Saturday, July 4, 2020

कर्मों की सिद्धि के पाँच कारण - दिनांकः- 05.07.20

व्यावहारिक गीता ज्ञान                         


मनुष्य शरीर कर्म प्रधान है। जब हमारे अंदर कुछ पाने की इच्छा होती हैतब हमारी कर्म करने में प्रवृत्ति होती है। कर्म को दो भागों में विभक्त किया गया है । पहला यदि हम फल और कामना का भाव न रख कर अपना कर्म निष्काम भाव से करें तब वह कर्तव्य कर्म है और दूसरा यदि हम कामना या फल की इच्छा रखते हुए सकाम भाव से करें तब वह अकर्तव्य कर्म है। कर्तव्यकर्म करते हुए हम कर्म बंधन से मुक्त रहते हैं और  अकर्तव्य कर्म द्वारा हम कर्म बंधन में पड़ते हैं और बार- बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़े रहते हैं।


भगवान ने गीता के मोक्ष सन्यास योग नामक अध्याय अट्ठारह के श्लोक 13 में कहा है कि संपूर्ण कर्मों की सिद्धि के पांच हेतु (कारण) कर्मों का अंत करने के लिए उपाय बताने वाले सांख्यशास्त्र में कहे गए हैं। और श्लोक 15 में भगवान कहते हैं कि मनुष्य मनवाणी और शरीर से शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत जो कुछ भी कर्म करता है- उसके ये पाँचों कारण हैं।


मनुष्य जितने भी पुण्य-पाप रुपी कर्म करता है, उन्हें शास्त्रों में तीन श्रेणी में बाँटा है। कायिक (शरीर द्वारा किये जाने वाले), वाचिक (वाणी द्वारा) और मानसिक (मन-बुद्धि द्वारा किये जाने वाले) अर्थात् सभी अच्छे या बुरे कर्म शरीर, वाणी और मन इन्हीं तीनों की प्रधानता से होने वाले हैं। इसलिए भगवान ने गीता के अध्याय 17 में शरीर, वाणी और मन सम्बन्धी तप की बात कही है, ताकि इनके द्वारा होने वाले कर्म भी शुद्ध हों। हमें प्रिय और दूसरों के लिए हितकारी वाणी बोलनी चाहिए और अपने मन को शान्त और पवित्र रखना चाहिए ताकि हमारे विचार (अंतःकरण) शुद्ध होकर हमारे द्वारा निष्काम कर्म हो सकें।


भगवान गीता के अध्याय 18 के श्लोक 14 में कर्मों की सिद्धि में पाँच हेतु (कारण) बताते हुए कहते हैं-


अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।

विविधाच्श्र पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम्।।


इस विषय में अर्थात् कर्मों की सिद्धि में अधिष्ठान और कर्ता तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के करण एवं नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवा हेतु दैव है।


हम शरीर, मन और वाणी द्वारा जो भी कर्म करते हैं इसके निम्नलिखित पाँच कारण भगवान ने गीता में बतलाये हैं।


(1)  अधिष्ठान अर्थात् शरीर जो कि सभी क्रियाओं का आधार है। हम अपने शरीर द्वारा ही मुख्य रुप से कर्म करते हैं। हमारी सभी इन्द्रियों और कर्ता का आधार शरीर ही है। हमारा शरीर पाँच महाभूतों आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी से बना है। और अंत में इन्हीं में विलीन हो जाता है। इन पाँच महाभूतों के पाँच विषय हैं शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गन्ध। इन सबका नाम ही कार्य है- इच्छा-द्वेष, सुखःदुख और ज्ञान आदि की अभिव्यक्ति का आश्रय भी शरीर ही है। इसलिए पहला कारण तो शरीर है।


(2)  दूसरा कारण है कर्ता, जिस पर हमें विचार करने की आवश्यकता है। जीवात्मा जो शरीर में रहती है वह तो नित्य, आनन्दस्वरुप, चेतन (दृष्टा) और ईश्वर का अंश है। वह तो इस शरीर के पहले भी किसी दूसरे शरीर में रहती थी और इस शरीर की मृत्यु के बाद भी वह इसे छोड़कर चली जायेगी और तब तक अनेक शरीर धारण करती रहेगी जब तक उसे यह ज्ञान नहीं हो जायेगा कि वह तो मुक्त स्वरूप ही है- केवल अज्ञान के कारण उसने अपना संबंध प्रकृति (शरीर) के साथ मान रखा था। जीवात्मा तो प्रकृति और उसके कार्य से भिन्न एवं अत्यन्त विलक्षण होने पर भी प्रकृति के संबंध से कर्ता और भोक्ता बनकर अज्ञान के कारण सुख-दुख का भोग करता रहता है। जब जीवात्मा अपना संबंध प्रकृति (शरीर) के साथ मान लेता है तब देखना, सुनना, समझना, खाना, पीना आदि समस्त क्रियाओं को वह अपने द्वारा किया जाने वाले समझता है। जबकि वास्तव में यह सब कार्य प्रकृति में स्थित इन्द्रियाँ आँख, नाक, कान, हाथ, पैर, मन, बुद्धि आदि द्वारा हो रहे हैं। भगवान ने गीता के श्लोक (5/8-9) में कहा है कि तत्व को जानने वाला साँख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता हुआ और मुँदता हुआ भी सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में वरत रही है- इस प्रकार समझकर निःसंदेह ऐसा माने कि में कुछ भी नहीं करता हूँ। वास्तव में कुछ जगह तो हम सभी ऐसा ही मानते हैं जैसे श्वास लेते हुए, भोजन को पचाने में, खून और अन्य रसों का शरीर में बनना, आँखों का द्वारा पलक झपकना और शरीर के अन्दर की अन्य क्रियाओं में हमारा कर्ताभाव नहीं होता कि हम ही कर रहे हैं, यह तो इन्द्रियों द्वारा ही हो रहा है। लेकिन बाकी कार्य को इन्द्रियों द्वारा होते हुए भी हम मानते है कि यह सब कार्य हम ही कर रहे हैं और इसी कर्ताभाव के द्वारा हम कर्मबन्धन में पड़ जाते हैं। जबकि हम तो जैसे स्वप्न अवस्था और सुषुप्ति अवस्था में साक्षी रहकर कहते है कि मैंने स्वप्न देखा या बड़ी गहरी निंद्रा में सोया उसी प्रकार जाग्रत अवस्था में भी साक्षी भाव रखकर हम इन्द्रियों द्वारा होने वाले कार्य को अनुभव कर सकते हैं। हमें तो अपनी बुद्धि (करण) को विवेक संपन्न बना देना चाहिए ताकि यह अपने लक्ष्य की ओर ध्यान रखती हुई निपुणता के साथ इन्द्रियों को सन्मार्ग पर चलाने के लिए मन को बाध्य करता रहे। कर्म संग्रह के तीन प्रकार हैं कर्ता, करण और क्रिया। अगर इसमें से कर्ता अलग हो जाये तब क्रिया और उसके होने वाले साधन (करण) ही रह जायेगें और कर्म होते हुए भी कर्म संग्रह नहीं होगा और जीव उस कर्म बन्धन से मुक्त हो जायेगा। अतः कर्ताभाव रखना ही कर्म संग्रह का कारण बन जाता है। जब जीव अपना संबंध शरीर के साथ रखता है तब वह कर्म का कर्ता बन जाता है इसलिए दूसरा कारण कर्म की सिद्धि में कर्ता को बताया है।


(3)  तीसरा कारण है भिन्न-भिन्न करण अर्थात् कर्म करने के साधन। जिन-जिन इंद्रियादि और साधनों के द्वारा कर्म किये जाते हैं उनका नाम करण है। और करने का नाम क्रिया है।पांच ज्ञानेन्द्रियां श्रोत्रत्वचारसनानेत्र और घ्राण एवं पांच कर्मेंद्रियां वाकहस्त, पादउपस्थ और गुदा तथा अंत:करण मनबुद्धिअहंकारइन 13 का नाम करण है। अर्थात् कर्म करने का तीसरा कारण यह 13 साधन हैं। और इनके अतिरिक्त भी जो अन्य साधन कर्म के लिए उपयुक्त हैं वह भी करण की श्रेणी में ही आ जाते हैं। अत: हम देखते हैं कि कर्ता और करण अर्थात् कर्म करने के साधन दोनों ही अलग हैं लेकिन जब कर्ता अपना संबंध करण अर्थात् इन्द्रियों के साथ कर लेता है या स्वयं को ही इन्द्रियां मान लेता है तब वह कर्म बन्धन में पड़ता है।


    महाभारत पुराण में ब्रह्माजी ने अनुगीता के अंतर्गत पंच महाभूतों और इन्द्रियों आदि के विषय में बताया है कि अहंकार से पृथ्वीवायुआकाशजल और तेज़ ये पंच महाभूत उत्पन हुए है। इन्हीं पंचमहाभूतों में अर्थात् इनके शब्दस्पर्शरुपरसगंध नामक विषयों में समस्त प्राणी मोहित रहते हैं। आकाश पहला भूत है। कान उसका अघ्यात्म (इन्द्रिय)शब्द उसका अधिभूत (विषय) और दिशायें उसकी अधिदैवत (अधिष्ठातृ देवता) है। वायु दूसरा भूत हैत्वचा उसका अध्यात्मस्पर्श उसका अधिभूत और विधुत उसका अधिदैवत है। तेज तीसरा भूत हैनेत्र उसका अध्यात्मरूप उसका अधिभूत और सूर्य उसका अधिदैवत् है। जल चौथा भूत हैरसना उसका अध्यात्मरस उसका अधिभूत और चंद्रमा उसका अधिदैवत् है। पृथ्वी पाँचवा भूत हैनासिका उसका अध्य़ात्मगन्ध उसका अधिभूत और वायु उसका अधिदैवत् है। इसी प्रकार पाँच कमेन्द्रिया के विषय में बताया है। जैसे पैरों को अध्यात्म कहते है और गन्तव्य स्थान को उनके अधिभूत तथा विष्णु उनके अधिदैवत् हैं। दोनों हाथ अध्यात्म हैकर्म उनके अधिभूत तथा इन्द्र उनके अधिदैवत् है। वाणी अध्यात्म है और वक्तव्य उसका अधिभूत तथा अग्नि उसका अधिदैवत् है। पँचभूतों का संचालन करने वाला मन अध्यात्म हैसंकल्प उसका अधिभूत है और चँद्रमा उसके अधिष्ठाता देवता है। संपूर्ण संसार को जन्म देने वाला अहंकार अध्यात्म है और अभिमान उसका अधिभूत तथा रूद्र उसके अधिष्ठाता देवता है। विचार करने वाली बुध्दि अध्यात्म हैमन्तव्य उसका अधिभूत है और ब्रहमा उसके अधिदैवता है। इंद्रियाँउनके विषय और पँचमहाभूतों की एकता का विचार करके उसे मन में अच्छी तरह धारण कर लेना चाहिए। अतः हम यह जान जाते है कि कर्ता का इन्द्रियाँउनके विषय और पँचमहाभूत से संबंध नही हैकर्ता स्वंतत है और साक्षी भाव से इन सबको देख सकता है। लेकिन कर्ता जब अपना संबंध करण के साथ कर लेता है तब कहता है कि सभी कर्म मैं ही कर रहा हूँ।

    

    (4) चौथा कारण हैनाना प्रकार की भिन्न-भिन्न चेष्टाएँ। कर्म करने के जो करण या साधन है उनके द्वारा कर्म करने की चेष्टा करना जैसे पैरों के द्वारा चल कर कार्य के लिए जाना या किसी बाहरी साधन का उपयोग करनाहाथों का और बाकी इंद्रियों का कर्म में उपयोग करने की चेष्टा करनामन और बुद्धि के द्वारा कार्य को सफल करने का प्रयास  करना आदि आदि । अर्थात कर्म को पूरा करने के लिए जितनी भी हम चेष्टा कर सकते हैं उसमें कोई कमी न रखना।


    (5) पाँचवा कारण दैव अर्थात प्रारब्ध है। जो हमारे संचित कर्म है उनके द्वारा ही हमारे अंतःकरण में संस्कार बनते हैं और हम वैसा ही कर्म करते हैं और संचित कर्म में से जो कर्म प्रारब्ध रूप से फल देने के लिए हमारे सामने आते हैं उसी के अनुसार हमें वर्तमान में फल मिलता है। अतः कर्म करने में तो हम स्वतंत्र है लेकिन फल क्या होगा यह हमारे हाथ में नहीं हैइसीलिए गीता में बार-बार आता है कि फल और कामना की इच्छा से रहित होकर अपने कर्तव्य कर्म करें ।
    

    उपरोक्त श्लोक में कर्म की सिद्धि में पांच हेतु (कारण) बताए हैं अधिष्ठान अर्थात आधार (शरीर) जिसके बिना कोई कार्य नहीं हो सकता। कर्ता अर्थात क्रिया करने वाला यदि वह अपना संबंध शरीर के साथ रखता है या निष्काम भाव से अहंकार रहित होकरईश्वर अर्पण बुद्धि द्वारा, कर्तापन के अभिमान से रहित होकर अपना कार्य करना जिससे वह कर्म करता हुआ भी उससे मुक्त रह सके। कर्म करने के विभिन्न साधन अर्थात करण और नाना प्रकार की कर्म करने की चेष्टाएं। यदि हमारे पास साधन तो हों लेकिन हम चेष्टा न  करें तब कर्म कैसे होंगे अर्थात पूरी चेष्टा के साथ अपने कर्म करना और पांचवा प्रारब्ध (दैव) है। कभी-कभी हम देखते हैं कि सब कुछ ठीक प्रकार से करने पर भी हमें सफलता नहीं मिलती और कभी थोड़ा भी करने पर सफल हो जाते हैं इसी में हमारा प्रारब्ध आ जाता है। लेकिन पांच में से चार तो हमारे हाथ में ही हैं अतः हमें अपने कार्य पूरी इमानदारीमेहनत और पूरी चेष्टा के साथ अपने सभी साधनों का उपयोग करते हुए निष्काम भाव से करने चाहिए। जब हम फल की इच्छा ही नहीं रखेंगे तब जो भी ईश्वर की इच्छा होगी उसी को प्रारब्ध मानकर हमें प्रसन्न रहना चाहिए। हमें सुखी या दुखी ज्यादा नहीं होना चाहिए। जब हमारे ही संचित कर्म हमारे सामने प्रारब्ध बनकर आते हैं तब किसी अन्य को हम दोष क्यों देते हैं। हम अपना नियत कर्म शास्त्रानुसार करते रहेंइसी में हमारा कल्याण निहित है।

 

                                                           धन्यवाद

 डॉ. बी. के. शर्मा

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