व्यावहारिक गीता ज्ञान
गीता के अध्याय 2 के श्लोक 54 में आता है कि अर्जुन ने भगवान कृष्ण से प्रश्न किया कि हे केशव ! परमात्मा में स्थित, स्थिर बुद्धि वाले मनुष्यों के क्या लक्षण होते हैं? वह स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? इसका उत्तर भगवान ने आगे के 18 श्लोकों 55 से 72 तक विस्तार पूर्वक हम सभी मनुष्यों को स्थिर बुद्धि द्वारा परमात्मा की प्राप्ति के लिए दिया है। इनमें से कुछ मुख्य लक्षणों का संक्षेप में विवरण निम्न प्रकार है। भगवान श्लोक 55 में कहते हैं –
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः
स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।
हे अर्जुन ! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को भलीभांति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ (स्थिर बुद्धि) कहा जाता है।
(1) स्थिर बुद्धि प्राप्त करने के लिए भगवान ने सर्वप्रथम मनुष्य को मन में आने जाने वाली संपूर्ण कामनाओं के त्याग के विषय में कहा है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि हमारा मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार यह मिलकर अंतःकरण कहलाता है। करण का अर्थ है साधन अर्थात कर्म करने की सामग्री। हमारा स्थूलशरीर पंचमहाभूतों (पृथ्वी, आकाश, जल, अग्नि, वायु) से बना है और पंचमहाभूतों का संचालन करने वाला मन अध्यात्म (इंद्रिय) है और संकल्प उसका अधिभूत (विषय) है। इसी प्रकार विचार करने वाली बुद्धि अध्यात्म है और मन्तव्य उसका अधिभूत है। इस प्रकार हमारे मन में लगातार संकल्प विकल्प आते रहते हैं यह शांत नहीं रहता, हमेशा चंचल रहता है अभ्यास द्वारा ही मन पर नियंत्रण कर सकते हैं। जब मन में कोई कामना (इच्छा) आती है और यदि बुद्धि का भी उसको पूरा करने का विचार (निश्चय) हो जाता है तब मनुष्य कर्म द्वारा उस इच्छा को पूरी करने की चेष्ठा करता है, जब वह पूरी हो जाती है तभी कोई दूसरी इच्छा मन में हो जाती है, क्योंकि उसका तो काम ही संकल्प विकल्प करना है, अतः कोई भी व्यक्ति अपने मन की सभी कामनाओं को पूरा नहीं कर सकता। जब कामना पूरी नहीं होती तब मन अशांत हो जाता है और व्यक्ति यदि अपने को मन और बुद्धि मान ले तब वह भी अशांत हो जाता है उसकी बुद्धि स्थिर नहीं रह पाती। अतः इसका एक ही उपाय है कि हम अपने मन को ही कामना से रहित करने का प्रयास करते हुए अपना नियत कर्तव्य कर्म बिना आसक्ति , फल की इच्छा, आदि से रहित होकर पूर्ण निष्काम भाव से ईश्वर अर्पण बुद्धि द्वारा पूरी मेहनत से करते रहे। प्रारब्ध के अनुसार हमें फल प्राप्त होता रहेगा उसके विषय में हमें चिंता करने की आवश्यकता नहीं करनी चाहिए। जितना धन हमारे प्रारब्ध में होगा न तो उससे कम मिलेगा और न ज्यादा, तब हम कामना और इच्छा आदि रखकर क्यों कर्म करें। अपना कर्म पूर्ण निर्लिप्त और निष्काम भाव से करें और अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए, मन को शांत रखते हुए अपनी बुद्धि को स्थिर रखने का प्रयास करते रहे। भगवान ने गीता के श्लोक 4/19 में कहा है कि जिसके संपूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं उसी को बुद्धिमान पुरुष कहते हैं।
(2) स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य कैसे बोलता है इसके विषय में भगवान श्लोक 2/56 में कहते हैं कि दुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निःस्पृह (अपेक्षा रहित) रहा है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है। और श्लोक 57 में कहते हैं कि जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है। इसमें हमारे अंदर (अंतःकरण) के भावों के विषय में बतलाया है कि स्थिर बुद्धि प्राप्त करने के लिए हमें यदि अनुकूल वस्तु (परिस्थिति) मिल जाए तब हमें बहुत प्रसन्न नहीं होना चाहिए और यदि प्रतिकूल परिस्थिति आ जाए तब अधिक समय तक दुखी नहीं होना चाहिए। भगवान ने गीता में समान बुद्धि वाला होकर कर्तव्य कर्म को करने के लिए कहा है 'समत्व योग उच्यते'। समत्व ही योग कहलाता है। जब हम लाभ-हानि, सुख-दुख, जय-पराजय इत्यादि से ज्यादा विचलित नहीं होंगे या ज्यादा समय तक उनसे प्रभावित नहीं होंगे तब हमारा मन शांत रहेगा और बुद्धि भी स्थिर रहेगी। मन के चंचल या अशांत होने पर हमारी बुद्धि स्थिर न होने के कारण उचित निर्णय नहीं ले पाती। अतः हमें जितना जल्दी हो सके उस विषम परिस्थिति को ईश्वर की इच्छा या अपना कोई पूर्व संचित कर्म का फल समझकर अपने अंतःकरण को शांत करने का प्रयास करना चाहिए। भगवान ने गीता के श्लोक 2/50 में कहा है कि समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्वरूप योग में लग जा, यह समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशलता है 'योगः कर्मसु कौशलम' अर्थात कर्मबंधन से छूटने का उपाय है।
(3) भगवान ने गीता में कहा है कि जब यह पुरुष इंद्रियों के
विषयों से इंद्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है अर्थात इंद्रियों को अपने मन
द्वारा, वश में कर लेता है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। गीता में कछुआ का उदाहरण
दिया गया है। जैसे कछुआ सब ओर से अपने अंगों (चार पैर, एक पूँछ, एक मस्तक) को समेट
लेता है अर्थात् उसकी केवल पीठ ही दिखाई पड़ती है और वह सुरक्षित रहता है उसी
प्रकार हमें अपनी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ और छटा मन को विषयों से हटा देना चाहिए,
अन्यथा जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इंद्रियों में से मन जिस
इंद्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इंद्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है।
श्लोक 2/59 में भगवान कहते हैं कि इंद्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते हैं (जैसे कोई रोग हो जाने पर हमारे खाने-पीने पर कुछ पाबंदी लग जाती है) परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती अर्थात मन द्वारा हम उन खाने के पदaर्थो के बारे में सोचते रहते हैं हमारी उनमें आसक्ति नहीं समाप्त होती)। इसलिए हमें मन द्वारा भी विषयों का चिंतन नहीं करना चाहिए। इस स्थिर बुद्धि वाले पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत हो जाती है।
श्रोत्र (कान), त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण (नासिका) यह पांच ज्ञानेंद्रियां हैं। श्रोत्र का विषय शब्दग्रहण, त्वचा का विषय स्पर्श ग्रहण, नेत्र का विषय रूप ग्रहण व जिहवा (जीभ) का विषय रसग्रहण तथा नासिका का विषय गंध ग्रहण है। पाँचों ज्ञानेंद्रियों के यही कार्य हैं '' शब्द, स्पर्श , रूप, रस और गंध''। यह इन्हीं में लगी रहती हैं और यदि मन भी इन्हीं के साथ हो जाता है तब उस चंचल अवस्था में बुद्धि को भी स्थिर नहीं रहने देता। जैसे बहुत सी सौतें अपने एक पति को अपनी-अपनी ओर खींचती हैं वैसे ही जीव को जीभ एक और स्वादिष्ट पदार्थों की ओर खींचती हैं, तो त्वचा स्पर्श की ओर, कान मधुर शब्द की ओर, नेत्र रूप की ओर, नासिका सुंदर गंध की ओर खींचती है। सत्व, रज और तम ये तीनों गुण इंद्रियों को उनके कर्मों में प्रेरित करते हैं अर्थात् मनुष्य को जैसा स्वभाव होता है या उसमें जैसे गुण होते हैं उसकी इंद्रियां वैसे ही कर्म करती है। जीव अज्ञानवश सत्व, रज और तम आदि को और इंद्रियों को अपना स्वरूप मान बैठता है और उनके द्वारा किए हुए कर्मों का फल सुख-दुख भोगने लगता है। इंद्रियां प्रकृति का अंश होने के कारण जड़ है जबकि हमारा स्वरूप (आत्मा) चेतन और परमात्मा का अंश है। अतः हमें अपनी बुद्धि द्वारा मन को वश में करके तथा मन द्वारा अपनी इंद्रियों को वश में रखने का सतत प्रयास करते रहना चाहिए। हम जिस शरीर रूपी रथ पर सवार होकर इस संसार की यात्रा कर रहे हैं उसमें हमारी इंद्रियां ही घोड़े हैं, मन लगाम है और बुद्धि सारथी है। यदि सारथी (बुद्धि) का पूर्ण नियंत्रण मन रुपी लगाम पर है तब यह घोड़े (इंद्रियाँ) उसके वश में रहेंगी और शरीर रुपी (रथ) अपनी मंज़िल अर्थात परमतत्व (आत्मतत्व) तक पहुँच जायेगा। इसलिए बुद्धि को स्थिर रखने के लिए अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखना परम आवश्यक है।
(4) भगवान श्लोक 2/62, 63 में कहते हैं कि जब मनुष्य विषयों का चिंतन करता है, तब उसकी उन विषयों में आसक्ति हो जाती है,आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में
विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से मूढ़भाव और मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम और
स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि का नाश हो जाता है। अर्थात स्थिर बुद्धि न रह पाने का एक कारण मनुष्य
द्वारा विषयों का मन द्वारा चिंतन करना भी है। मन का तो काम ही संकल्प विकल्प करते
रहना है अतः जब हम अपना नियत कर्तव्य कर्म न कर रहें हों तब खाली मन को भगवान नाम
में लगा दें ताकि यह संसार के विषयों के चिंतन से बचा रहे और हमारी बुद्धि भी स्थिर रहे। हमें बुद्धि
द्वारा अपने मन को वश में रखने का प्रयास करते रहना चाहिए। गीता के श्लोक 3/42 में
भगवान ने कहा है कि स्थूल शरीर से श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म हमारी इन्द्रियाँ हैं
और इन इन्द्रियों से बलवान और सूक्ष्म हमारा मन है, मन से भी बलवान और सूक्ष्म
हमारी बुद्धि है और जो बुद्धि से भी बलवान और सूक्ष्म है वह आत्मा है। इस प्रकार
श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके इस कामरुप दुर्जन
शत्रु को मार डालना चाहिए। स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य कैसे बैठता है अर्थात् संसार
से उपराम होता है, इसके विषय में संक्षेप में उपरोक्त पैरा 3 और 4 में बतलाया गया
है।
(5) भगवान श्लोक 2/64, 65 में कहते हैं कि अपने अधीन
किए हुए अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) वाला साधक अपने वश में की हुई
राग-द्वेष से रहित इंद्रियों द्वारा विषयों में विचरता हुआ अंतःकरण की प्रसन्नता
को प्राप्त होता है और इसके संपूर्ण दुखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त
वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभांति
स्थिर हो जाती है।
स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर, ममतारहित, अहंकार रहित और स्पृहा रहित अर्थात् अपेक्षा रहित आचरण के साथ अपना जीवन यापन करते हुए शांति को प्राप्त होता है। स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य कैसे व्यवहार करता है या चलता है इसके विषय में संक्षेप में इस पैरा में बताया गया है।
भगवान गीता के अध्याय 2 के अंतिम श्लोक 72 में कहते हैं कि यह ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंत काल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्राह्मानंद को प्राप्त हो जाता है। अतः हमें भगवान द्वारा गीता में बतलाए गए उपरोक्त उपायों द्वारा बुद्धि को स्थिर रखने का प्रयास करते रहना चाहिए यदि इसमें आंशिक सफलता भी हमने प्राप्त कर ली तब भी हम उस परमतत्व या आत्मतत्व को प्राप्त कर सकते हैं जिसके लिए हमें यह मनुष्य जन्म मिला है।
धन्यवाद
डॉ.
बी. के. शर्मा
बहुत सुंदर।।जय श्री कृष्ण
ReplyDeleteThanks
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