Friday, July 17, 2020

प्रकृति, गुणों और कर्मों का संबंध - दिनांक – 17-07-2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान

     भगवान गीता के श्लोक 3/27 में कहते हैं कि वास्तव में संपूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं प्रकृतेः क्रियमाणनि गुणैः कर्माणि सर्वशः प्रकृति के दो भेद हैं - एक विद्या और एक अविद्या (अज्ञान)। विद्या के द्वारा भगवान सृष्टि की रचना करते हैं और अज्ञान (अविद्या) के कारण जीव मोहित हो जाता है। जब जीव का यह अज्ञान कि गुण ही गुणों में वरत रहे हैं, अर्थात प्रकृति के द्वारा ही सब कर्म हो रहे हैंमैं तो अहंकार के कारण और शरीरइंद्रियों आदि के साथ अपना संबंध मानने के कारण ही यह मानता था कि मैं सब कर्मों का कर्ता हूंदूर हो जाता है, तब वह अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है और कर्म करते हुए भी कर्मबंधन से मुक्त रहता है। हमारा स्वरूप अर्थात आत्मा तो परमात्मा का शुद्ध अंश है लेकिन प्रकृति और प्रकृति के कार्यों के साथ संबंध बना लेने के कारण इसी आत्मा को जीव कहते हैं। भगवान श्लोक 13/21 में कहते हैं कि

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङक्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसग्ङोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।

    प्रकृति में स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा को अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है।

प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक (सत्व, रज और तम) माया के कार्यरुप पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेंद्रियाँ, पाँच विषय (शब्दस्पर्शरूपरसगंध) और मनबुद्धिअहंकार इस प्रकार चौबीस तत्व (प्रकृति के साथ) इन सबके समुदाय का नाम गुण विभाग है। और इनकी परस्पर चेष्टाओं का नाम कर्मविभाग है। जैसे आँख और पैर आदि इंद्रियाँ होने के कारण गुण विभाग के अर्न्तगत आते हैं लेकिन उनके द्वारा चेष्टा करना अर्थात पैरों द्वारा चलना आँख द्वारा देखना आदि आदि कर्म विभाग के अंर्तगत आते हैं। श्लोक 3/28 में भगवान कहते हैं-

तत्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।

    परंतु हे महाबाहो। गुणविभाग और कर्मविभाग के तत्व को जानने वाला ज्ञानयोगी संपूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैंऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता।

    अगले श्लोक 3/29 में भगवान कहते हैं कि ‘‘प्रकृति के गुणों से अत्यंत मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैंउन पूर्णतया न समझने वाले मंदबुद्धि, अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करें।’’ अर्थात जो मनुष्य प्रकृति के गुणों और कर्मों में आसक्त रहता है उनको भगवान ने मन्दबुद्धि और अज्ञानी कहा है।

    हमने जाना कि चौबीस तत्वों का समुदाय जिसे गुण विभाग कहते हैं वह प्रकृति से ही उत्पन्न हुआ है और प्रकृति का अंश है और उन गुणों की चेष्टा का नाम कर्म विभाग है। अतः गुण और कर्म दोनों ही प्रकृति का कार्य है। इन गुणों को पदार्थ कहा गया है और क्रिया का नाम कर्म है। पदार्थ की उत्पत्ति और विनाश होता है और क्रिया का आरंभ और अंत होता है। जैसे खाना-पीना एक क्रिया है और खाने-पीने की सामग्री पदार्थ है। अतः पदार्थ और क्रिया या गुण और कर्म परिवर्तनशील, अनित्य, नाशवान और जड़ हैं, जबकि मनुष्य का वास्तविक स्वरूप (आत्मा) अपरिवर्तनशीलनित्य, चेतन, निर्विकार, अविनाशी, अनादि और अजन्मा है। जब जीव अपना संबंध प्रकृति अर्थात गुणों के साथ कर लेता है तब वह सुख-दुख का भोक्ता बन जाता है और कर्म बंधन में पड़ता है। आत्मा के प्रकाश से ही अर्थात उसकी शक्ति से हीप्रकृति के गुणों द्वारा कर्म किया जाता है आत्मा तो निर्लिप्त भाव से साक्षी रूप में रहता है। मनुष्य का जैसा स्वभाव होता है अर्थात उसके अंदर गुण (सत्व, रज, तम) होते हैं वैसे ही वह कर्म करता है। जीव द्वारा प्रकृति के गुणों के साथ संबंध बन जाने के कारण जीव अपने को उन कर्मों का कर्ता मान लेता है और इसके कारण उसका अनेकों शरीरों में आवागमन होता रहता है।

    जीव जब अपने स्थूल शरीर में आता है और जागृत अवस्था में रहता है उस समय इसका उपरोक्त चौबीस तत्वों वाले तीनों (स्थूलसूक्ष्मकारण) शरीर और पांचों कोशों (अन्नमयप्राणमयमनोमयविज्ञानमयआनंदमय) से संबंध होता है। जब जीव स्वप्न अवस्था में रहता है तब इसका सत्तर तत्वों (पांच प्राणदस इंद्रियांमनबुद्धि) के सुक्ष्म शरीर और तीन कोशों (प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय) के साथ संबंध रहता है। और सुषुप्ति अवस्था में केवल कारण शरीर (अविद्या प्रकृति) और सिर्फ आनन्दमय कोश के साथ संबंध रहता है। कारण शरीर भी मूल प्रकृति का अंश है।

    सुषुप्ति अवस्था में सभी तत्व कारणरूप प्रकृति में लय हो जाते हैंइसीलिए जीव को किसी बात का ज्ञान नहीं रहताइसी गाढ़ निन्द्रा को सुषुप्ति अवस्था कहते हैं और आनन्दमय कोश भी कहते हैं। जागने पर जीव कहता है कि मैं बहुत सुख से सोया और उसे किसी बात का ज्ञान नहीं रहता। इसी अज्ञान को माया-प्रकृति कहते हैं। जब कर्मयोगज्ञानयोग या भक्तियोग द्वारा अंतःकरण शुद्ध हो जाता है तब जीव का अज्ञान दूर हो जाता है और उसे यह ज्ञान हो जाता है कि मैं तो परमात्मा का अंश हूं, “ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ” या ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन, अमल, सहज, सुखराशी

    प्रकृति जड़ है इसे भगवान ने अपरा प्रकृति कहा है और जीव (पुरुष) स्वयं परमात्मा का अंश होने के कारण चेतन या परा प्रकृति है। भगवान गीता के श्लोक 13/19 में कहते हैं कि ‘‘ प्रकृति या पुरुष इन दोनो को ही तू अनादि जान और राग-द्वेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक संपूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न जान।’’ संपूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं। भगवान ने श्लोक 13/20 में कहा है कि ‘‘कार्य और करण को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख-दुखों के भोक्तापन में अर्थात भोगने में हेतु कहा जाता है।’’ इसलिए कर्म और उनके साधन (इंद्रियाँ) का संबंध प्रकृति के साथ है, परंतु प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण सत्वगुणरजोगुण और तमोगुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बांधते हैं। प्रकृति और उसके गुणों (तत्वों) के साथ संबंध के कारण आत्मा जीव कहलाता है। जब जीव को प्रकृति और उसके गुणों के विषय में ज्ञान हो जाता हैतब वह शरीर में स्थित रहते हुए भी निष्काम और निर्लिप्त भाव में अपने कर्तव्यकर्म ईश्वर अर्पण बुद्धि द्वारा लोकहित के लिए करता हुआ यह जानते हुए कि सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं और मैं कुछ नहीं करता हूंइस जन्म मृत्यु के चक्र से छूटकर मुक्त हो जाता है। अतः हमें प्रकृतिउसके गुण और कर्मों के संबंध को जानते हुए अपने स्वरूप को जानने का प्रयास करते रहना चाहिए। भगवान ने शरीर को क्षेत्र और जो इसे जानता हो उसे क्षेत्रज्ञ कहा है अतः दोनों ही अलग-अलग हैं वह तो अज्ञान (अविद्या) के कारण हमने अपने को ही शरीरमनबुद्धि आदि मान रखा है। भगवान ने तो गीता के श्लोक 13/23 में स्पष्ट कहा है कि ‘‘इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है, वह सब प्रकार से कर्तव्य कर्म करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता।’’ और श्लोक 13/29 में भगवान कहते हैं कि ‘‘जो पुरुष संपूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किए जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है वही यथार्थ देखता है।’’ इसलिए हमें प्रकृति, उसके गुणों और कर्मों के संबंध के साथ-साथ अपने स्वरुप को जानने का सतत प्रयास और चिंतन करते रहना चाहिए तभी हमारा मनुष्य जन्म लेना सफल हो सकता है।

 

                              धन्यवाद
                           डॉ. बी. के. शर्मा


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