व्यावहारिक गीता ज्ञान
भगवान ने गीता के अध्याय 11 के श्लोक 55 में ईश्वर अर्पण बुद्धि से कर्म करते हुए, अनन्यभक्ति द्वारा किस प्रकार मनुष्य परमात्मा को प्राप्त होता है के विषय में बताया है।
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सग्ङवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।
हे अर्जुन! जो पुरुष मेरे ही लिए संपूर्ण कर्तव्यकर्मों को करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्तिरहित है और संपूर्ण भूतप्राणियों में वैरभाव से रहित है, वह अनन्यभक्ति युक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है।
इस श्लोक में भगवान को प्राप्त पुरुष के पांच लक्षण बताएं हैं।
(1) जो अपने समस्त शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म केवल ईश्वर अर्पण बुद्धि से ही करता हो। उदाहरण के लिए हम शरीर, मन और वाणी द्वारा जो क्रिया करते हैं वह कर्म कहलाता है। पंच महाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आका
(2) जो भगवान के परायण हो अर्थात भगवान को ही परम आश्रय या एकमात्र शरण लेने योग्य मानता हो। अर्थात जो संसार का आश्रय ना लेकर केवल एकमात्र भगवान का ही आश्रय लेता हो जिसका वह अंश है और अंत में उसी में मिल जाना है, वह तो उससे अनन्त जन्मों से बिछड़ने के कारण उसे भूल गया है और अपने को शरीर मानकर उससे बँधकर बार-बार अनेकों शरीरों में आता जाता रहता है। श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंध में भगवान श्री कृष्ण उद्धव जी से कहते हैं कि शरीर एक वृक्ष है, इसमें हृदय का घोंसला बनाकर जीव और ईश्वर नाम के दो पक्षी रहते हैं। वे दोनों चेतन होने के कारण समान है और कभी ना बिछड़ने के कारण सखा है। इनके निवास करने का कारण केवल लीला ही है। इतनी समानता होने पर भी जीव तो शरीर रूपी वृक्ष के फल सुख दुख आदि भोगता है परंतु ईश्वर उन्हें न भोगकर कर्मफल सुख-दुख आदि से असंग और उनका साक्षी मात्र रहता है। अभोक्ता होने पर भी ईश्वर की यह विलक्षणता है कि वह ज्ञान, ऐश्वर्य, आनंद और सामर्थ्य आदि में भोक्ता जीव से बढ़कर है। साथ ही एक विलक्षणता यह भी है कि अभोक्ता ईश्वर तो अपने वास्तविक स्वरूप और इसके अतिरिक्त जगत को भी जानता है परंतु भोक्ता जीव न अपने वास्तविक स्वरूप को जानता है और न अपने से अतिरिक्त को। इन दोनों में जीव तो अविद्या से युक्त होने के कारण नित्यबद्ध है और ईश्वर विद्यास्वरूप होने के कारण नित्यमुक्त हैं। ज्ञान संपन्न पुरुष भी मुक्त ही है जैसे स्वप्न टूट जाने पर जगा हुआ पुरुष स्वप्न के शरीर से कोई संबंध नहीं रखता वैसे ही ज्ञानी पुरुष सूक्ष्म और स्थूल शरीर में रहने पर भी उनसे किसी प्रकार का संबंध नहीं रखता। परंतु अज्ञानी पुरुष वास्तव में शरीर से कोई संबंध न रखने पर भी अज्ञान के कारण शरीर में ही स्थित रहता है जैसे स्वप्न देखने वाला पुरुष स्वप्न देखते समय स्वप्न के शरीर से बँध जाता है। व्यवहारादि इंद्रियां शब्द, स्पर्श आदि विषयों को ग्रहण करती है क्योंकि यह तो नियम ही है कि गुण ही गुणों को ग्रहण करते हैं, आत्मा नहीं। इसलिए जिसने अपने निर्विकार आत्मस्वरूप को समझ लिया है वह उन विषयों के ग्रहण त्याग में किसी प्रकार का अभिमान नहीं करता। यह शरीर प्रारब्ध के अधीन है। इससे शारीरिक और मानसिक जितने भी कर्म होते हैं सब गुणों की प्रेरणा से ही होते हैं। अज्ञानी पुरुष झूठमूठ अपने को उन ग्रहण त्याग आदि कर्मों का कर्ता मान बैठता है। और इसी अभिमान के कारण वह बँध जाता है। जिनके प्राण, इंद्रियां, मन और बुद्धि की समस्त चेष्टाएं बिना संकल्प के होती है वे देह में स्थित रहकर भी उसके गुणों से मुक्त है।
(3) जो भगवान का भक्त हो, अर्थात भगवान के अलावा किसी अन्य का चिंतन न करता हो। भगवान के गीता के श्लोक 12/13 में भक्त के लक्षण बताये हैं कि जो पुरुष सब भूतों में द्वेषभाव से रहित, स्वार्थरहित, सबका प्रेमी, और हेतुरहित दयालु है तथा ममता से रहित, सुख-दुखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है तथा जो योगी निरंतर संतुष्ट हो, मन, इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है- वह मुझमें अर्पण किये हुए मन बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।(4) जो आसक्ति से रहित हो अर्थात् निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा अपने कर्त्तव्यकर्म को करता हो। क्योंकि भगवान ने गीता के श्लोक 3/19 में कहा है कि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
(5) जो किसी भी प्राणी के साथ वैरभाव न रखता हो अर्थात् सभी में परमात्मा को ही दर्शन करता हो और सभी के साथ द्वेषभाव से रहित हो। हम देखते हैं कि यदि कोई हमारा अहित करता है या हमें दुख पहुँचाता है उसके साथ हम द्वेषभाव रखने लग जाता है, वह हमें बुरा लगता है।
अध्यात्मरामायण में आता है
सुखस्य दुखस्य न कोअपि दाता
परो ददातिती कुबुद्धिरेषा।
अहं करोमीति वृथाभिमानः
स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः।।
सुख या दुख को देने वाला कोई और नहीं है। कोई दूसरा सुख-दुख देता है यह समझना कुबुद्धि है। मैं करता हूँ- यह वृथा अभिमान है, क्योंकि लोग अपने-अपने कर्मों की डोरी से बँधें हुए हैं।
इसलिए हमें यह समझना चाहिए कि हमारे द्वारा पूर्व में किये हुए ही संचित कर्म हमारे सामने प्रारब्ध (सुख-दुख) के फल रुप में आ रहे हैं, दूसरा तो केवल उसमें निमित्त बन कर आ गया है। अतः उससे हम क्यों द्वेष या वैरभाव रखें।
उपर्युक्त लक्षणों से युक्त पुरुष भगवान को प्राप्त हो जाता है, ऐसा भगवान ने कहा है। हमें भी भगवान द्वारा बतलाये गए मार्ग पर चलने का प्रयास करते रहना चाहिए, अपने सभी कर्म भगवान को अर्पण बुद्धि से करने का प्रयास करें उनमें आसक्ति न रखें, भगवान के द्वारा दिये गये कर्म को उन्हीं के द्वारा दिये गये शरीर और इन्द्रियों द्वारा, उन्हीं की प्रसन्नता के लिए, पूर्ण निष्काम भाव से, कर्तापन के अभिमान से रहित होकर, कोई फल की इच्छा या कामना न रखते हुए, लोकहित की दृष्टि से करते रहें उससे हमारा अन्तःकरण शुद्ध होकर हमें आत्मज्ञान प्राप्त होगा, जिससे हम संसार के आवागमन से मुक्त हो जायेंगें।
डॉ. बी. के. शर्मा
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