व्यवहारिक गीता ज्ञान -
भगवान गीता के मोक्ष सन्यास योग नामक 18वें अध्याय के श्लोक 31 में राजसी बुद्धि वाले मनुष्य के लक्ष्मण बताते हैं:-
अयथावत्प्रजानाति बुद्धि: सा पार्थ राजसी ।।
हे पार्थ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है।
भगवान ने गीता के श्लोक 18/30 में सात्विक बुद्धि वाले मनुष्यों के बारे में कहां है कि जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को, बंधन और मोक्ष को, प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग को यथार्थ जानता है वह सात्विक है। जबकि राजसी बुद्धि वाला मनुष्य कर्तव्य और अकर्तव्य का, धर्म और अधर्म का ठीक से भेद नहीं कर पाता अर्थात उसको यथार्थ रूप से नहीं जान पाता, या उनके विषय में उचित निर्णय नहीं ले पाता।
रजोगुण के बढ़ने पर मनुष्य में लोभ की प्रवृत्ति बढ़ती है, उसके सभी कार्य स्वार्थ बुद्धि और भोगों की इच्छा से होते हैं। लोभ और भोगो की इच्छा के कारण ऐसा मनुष्य, ईश्वर के बनाए हुए नियम या कानून जो कि हमारे शास्त्रों में बताए गए हैं को यथार्थ रूप से नहीं जान पाता या जानते हुए भी उनका अपने स्वार्थ के कारण पालन नहीं कर पाता। ईश्वर के बनाए हुए कानून के अनुसार संसार में चलने वाला मनुष्य संसार में सुखी रहता है और अंत में मुक्त हो जाता है । किंतु यदि उसके विपरीत चलता है तब दुखी होता है। जेसै सामने से आती हुई रेल का यदि सामना करोगे तब नष्ट हो जाओगे और यदि उसके अनुकूल चलोगे तब उस में बैठकर या उसका उपयोग या पालन करके अपने स्थान पर पहुंच जाओगे। वैसे ही धर्म के विरुद्ध आचरण करने वाला मनुष्य अंत में सुख को प्राप्त नहीं हो पाता, कभी-कभी उसे क्षणिक सुख की तो अनुभूति हो सकती है।
रजोगुणी केवल अपने हित के विषय में ही सोचता है जबकि सभी का हित करना ही मनुष्य का कर्तव्य है, उसके लिए यही ईश्वरीय कानून या धर्म है। जो सबके हित में रत रहता है उसका अपना हित तो निश्चित ही है। तुलसीदास जी ने भी कहा है:-
पर पीड़ा सम नहीं अधमाई ।। 
भगवान ने गीता के श्लोक 12 /4 में कहा है कि संपूर्ण भूतों के हित में रत रहने वाले और सब में समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं।
इसी प्रकार जो कर्तव्य कर्म हमारे वर्ण , आश्रम, परिस्थिति या जीविका के शास्त्रों के अनुसार हैं यदि उनको हम पूरी ईमानदारी , तत्परता आदि से नहीं करते और अपने लोभ के कारण और भोगों की इच्छा के कारण, रिश्वत आदि लेकर, मालिक या सरकार के साथ धोखा करते हैं और हमारी बुद्धि इस कर्तव्य और अकर्तव्य का ठीक से विश्लेषण नहीं करती। तब ऐसी बुद्धि को राजसी बुद्धि कहते हैं। रजोगुण के संबंध से ऐसी बुद्धि धर्म और अधर्म का, कर्तव्य और अकर्तव्य का ठीक-ठीक निर्णय करने में समर्थ नहीं होती। राजस भाव का फल अंततः दुख ही होता है। अतः हमें शास्त्रों का अध्ययन एवं भगवान द्वारा गीता में बताये अनुसार राजस भावों का त्याग करके अपने अंदर सात्विक भावो को उत्पन्न करने और बढ़ाने का प्रयत्न करते रहना चाहिए, इसी में हमारी उन्नति निहित है और हम मुक्त हो सकते हैं।
बी .के. शर्मा।
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