व्यावहारिक गीता ज्ञान
भगवान ने गीता के अध्याय चार के श्लोक 38 में कर्मयोग के महत्व के विषय में कहा है -
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्ध कालेनात्मनि विन्दति।।
इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने आप ही आत्मा में पा लेता है।
कर्म करने में तीन प्रकार से प्रेरणा मिलती है, पहले तो मन में नाना प्रकार के भाव उठते हैं, फिर बुद्धि निश्चय करती है, उसके पश्चात हृदय उनकी अनुकूलता और प्रतिकूलता का विचार करता है। इसके बाद हमारी कर्म में प्रवृत्ति होती है। गीता के श्लोक 6 /1 में भगवान कहते हैं कि जो पुरुष कर्मफल का आश्रय ना लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह सन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला सन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है। जब हम अपने अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) में समत्व (समता) भाव रखकर कर्म करते हैं तब यह कर्म योग हो जाता है। समत्व ही योग कहलाता है “ समत्व योग उच्यते ”। यह समत्वरुप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात् कर्मबंधन से छूटने का उपाय है। कर्मयोग में त्याग मुख्य है, अर्थात् कर्म करते हुए फल की इच्छा का त्याग, कामना और ममता का त्याग, राग-द्वेग का त्याग, कर्तापन के अभिमान का त्याग आदि। भगवान ने गीता के श्लोक 2/51 कहा है कि समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बन्धन से मुक्त हो निर्विकार परमपद को प्राप्त हो जाते हैं।
इस प्रकार कर्म करने से अर्थात् कर्मयोग द्वारा हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त आदि) शुद्ध हो जाता है, और हमारा अज्ञान कि मैं शरीर हूँ, मैं ही कर्म कर रहा हूँ, आदि दूर हो जाता है, और आत्मा जो कि ईश्वर का अंश है, ज्ञान स्वरूप है, सत्य है, अनन्त है, हमारा वास्तविक स्वरुप है, वह ज्ञान (विवेक) हमारे अंदर प्रकट हो जाता है। भगवान गीता के श्लोक 4/37 में कहते हैं कि जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देती है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देती है, अर्थात् ऐसा मनुष्य संसार में रहता हुआ कर्म करता हुआ भी कर्मबन्धन से मुक्त रहता है और उसे तत्वज्ञान प्राप्त हो जाता है जिससे वह जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट जाता है।
महाभारत के शांतिपर्व में भगवान वेदव्यास जी, शुकदेव जी को आध्यात्मज्ञान का वर्णन करते हुए कहते हैं कि मनुष्य के शरीर में पाँच इन्द्रियाँ हैं (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, घ्राण), छठा तत्व मन है, सातवां तत्व बुद्धि है और आठवां क्षेत्रज्ञ (आत्मा) है। आँख देखने का काम करती है, मन संदेह करता है, और बुद्धि उसका निश्चय करती है किंतु क्षेत्रज्ञ (आत्मा) उन सब का साक्षी कहलाता है। मनुष्य जब किसी बात की इच्छा करता है तो उसकी बुद्धि मन के रूप में परिणत हो जाती है। नेत्र आदि इन्द्रियाँ अलग-अलग प्रतीत होने पर भी बुद्धि में ही स्थित है, इन सबको अपने अधीन रखना चाहिए, क्योंकि जब मनुष्य अपनी इन्द्रियों को अच्छी तरह से वश में कर लेता है तो जिस प्रकार दीपक के प्रकाश में किसी वस्तु का आकार स्पष्ट दिखाई देता है उसी प्रकार उसे ज्ञानलोक में आत्मा का साक्षात दर्शन होता है। जैसे अन्धकार नष्ट होने पर सबको प्रकाश दिखलाई देता है उसी प्रकार अज्ञान का नाश होने पर ज्ञान स्वरूप आत्मा का साक्षात्कार होने लगता है। जैसे जल में रहने वाला पक्षी जल में विचरता हुआ भी उससे निर्लिप्त रहता है उसी प्रकार कर्मयोगी संसार में रहता हुआ भी कर्मदोष से मुक्त ही रहता है। व्यास जी कहते हैं जैसे तैरने की कला न जानने वाला मनुष्य यदि भरी हुई नदी में कूद जाता है तो वह गोते खाते हुए दुख उठाता है उसी प्रकार अज्ञानी मनुष्य इस संसार सागर में डूबकर कष्ट भोगते रहते हैं किंतु जो तैरना जानता है वह जल में भी स्थल की भांति चलता है, उसी प्रकार ज्ञान स्वरूप आत्मा को प्राप्त हुआ तत्ववेत्ता पुरुष संसार सागर से मुक्त हो जाता है। मन और इन्द्रियों का संयम तथा आत्मा का ज्ञान ये मोक्ष प्राप्ति के लिए पर्याप्त साधन है। कर्मपरायण मनुष्य निष्कामभाव से जिस कर्म का अनुष्ठान करते हैं वह पहले के किए हुए सकाम कर्मों को नष्ट कर देता है, किंतु जो ज्ञानी है उसके इस जन्म या पूर्वजन्म के लिए हुए कर्म उसका भला या बुरा कुछ भी नहीं कर सकते।
अतः निष्कामभाव से कर्म करते हुए हमारा अन्तःकरण शुद्ध होकर हम आत्मभाव में स्थित होकर वह ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं जिसके समान इस संसार में पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं है और उस आत्मज्ञान के द्वारा हमारे सभी कर्म भस्म हो जाते हैं अर्थात् हम कर्मबन्धन से मुक्त होकर इस संसार के अवागमन से छूट जाते हैं।
डॉ. बी. के. शर्मा
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