व्यवहारिक गीता ज्ञान
भगवान गीता के अध्याय चार के श्लोक 18 मे बुधिमान मनुष्य जो कर्म और अकर्म को यथार्थ रूप से जानता है के विषय मे कहते है:-
कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: ।
स बुधिमान्मनुषयेषु स युक्त: कृत्सरकर्मकृत ।।
जो मनुष्य कर्म मे अकर्म देखता है और जो अकर्म मे कर्म देखता है, वह मनुष्यो मे बुद्धिमान है और वह योगी समस्त कर्मो को करने वाला है ।
हम शरीर, इन्द्रिया, मन और वाणी द्वारा जो क्रिया करते है वह कर्म की श्रेणी मे आता है । कर्म का करना और ना करना कर्ता के अधीन है । भगवान ने गीता के श्लोक 18/23 मे कहा है कि जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ हो और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल ना चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग द्वेष के किया गया हो - वह सात्विक कहा जाता है । गीता मे भगवान योग मे स्थित होकर कर्तव्यकर्मों को करने के लिये कहते है "योगस्थ: कुरु कर्माणि" और कहते है समत्व ही योग कहलाता है । "समत्व योग उच्यते" यह समत्वरूप योग ही कर्मो मे कुशलता है "योग: कर्मसु कौशलम"। अत: जब हम समत्वरूप योग मे स्थित होकर कर्म करते है तब ही वह कर्मयोग कहलाता है ।।
जब कर्म करते हुए कर्ता के अन्त:करण मे फल की इच्छा, कामना, ममता और आसक्ति आदि नही होते तब उसके द्वारा शास्त्र विधि से किये गये नियत कर्म 'अकर्म' हो जाते है अर्थात वह बंधनकारी नही होते और ऐसा कर्ता कर्म करते हुए भी मुक्त ही रहता है । अर्थात कर्म से जीव बंधता है लेकिन अकर्म से जीव मुक्त होता है । कर्मो मे लिप्तता अर्थात ममता, फल की इच्छा, आसक्ति आदि ही बन्धकारी है और कर्म करते समय उनमे निर्लिप्त भाव रखना अर्थात कोई कामना या आसक्ति आदि ना रखकर केवल संसार के हित के लिये अपने कर्तव्य कर्म करना ही कर्म करते हुए उनसे मुक्त होता है । निर्लिप्त भाव से कर्म करने से हमारा अन्त:करण शुद्ध हो जाता है और हमे ज्ञान हो जाता है कि सब कर्म तो शरीर और इन्द्रियो से हो रहे है अर्थात प्रकृति के गुणो द्वारा ही हो रहा है, मेरा वास्तविक स्वरूप जो कि ईश्वर का अंश है, वह आत्मा तो निर्गुण है, निर्लिप्त है, उसमे तो कोई कर्म होता ही नही है वह तो साक्षी भाव से केवल देख रहा है और जीव भाव से हम सुख दुख का भोग कर रहे है, जब जीव भाव समाप्त होकर वह आत्मा के साथ एकीकार कर लेता है तब तो वह अकर्ता है । अत: बुद्धिमान पुरुष कर्म मे अकर्म और अकर्म मे कर्म देखता है ।
भगवान शंकराचार्य अपने भाष्य मे कहते है कि जब हम नदी मे नाव द्वारा यात्रा करते है तब नदी के तट पर स्थित वृक्ष विपरीत दिशा मे चलते हुए दिखाई पडते है । ऐसा हमारी गति के कारण होता है कि स्थिर वस्तु भी जिसमे कोई क्रिया नही हो रही है वह भी गतिशील लगती है । इसी प्रकार हम भी अपने शरीर द्वारा कर्म के समय जो चेष्टा करते है उसे अपनी आत्मा मे आरोपित करके उसके द्वारा होते हुए जान लेते है । ज्ञान होने पर यह भ्रान्ति दूर हो जाती है । कर्म का उसके फल का, भोग का आदि और अंत है, लेकिन हमारा अपना वास्तविक स्वरूप अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है । शरीर की मृत्यु के बाद भी यह नही मारा जाता और ना ही इसका जन्म होता है । कर्म के साथ अपना सम्बंध बनाने के कारण ही हम उस से बन्धकर बार बार जन्म- मृत्यु के चक्र मे पडे रह्ते है ।
जो कर्म शास्त्रविरुद्ध हो अर्थात जिसका शास्त्रो मे निषेध कहा गया है वह विकर्म कहलाता है । विकर्म के होने मे मूल कारण कामना का होता है । जब हम कामना रखकर की मुझे इस कर्म से बहुत धन की प्राप्ति होगी और फिर भोग भोगूंगा, कोई व्यापार या नौकरी करते है तब हम अपनी कामना की पूर्ति के लिये कुछ भी गलत काम करते है, यह जानते हुए भी कि यह फल तो कुछ समय के बाद नष्ट हो जायेगा लेकिन यह किया गया विकर्म उसके अंत:करण मे संचित कर्म के रूप मे रह जायेगा और फिर इस जन्म या अगले जनम मे प्रारब्ध रूप से उसे ही भोगना पडेगा ।
भगवान गीता के श्लोक 4/17 मे कहते है कि कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये, क्यूंकि कर्म की गति गहन है "गहना कर्मणो गति:"। अत: भगवान ने गीता मे जो हमे कर्म, अकर्म और विकर्म के विषय मे बताया है उस पर भली भान्ति विचार करके हमे अपने कर्तव्यकर्म पुर्ण निष्ठा, इमानदारी के साथ और कामना, ममता और आसक्ति से रहित होकर करने चाहिये ताकि हम कर्म करते हुए उनसे मुक्त हो सके ।
धन्यवाद
बी.के. शर्मा
बहुत ही सरल शब्दों में अत्यंत गूढ़ विषय का विवेचन!
ReplyDeleteThanks
DeleteAp ne Geeta ke gyan ko simple bhasha me explain kiya hey.
ReplyDeleteKeep This josh forever.
Thanks
Dhanvat pranam Prabhuji 🙏
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