आत्मबोध(3)
डॉ बी0 के0 शर्मा
हम कौन
हैं, इस संसार
में जो कि
अनवरत रूप से
चल रहा है,
हमारे कुछ समय
के लिए मनुष्य
शरीर में आने
का क्या प्रयोजन
है, क्या हम
केवल एक नाम
रूप धारी शरीर
हैं, या इसके
अलावा कुछ और
हैं, ऐसे अनेक
प्रश्नों पर हमें
समय रहते हुए,
इसी जन्म में
विचार करना चाहिए,
ताकि बार-बार
इस जन्म मृत्यु
के बन्धन से
मुक्त हो सकें।
भगवान गीता में
शरीर के विषय
में कहतें हैं।
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते। एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्धिदः। 1।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धिसर्वक्षेत्रेषु भारत। क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम । 2।
यह शरीर
क्षेत्र नाम से
जाना जाता है,
और जो इसको
जानता है। उसको
क्षेत्रज्ञ इस नाम
से उनके तत्व
को जानने वाले
ज्ञानीजन कहते हैं।
हमारा स्थूल शरीर
पृथ्वी, जल, अग्नि,
वायु ओर आकाश
इन पाँच तत्वों
से बना है,
इसका दूसरा नाम
अन्नमय कोश भी
है। क्योंकि
यह अन्न के
विकार से ही
पैदा होता है
और अन्न से
ही जीवित रहता
है। पाँच ज्ञानेन्द्रियां, पाँच कर्मेन्द्रियां,
पाँच प्राण, मन
और बुद्धि- इन
सत्रह तत्वों से
बने हुए शरीर
को सूक्ष्म शरीर
कहते हैं। इन
सत्रह तत्वों में
से प्राणों की
प्रधानता को लेकर
यह सूक्ष्म शरीर
प्राणमयकोश, मन की
प्रधानता को लेकर
मनोमयकोश और बुद्धि की प्रधानता
को लेकर विज्ञानमय कोश कहलाता
है। अज्ञान को
कारण शरीर कहते
हैं। मनुष्य को
बुद्धि के
आगे का ज्ञान
नहीं होता है
इसलिए इसे अज्ञान
कहते हैं। अज्ञानमेवास्य हि
मूल
कारणम्
(अध्यात्म0 उत्तर 5/9) यह अज्ञान
सम्पूर्ण शरीरों का कारण
होने से कारण
शरीर कहलाता है।
इसको स्वभाव, आदत
और प्रकृति भी
कह देते हैं।
और इसी को
आनन्दमय कोश कहते
हैं।
हम सभी
यह जानते हैं
कि हमारे यह
तीनों शरीर प्रतिक्षण
समाप्ति की तरफ
जा रहे हैं।
यह प्रकृति का
अंश होने के
कारण अंत में
प्रकृति में ही
विलीन हो जाता
है, जिन पंच
तत्वों से बना
है, उसी में
मिल जाता है।
लेकिन हम दृष्टा
भाव में इस
शरीर में स्थित
रहते हुए इस
बदलते हुए शरीर
को देखते रहते
हैं, जैसा यह
शरीर बचपन में
और जवानी में
था, आज नहीं
हैं, लेकिन हम
वही हैं, ऐसा
महसूस कर सकते
हैं। अतः हम
शरीर नहीं हैं।
इस शरीर को
क्षेत्र कहने का
दूसरा भाव खेत
से है, और
खेत को जाने
वाला क्षेत्रज्ञ (किसान)
है, जैसे खेत
में जो हम
बीज डालते हैं,
वही फसल पैदा
होती है।
हम इस शरीर
द्धारा जिस
तरह के कार्य
करते हैं, उसी
तरह के संस्कार
हमारे अंतःकरण में
पड़ते हैं, वे
संस्कार जब फल
के रूप में
प्रकट होते हैं,
तब उन्हीं के
अनुसार अगला जन्म
का निर्धारण होता
है। अतः प्रत्येक
कर्म के करने
में सावधानी करनी
चाहिए। केवल हमारा
मन जो कि
राग और द्धेष
से प्रेरित होकर
कर्म करने के
लिए शरीर को
आदेश देता है,
उस पर बुद्धि
के द्धारा नियंत्रण रखना चाहिए। कभी-कभी हम
देखते हैं कि
बुद्धि भी दो
विकल्पो में से
किसी एक का
चुनती है, मन
द्धारा लिया जाने
वाला निर्णय और
आत्मा द्धारा दिया
गया सुझाव। इस
प्रकार कभी-कभी
एक संघर्ष सा
महसूस होता है। लेकिन
मन हमेशा राग
द्धेष से संबंध
रखकर निर्णय लेता
है, जो कि
समान नहीं होता,
अर्थात् हमें कर्म
के साथ बाँध
देता है। अतः
यदि हम अपनी
आत्मा के दिए
गये निर्णय का
पालन करते हुए
कर्म करते हैं,
जो कि राग
द्धेष् से मुक्त
है, तब हम
कर्म बन्धन से
मुक्त रहते हैं। अतः
प्रत्येक निर्णय लेते हुए
हमें सतर्क रहने
की आवश्यकता है।
डा0 बी0 के0
शर्मा
11/440, वसुन्धरा
गाजियाबाद(उ0प्र0)
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