Monday, June 22, 2020

शांति प्राप्त पुरुष के लक्षण - 22.06.2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान


भगवान ने गीता के अध्याय चार के श्लोक 39 में भगवतप्राप्त रुप शांत पुरुष के लक्षण बताये हैं।


श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांन्तिमचिरेणाधिगच्छति।।


जितेन्द्रिय, साधन परायण ओर श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है। तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरुप परम शांति को प्राप्त हो जाता है।


भगवान ने भगवत्प्राप्तरुप परम शांति को प्राप्त पुरुष के तीन प्रमुख लक्षण बताये हैं (1) वह जितेन्द्रिय हो, अर्थात् जिसने अपनी इन्द्रियों पर संयम प्राप्त कर लिया है (2) साधन परायण हो, अर्थात् अपने साधन में तत्परता से लगा रहता है (3) श्रद्धावान हो, अर्थात् उसे गुरु, शास्त्रों एवं वेदान्त वाक्यों में पूर्ण विश्वास है। इन तीनों के प्राप्त होने पर उस मनुष्य को आत्मतत्व का ज्ञान हो जाता है, उसका अज्ञान नष्ट हो जाता है और वह उसी क्षण भगवत्प्राप्तिरुप परम शांति को प्राप्त हो जाता है।


भगवान ने इस श्लोक में सर्वप्रथम हमें इन्द्रिय संयम के  विषय में कहा है। जैसा की हम जानते हैं कि हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ है, श्रोत्र(कान), त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण (नासिका)। श्रोत्र का विषय शब्द ग्रहण, त्वचा का विषय स्पर्श ग्रहण, नेत्र का विषय रुप ग्रहण, रसना या जीभ का विषय रसग्रहण तथा नासिका का विषय गन्ध ग्रहण है। अर्थात् पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच विषय शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गन्ध है। जैसा कि उपनिषद में आता है कि हमारे शरीर रुपी रथ में हमारी इन्द्रियाँ ही घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथी है और जीव (स्वयं) ही इस रथ में सवार होकर इस संसार की यात्रा कर रहा है। यदि इस रथ का सारथी (बुद्धि), लगाम (मन) द्वारा घोड़ों (इन्द्रियाँ) को वश में नहीं रखेगा। तब यह इन्द्रियाँ रुपी घोड़े बेकाबू होकर रथ(हमें) को ही कहीं गड्डे में गिरा देगें। हम देखते हैं कि हमारी इन्द्रियाँ विषयों की तरफ भागती रहती हैं यदि हम मन और बुद्धि द्वारा अपनी इन्द्रियों पर संयम नहीं रखेंगें तब यह हमें शांति से बैठने भी नहीं देगी। भगवान ने गीता के श्लोक (3/42) में इन्द्रियों को स्थूल शरीर से बलवान और सूक्ष्म कहा है, इन इन्द्रियों से श्रेष्ठ (बलवान) मन है और मन से भी श्रेष्ठ बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्पन्त श्रेष्ठ है वह आत्मा है। अर्थात हमें आत्मा में स्थित होकर अपनी बुद्धि से मन को वश में करके, फिर मन द्वारा इन्द्रियों को संयम में रखना चाहिए।


महाभारत के शांतिपर्व में आता है कि भगवान वेदव्यास जी शुकदेव जी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश देते हुए कहते हैं कि जैसे पिता अपने छोटे बच्चे को काबू में रखना है उसी प्रकार मनुष्य को बुद्धि के बल से अपनी इन्द्रियों का यत्नपूर्वक संयम करना चाहिए। मन और इन्द्रियों की एकाग्रता ही सबसे बड़ी तपस्या है यही सबसेश्रेष्ठ धर्म है। मनसहित इन्द्रियों को बुद्धि में स्थापित करके अपने आप में ही सन्तुष्ट रहे, नाना प्रकार के चिन्तनीय विषयों का चिन्तन न करें। जिस समय ये इन्द्रियाँ अपने विषयों से हटकर बुद्धि में स्थित हो जायेगी उसी समय तुम्हे सनातन परमात्मा का दर्शन होगा।


दूसरी बात भगवान साधन परायण के विषय में कहते हैं, अर्थात जब मनुष्य अपनी इन्द्रियों पर संयम प्राप्त कर लेता है और उन्हें विषयों या भोगों से हटा कर अपने वश में रखता है, तब वह अपने साधन में तत्परता से लग जाता है। उदाहरण के लिए जब मनुष्य कोई व्यापार आदि करता है और उसमें धन कमाता है, तब वह व्यापार में पूरी तत्परता से लग जाता है उसे भूख-व्यास या अपने आराम की भी चिन्ता नहीं रहती, उसकी दृष्टि केवल धन कमाने में ही लगी रहती है।


तीसरी बात भगवान ने श्रद्धा के विषय में बताई है। तत्वबोध में भगवान शंकराचार्य श्रद्धा के बारे में कहते हैं ‘‘श्रद्धा का? गुरुवेदान्तवाक्येषु विश्वासः’’। अर्थात गुरु (महापुरुष) ओर वेदान्त (शास्त्रों) वाक्यों में दृढ़ विश्वास श्रद्धा है। जब साधक शास्त्रों में बताये गये सिद्धान्तों पर अपनी पूरी श्रद्धा या विश्वास रखकर उनका पालन करते हुए अपनी इन्द्रिय संयम करके अपने साधन में तत्परता से लग जाता है तब उसे वह आत्मज्ञान प्राप्त होता है जिससे उसे परम शान्ति प्राप्त होती है। जिस शान्ति को वह बाहर संसार में अनेक स्थानों पर या पदार्थों (विषयों) में खोजता है और कभी –कभी उसे क्षणिक रुप से वह मिल भी जाती है लेकिन कुछ समय के बाद फिर वह अशांत हो जाता है। ज्ञान होने पर उसे वह शान्ति अपने अंदर ही प्राप्त होती है, चूँकि संसार तो परिवर्तनशील है, हर क्षण बदल रहा है, जबकि हमारा वास्तविक स्वरुप तो परमशांत और सदा एकसा रहता है। जन्म और मृत्यु तो शरीर की होती है, यह जन्म से लेकर आजतक कितना बदल गया है लेकिन इसको देखने वाले हम स्वयं वहीं रहते हैं। भगवान गीता के श्लोक (2/20) में कहते हैं कि यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है, तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है, क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता। ऐसा ज्ञान होने पर मनुष्य शान्ति को प्राप्त होता है।


जब साधक (मनुष्य) शास्त्रों और महापुरुष के वाक्यों पर पूरी श्रद्धा रखते हुए, अपनी इन्द्रिय संयम द्वारा पूरी तत्परता से अपने साधन (कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग) में लग जाता है तब भगवान गीता के श्लोक (10/11) में कहते हैं कि उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए उनके अन्तःकरण में स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अन्धकार को प्रकाशमय तत्वज्ञान रुप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ। अर्थात ऐसा मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होकर तत्काल ही भगवत्प्राप्ति रुप परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है।

                                                            

धन्यवाद

                                                      डॉ. बी. के. शर्मा

2 comments:

  1. बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख! सादर चरण-स्पर्श!

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