Tuesday, June 30, 2020

कर्मफल के त्याग से लाभ - 30.06.2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान


भगवान गीता के अध्याय 18 के श्लोक 12 में कर्मफल के त्याग से होने वाले लाभ को बताते हैं:

 

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधिं कर्मण: फलम् ।

भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्यासिनां कव्चित् ।।


       कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा-बुरा और मिला हुआ ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य होता है ,किंतु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्य के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता। 

       हम शरीरमन और वाणी द्वारा जो क्रिया करते हैं- वह कर्म कहलाता है। पांच महाभूतों (आकाशवायु ,अग्निजल ,पृथ्वी )से बना हुआ कर्मजन्य सुख -दुखादि भोगों के आयतन को स्थूल शरीर कहते हैं। अस्ति (व्यवहार योग्य होना)उत्पन्न होता हैबढ़ता है ,रूपांतर को प्राप्त होता है ,घटता है और नष्ट हो जाता है । ऐसे छः विकारों से युक्त  स्थूल शरीर है। यह जन्म से मृत्यु तक परिवर्तनशील है। शरीर का संबंध प्रकृति के साथ है जबकि हमारा संबंध ईश्वर के साथ है। हमारा स्वरूप (आत्मा) परिवर्तन रहित हैजबकि प्रकृति सदा परिवर्तनशील है। जब प्रकृति (शरीर ,मन ,बुद्धि )आदि में होने वाली क्रिया को हम अपने में मान लेते हैं अर्थात उनके साथ अपना संबंध स्थापित कर लेते हैं तब हम कर्म के साथ बंध जाते हैं और उसका फल भी हमें ही भुगतना पड़ता है।  पांच ज्ञानेंद्रियां ,पांच कर्मेंद्रियां,  पांच प्राण ,मन और बुद्धि ऐसे 17 कलाओं के सहित जो रहता है वह सूक्ष्म शरीर है ।

भगवान ने गीता के श्लोक (13/20) में कहा है कि कार्य और करण को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख दुखों के भोगने में हेतु कहा जाता है। पांच महाभूत और उनके विषय (शब्दस्पर्शरूपरस और गंध) का नाम कार्य हैऔर पांच ज्ञानेंद्रियां ,पांच कर्मेंद्रियां और मनबुद्धिअहंकार (अंत:करण) इन 13 का नाम करण है। अत: कार्य और उनके करने के साधन (करण) सब प्रकृति के ही अंश हैं। हम उनके साथ अपना संबंध रखकर उनसे बंध जाते हैं। यदि हम अपने कर्तव्यकर्म भगवान की आज्ञानुसार अर्थात जैसा कि भगवान ने हमें गीता में और अन्य शास्त्रों में कर्म करने की विधि बताई हैआसक्ति और फल की इक्छा का त्याग करते हुए करें उसमें कर्तापन का अभिमान न रखेंपूर्ण निष्काम भाव से दूसरों के हित की दृष्टि रखते हुए करें तब हम कर्म बंधन से मुक्त हो जाते हैं।

भगवान ने गीता के श्लोक (18 /11 )में कहा है कि शरीरधारी किसी भी मनुष्य के द्वारा संपूर्णाता से सब कर्मों का त्याग किया जाना शक्य नहीं हैइसलिए जो कर्मफल का त्यागी है वही त्यागी है - यह कहा जाता है । श्लोक (12/12) में भगवान कहते हैं कि मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है ,ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है  क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शाँति होती है। जो शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है- वही सात्विक त्याग कहा जाता है। भगवान ने गीता के अनेकों श्लोकों में कर्मफल के त्याग के विषय में हमें बताया है।

कर्म तीन प्रकार के होते हैं- क्रियमाणसंचित और प्रारब्ध। जो कर्म हम अभी वर्तमान समय में करते हैं वह क्रियमाण कर्म है और वर्तमान से पहले इस जन्म में और पूर्व जन्म में हमारे द्वारा किए गए कर्म संचित कर्म कहलाते हैं और संचित कर्म में से जो कर्म हमारे सामने फल देने के लिए सामने आते हैं वह प्रारब्ध कर्म हैं। हमारे द्वारा तीन तरह से कर्म होते हैं (1) शुभ (पुण्य) कर्मजिनका फल सुख या अनुकूल परिस्थिति होती है जो हमें अच्छी लगती है अर्थात् इनका अच्छा फल मिलता है। (2) बुरे (पाप) कर्म जिनका फल दुख या प्रतिकूल परिस्थिति जो हमें बुरी लगती है अर्थात बुरा फल मिलता है। (3) मिश्रित (पुण्य-पाप) कर्म जिनका फल कभी अच्छा और कभी बुरा अर्थात अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति का आना-जाना जैसा कि मनुष्य जन्म में होता रहता है। हम शुभ कर्म के कारण उच्च लोकों में जाते हैं और अशुभ कर्म के कारण पशु पक्षी योनियों में जाते हैं तथा मिश्रित कर्म के कारण मनुष्य जन्म लेकर सुख-दुख प्राप्त करते रहते हैं। अर्थात कोई भी कर्म करने से पहले हम स्वतंत्र हैं उसे करने के लिए अतः विचारपूर्वक ही कर्म करने चाहिए यह नहीं जो मन में आया कर लिया। कर्म करने के बाद वह हमारे अंतःकरण में संचित हो जाता है और फल रूप में हमारे सामने आता है। और इन्हीं कर्मों के कारण हमारे संस्कार बनते हैं और स्वभाव बनता है और हमारा जीवन भी वैसा ही बन जाता है।

यदि हम अपने कर्म, फल की इच्छा न रखते हुए अर्थात फल का त्याग करके करें अर्थात कामनाआसक्तिममता आदि  न रखकर भगवान को ही अर्पण करके और भगवान को ही संसार का मालिक मानकर लोकहित की दृष्टि से करें तब जैसा भगवान ने कहा है कि ऐसे मनुष्यों को कर्म का फल किसी काल में भी नहीं होता अर्थात वह कर्मबंधन से मुक्त हो जाती हैं। भगवान ने गीता में इस शरीर को क्षेत्र अर्थात खेत कहा हैजैसे खेत में हम जो भी बीज डालते हैं वह समय आने पर वृक्ष बनकर फल देता है लेकिन हम यदि उस बीज को अग्नि में भून लें और खेत में डालें तब वह न तो वृक्ष बनेगा और न फल देगा। इसी प्रकार हम यदि अपने कर्म ज्ञान के साथ करें जैसा कि शास्त्रों में भगवान ने कहा है तब हमारे कर्म भी ज्ञान की अग्नि में भस्म होकर कोई अच्छाबुरा या मिश्रित फल किसी भी काल में नहीं देंगे और हम कर्म करते हुए कर्म बंधन से मुक्त होकर इस जन्म मृत्यु के आवागमन से मुक्त होकर परमपद की प्राप्ति कर लेंगे। यह केवल मनुष्य जन्म में ही ज्ञान द्वारा संभव हैबाकी सभी तो केवल भोग योनियाँ हैं। अतः हमें अभी सचेत हो जाना चाहिएजो समय हमारे जीवन का व्यतीत हो गया है वह तो अब वापस  नहीं आ सकता लेकिन अभी भी जो बचा है उसका तो हम आज से ही सदुपयोग करके अपना उद्धार कर सकते हैं ताकि हमारा मनुष्य जन्म लेना सफल हो सके।

                                      धन्यवाद

                                     डॉ. बी. के. शर्मा


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