष्मतम भाग है वह प्राण हो जाता है। ऐसा छान्दोग्योपनिषद में आता है।

 

3.   वर्षा (वृष्टि) यज्ञ से होती है। मनुष्य मन, वाणी और शरीर से जो क्रिया करता है वह कर्म है। गीता के श्लोक 4/27 में भगवान कहते हैं कि योगीजन इंद्रियों की संपूर्ण क्रियाओं को और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्मसंयमयोग रूप अग्नि में हवन किया करते हैं । अतः कर्मयोग के सिद्धांत के अनुसारमनुष्य अपनी इंद्रियों द्वारा जो क्रियापूर्ण निष्काम और निलिप्त भाव सेआसक्ति और फल की इच्छा से रहित होकर लोकहित को दृष्टि में रखते हुए करता है वह ही यज्ञ है। जैसे यज्ञ में आहुतियों द्वारा घी और अन्य सामग्री का अग्नि के द्वारा देवताओं को भेंट किया जाता है उसी प्रकार कर्म योग में आसक्तिममता और फल आदि के त्याग द्वारा दूसरों के हित के लिए कर्म किया जाता है। बृहदारण्यकोपनिषद में आता है कि देवमनुष्य और असुर  इन पुत्रों ने पिता प्रजापति के यहाँ तपस्या की तब तपस्या पूरी होने के पश्चात प्रजापति ने उन तीनों को 'अक्षर कहा और पूछा समझ गए क्या । तब देवों ने कहा कि हम समझे हैं कि आपने हमसे कहा है “ दमन करो” । मनुष्यों ने कहा कि हम समझे हैं कि आप ने हमसे कहा है “ दान करो” । और असुरों ने कहा कि हम समझे हैं कि “ दया करो” । इस प्रजापति के अनुशासन की मेघगर्जनारुप दैवी वाणी आज भी द-द-द इस प्रकार अनुवाद करती है कि भोग प्रधान देवों ! इंद्रियों का दमन करोसंग्रह प्रधान मनुष्यों भोग सामग्री का दान करोक्रोध, हिंसा प्रधान असुरों ! जीवों पर दया करो । अतः मेघ भी हमें कर्म करने की प्रेरणा देते रहते हैं। गीता में भी श्लोक 18/में भगवान कहते हैं कि यज्ञदान और तपरूप कर्मों को तथा और भी संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिएयह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।

 

4.   यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है । गीता में अनेकों श्लोकों में शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मों को यज्ञ कहा है । गीता के श्लोक 3/में भगवान कहते हैं कि तू शास्त्र विहित कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।” और अगले ही श्लोक में कहते हैं यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय, कर्मों से बंधता है। इसलिए हे अर्जुन ! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भली भांति कर्तव्य कर्म कर। श्लोक 3/11 में कहते हैं इस यज्ञ के द्वारा तुम लोग देवताओं को उन्नत करो और वह देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे। कर्मयोग में फल और आसक्ति दोनों के त्याग की बात आती है लेकिन पदार्थों में आसक्ति का त्याग होने से उन पदार्थों के प्राप्त करने की इच्छा यानी फल का त्याग स्वत: ही हो जाता है। अतः फल की इच्छा उत्पन्न होने में आसक्ति ही मुख्य कारण है। अतः आसक्ति के त्याग के साथ कर्मफल का त्याग हो जाता है। लेकिन आज के युग में ऐसे मनुष्यों का मिलना थोड़ा कठिन हो गया है जो आसक्ति और फल के त्याग के साथ कर्म करें। सर्वप्रथम तो यही सोचते हैं कि इस कर्म को करने से मुझे क्या लाभ होगा अतः कार्य के प्रारंभ में ही हमारी स्वार्थ बुद्धि हो जाती है। ज्ञानी पुरुष तो कर्म के आरंभ में ही स्वार्थ बुद्धि को वश में कर लेते हैं। अंतःकरण शुद्ध न होने के कारण हमारी बुद्धि में विवेक उत्पन्न नहीं हो पाता और अपने अपने स्वार्थ के साथ सभी अपने कर्म में लग जाते हैं। लोक हित की चिंता ही नहीं करते यदि एक भी मनुष्य अपने कर्म अपने स्वार्थ की पूर्ति और आसक्ति के साथ करता है तब इससे सृष्टि चक्र में प्रभाव पड़ता है। जैसे किसी मशीन का एक भी पुर्जा ठीक से काम ना करें तब पूरी मशीन पर उसका प्रभाव पड़ता है । आज हम देख भी रहे हैं कि जैसे महामारी, ठीक समय पर वर्षा का ना होना और प्रकृति में जो कुछ भी हो रहा है उसके लिए काफी सीमा तक हम ही जिम्मेदार हैं। जब मनुष्य अपना कर्तव्य निष्काम भाव से न करके स्वार्थ बुद्धि या अनुचित तरीके से करने लग जाते हैं, उससे प्रकृति कुपित हो जाती है और तब मनुष्य मिलकर भी उसका सामना नहीं कर पाते। यदि देखा जाए तब 40-50 वर्ष पूर्व इस तरह की समस्याएं कम होती थी, मनुष्य भी अपना कर्तव्य काफी कुछ ठीक ही निभा रहे थे लेकिन आजकल तो सभी में स्वार्थ बहुत बढ़ गया है और किसी भी उचित या अनुचित तरीके से धन कमा कर भोग करना ही एकमात्र लक्ष्य बनता जा रहा है। इसी कारण सृष्टि चक्र में विघ्न आ रहे हैं। और सभी मनुष्य और देश इस परेशानी का सामना कर रहे हैं। अतः सभी को इस विषय पर विचार करके अपने कर्तव्य कर्म को शास्त्रानुसार ही करने की आवश्यकता है।

 

5.   कर्म समुदाय को वेद से उत्पन्न जान। मनुष्य को कौन सा कर्म उसके वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और जीविका आदि के लिए किस प्रकार से करना उसका कर्तव्य है के विषय में चारों वेद ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदअथर्ववेद और स्मृतिपुराणरामायणमहाभारत आदि शास्त्रों में कर्तव्य कर्म की विधि के विषय में विस्तार पूर्वक बतलाया गया है। चारों वेदों के एक लाख श्लोकों में से 80000 श्लोक तो केवल कर्म संपादन संबंधित हैं और 16000 श्लोक उपासना एवं 4000 श्लोक ज्ञान से संबंधित हैं। अतः वेदों में कर्म के विषय में काफी विस्तार से बताया गया है । अतः प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्तव्य का ज्ञान शास्त्रों द्वारा या महापुरुषों द्वारा प्राप्त कर लेना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य को सकाम और निष्काम कर्म के विषय में और उनके लाभ एवं हानि के विषय में अवश्य जानना चाहिए। बिना ज्ञान के किए कर्म केवल बंधन के कारण बन जाते हैं। इस जन्म में किए हुए कर्म ही हमारा भविष्य और अगला जन्म निर्धारित करते हैं। गीता के श्लोक 2/50 में भगवान कहते हैं कि समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उन से मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्वरूप योग में लग जा यह समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्म बंधन से छुटने का उपाय है

 

6.   वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान । वेद अपौरुषेय है अर्थात किसी पुरुष के बनाए हुए नहीं हैं। सृष्टि के आदि में परमात्मा से वेद प्रकट होते हैं और अंत में परमात्मा में ही विलीन हो जाते हैं।

 

उपरोक्त बातों से सिद्ध होता है कि परमात्मा सदा ही यज्ञ अर्थात विहित कर्म में प्रतिष्ठित हैं। अतः हमें अपने सभी कर्तव्य कर्म शास्त्रानुसार अर्थात आसक्ति, ममता, कामना और फल के त्याग के साथ पूर्ण निर्लिप्त भाव से दूसरों के हित के लिए ही करने चाहिए ताकि हम प्रकृति के अनुकूल कर्म करके इस सृष्टिचक्र में व्यवधान उत्पन्न न करें। यदि अपने कर्म केवल अपना स्वार्थ को ध्यान में रखते हुए आसक्ति और फल की इच्छा के साथ अपने भोगों की पूर्ति के लिए करेंगे और दूसरों का हित या आहित की भी चिंता नहीं करेंगे इससे प्रकृति कुपित होगी और सृष्टि चक्र में व्यवधान होगा। भगवान कहते हैं कि जो पुरुष इस संसार में इस प्रकार परंपरा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं चलता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता वह भोगों में रमण करने वाला पापायु मनुष्य व्यर्थ ही जीता है। भगवान ने ऐसे मनुष्य को पापी कहा है और कहा है कि उसका जीना व्यर्थ ही है। यह भगवान की काफी कड़ी चेतावनी है इस पर हमें अवश्य ध्यान देना चाहिए। अभी भी हमारे पास जो समय शेष है कम से कम उसमें तो अपने कर्तव्य कर्म का ठीक प्रकार से पालन करें जिससे अन्य व्यक्ति भी जो हमारे संपर्क में आएं, वह भी हमें देखकर अपने कर्तव्यकर्म का शास्त्रानुसार पालन कर सकें।

 

 

धन्यवाद

डॉ. बी. के. शर्मा


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