Friday, June 12, 2020

बुद्धिमान पुरुष के लक्षण - 11 जून 2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान

     🌹गीता महात्म में आता है कि जो महाभारत का अमृतोपन सार है तथा जो भगवान श्री कृष्ण के मुख से प्रकट हुआ है, उस गीता रूप गंगाजल को  पी लेने पर पुनः इस संसार में जन्म नहीं देना पड़ता ।  मेरे विचार में गीता रूप गंगा जल को पी लेने का अर्थ है कि भगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर जो गीता का उपदेश दिया था उसको यदि हम अपने दैनिक व्यवहार के उपयोग में लाएं और हमारे कर्म भी गीता में बतलाए गए तरीकों के अनुसार हो तब जैसे कमल का पत्ता जल में ही उत्पन्न होकर, जल में ही रहते हुए भी जल से लिप्त नहीं होता, वैसे ही कर्म योगी भी सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके, और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता हुआ पाप से लिप्त नहीं होता ।(गीता 5/10)

      🌹महाभारत के आदिपर्व में आता है कि ब्रह्मा जी के कहने से महर्श्रि वेदव्यास जी ने भगवान गणेश जी से महाभारत ग्रंथ का लेखक बनने की प्रार्थना की। इस पर गणेश जी ने एक शर्त रखी  कि यदि लिखते समय  क्षण मात्र के लिए भी मेरी लेखनी न रुके तो मैं इस ग्रंथ का लेखक बन सकता हूं । वेदव्यास जी ने भी गणेश जी के सामने यह शर्त रखी कि आप भी बिना समझे किसी भी प्रसंग में एक अक्षर भी ना लिखें। गणेश जी ने इसे स्वीकार कर लिया और महाभारत लिखने बैठ गए। लिखवाते समय बीच-बीच में वेदव्यास जी ऐसे ऐसे गूढ अर्थ वाले श्लोक बोल देते थे, जिन्हें समझने के लिए गणेश जी को थोड़ा रुकना पड़ता था । उतने समय में वेदव्यास जी और बहुत से श्लोकों की रचना कर लेते थे।  गीता भी महाभारत ग्रन्थ के अंतर्गत ही आती है , बाद में उन स्लोको  को महाभारत ग्रंथ से निकालकर अलग से गीता ग्रंथ बनाया गया ताकि सभी मनुष्य गीता का अध्ययन कर सकें और उसे अपने व्यवहार में ला सकें।जरा विचार करें कि गीता जोकि साक्षात कमलनाथ भगवान विष्णु के मुख कमल से महाभारत के युद्ध प्रारंभ होने से पहले प्रगट हुई है । और बाद में महर्षि वेदव्यास जी ने जब महाभारत ग्रंथ की रचना की तो स्वयं  भगवान गणेश जिसके लेखक थे , ऐसा महानतम  गीता ग्रंथ आज हमें प्राप्त है इससे बड़ा हमारा क्या सौभाग्य हो सकता है।

          🌹भगवान गीता के अध्याय 4 के श्लोक 19 में तत्व ज्ञानी या बुद्धिमान पुरुष के लक्षण बताते हैं:-

यस्य सर्वे समारम्भा  कामसंडकल्प वर्जिता: ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधा: ।। 🎊

        🌹 जिसके संपूर्ण शास्त्र सम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञान रूप अग्नि के द्वारा भस्म हो गए हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित (बुद्धिमान )कहते हैं। 

       🌹भगवान ने बुद्धिमान पुरुष के 3 लक्षण बताए हैं 

1)  जिसके संपूर्ण कर्म शास्त्र सम्मत हों । अर्थात जैसी कर्म करने की विधि भगवान ने गीता में बताई है और अन्य शास्त्रों में वर्ण , आश्रम , परिस्थिति के अनुसार जीविका और व्यवसाय आदि के विषय में बताई गई हैं उसी के अनुसार वह कर्म करता है। उससे शास्त्रनिषिध कोई भी कर्म नहीं होता। वह केवल शास्त्र सम्मत कर्म ही करता है।

2 ) उसके सभी शास्त्र सम्मत कर्म कामना और संकल्प से रहित ही होते हैं । जैसा कि भगवान ने गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 62 में बताया है कि विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष को उन विषयों में आसक्ती हो जाती है और आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है । अतः यदि हम देखें कि हमारा मन विषयों का चिंतन हमेशा करता है , मन का काम ही संकल्प - विकल्प करना है ।यह तो अभ्यास से ही वश  में किया जा सकता है । जब मन द्वारा हम किसी विषय का बार-बार चिंतन करते हैं तब  यदि हमारी बुद्धि भी उस विषय या संकल्प को पूरा करने का निश्चय कर ले तब उसमें हमारी ममता या आसक्ति के कारण उस कर्म को करने की कामना उत्पन्न हो जाती है । अतः पहले संकल्प पैदा होता है और वहीं  कामना का कारण है ।  कामना तो संकल्प को पूरा करने का कार्य है । अतः सकाम पुरुष केवल संकल्प को पूरा करने के लिए कामना करके कार्य करता है और इसी कारण ओर कर्म अर्थात संकल्प और कामना के बंधन में पड़ जाता है। भगवान ने श्लोक  18/23  में कहा है कि जो कर्म शास्त्र  विधि से नियत  किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-  द्वेष के किया गया हो वह सात्विक कर्म कहा गया है।  और श्लोक  2/71 में भगवान कहते हैं कि जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्याग कर, ममता रहित, अहंकार रहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है वही शांति को प्राप्त होता है ।अतः बुद्धिमान मनुष्य शास्त्र सम्मत कर्म संकल्प और कामना को त्याग कर लोक हित में करता है उसमें उसका कोई स्वार्थ नहीं होता वह निर्लिप्त होकर अपने कर्म करता है। 

3)  उसके समस्त कर्म ज्ञान रूप अग्नि के द्वारा भस्म अर्थात समाप्त हो जाते हैं ।  जब मनुष्य को यह ज्ञान हो जाता है कि कर्म तो मन ,बुद्धि,  इंद्रियां अर्थात शरीर द्वारा संसार के लिए हो रहे हैं इनका आरंभ और अंत होता है , लेकिन उसका वास्तविक स्वरूप जो आत्मा है वह तो इस शरीर में रहते हुए भी इस से पृथक और अकर्ता है ,  वह तो सब से निर्लिप्त रहता है ,  वह तो ईश्वर का अंश है। इस प्रकार परमात्मा के ज्ञान होने को यहां पर ज्ञान रूप अग्नि कहा है।  जैसे अग्नि सब को जलाकर भस्म कर देती है इसी प्रकार यह ज्ञान रूपी अग्नि भी समस्त कर्मों को भस्म कर देती है।

  🌹इसलिए बुद्धिमान पुरुष कर्मों में ममता ,आसक्ती,  फल की कामना ,कर्तापन का अभिमान आदि ो न रखते हुए दूसरों के हित या लोकहित के लिए अपने कर्तव्य कर्म निस्वार्थ भाव से एवं उनमें निर्लिप्त और समान भाव रखते हुए इस  संसार में शरीर और इंद्रियों द्वारा करते रहते हैं । उनका अंतःकरण शांत रहता है चूंकि वह अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए संकल्प और कामना से रहित होकर शास्त्र सम्मत कर्म करते हैं।  इस तरह कर्म करने पर उसका अंतःकरण शुद्ध हो जाता है और शुद्ध अंतरण हुआ मनुष्य उस ज्ञान को अपने आप ही आत्मा में पा लेता है ऐसा भगवान ने गीता के श्लोक 4/38 में कहा है।

 धन्यवाद
     🎊 बी.के. शर्मा 🎊

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