व्यवहारिक गीता ज्ञान
भगवान ने गीता में मनुष्यों को उनकी बुद्धि के आधार पर तीन श्रेणियों में रखा है। सात्विक बुद्धि वाले मनुष्य जो कि कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को , बंधन और मोक्ष आदि को यथार्थ रूप से जानता है। वहीं राजसी बुद्धि वाले मनुष्य धर्म और अधर्म को, कर्तव्य और अकर्तव्य को यथार्थ रूप से नहीं जान पाते। इसके अलावा तामसी बुद्धि वाले मनुष्य अधर्म को भी यह धर्म है ऐसा मान लेते है तथा इसी प्रकार अन्य पदार्थों को भी विपरीत मान लेते हैं।
धर्म और अधर्म क्या है, इस विषय में भागवत महापुराण के द्वादश स्कंध के तीसरे अध्याय में राजा परीक्षित के पूछने पर श्री शुकदेव जी ने बताया की धर्म के चार चरण होते हैं- सत्य, दया, तप और दान। धर्म स्वयं भगवान का स्वरूप है। धर्म के समान अधर्म के भी चार चरण हैं- असत्य, हिंसा, असंतोष और कलह। सतयुग में धर्म के चारों चरण मौजूद रहते हैं। त्रेता युग में धर्म के सत्य आदि चरणों का चतुर्थांश क्षीण हो जाता है। द्वापर युग में हिंसा,असंतोष, झूठ और द्वेष-अधर्म के इन चरणों की वृद्धि हो जाती है एवं इनके कारण धर्म के चारों चरण-तपस्या, सत्य, दया और दान आधे आधे क्षीण हो जाते हैं। परंतु कलयुग जो आजकल चल रहा है- में तो अधर्म के चारों चरण अत्यंत बढ़ जाते हैं। उनके कारण धर्म के चारों चरण क्षीण होने लगते हैं और उनका चतुर्थांश ही बच रहता है। कलयुग के अंत में तो उस चतुर्थांश का भी लोप हो जाता है।
गीता के अनुसार सात्विक बुद्धि वाले मनुष्य धर्म और अधर्म को यथार्थ रूप से जानकर धर्म का पालन करते हुए अपना जीवन निर्वाह करके अंत में मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं। जबकि राजसी बुद्धि वाले मनुष्य उपरोक्त धर्म और अधर्म को स्पष्ट रूप से अपने लोभ और भोगों की इच्छा के कारण नहीं जान पाते, अतः मध्यम श्रेणी में आते हैं। किंतु तामसी बुद्धि वाले मनुष्य अपने मोह और अज्ञान के कारण अधर्म को ही अपना धर्म मानते हैं । और अधर्म का ही पालन करते हुए अधोगति को प्राप्त होते हैं। भगवान ने गीता के श्लोक 14/18 में कहा है की सत्वगुण में स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं, रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात मनुष्य लोक में ही रहते हैं और तमोगुण के कार्य रूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि में स्थित तामस पुरुष अधोगति को अर्थात कीट, पशु आदि नीच योनियों को तथा नरकों को प्राप्त होते हैं।
सभी प्राणियों में 3 गुण होते हैं-सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण। काल की प्रेरणा से समय-समय पर शरीर, प्राण और मन में यह गुण कम और ज्यादा भी होते रहते हैं। भगवान ने गीता के श्लोक 14/11 में कहा है-कि जिस समय इस देह में तथा अंतःकरण और इंद्रियों में चेतनता और विवेक शक्ति उत्पन्न होती है , उस समय ऐसा जानना चाहिए कि सत्वगुण बढा है। इस विवेक शक्ति और ज्ञान के कारण सात्विक बुद्धि वाला मनुष्य कर्तव्य और अकर्तव्य , बंधन और मोक्ष तथा धर्म आदि को यथार्थ रूप से जान लेता है। तथा उसमें राग- द्वेष, दुख-शोक, चिंता , भय और आलस्य आदि का अभाव सा हो जाता है।
भगवान ने श्लोक 14/12 में कहा है कि रजोगुण के बढ़ने पर लोभ प्रवृत्ति, स्वार्थ बुद्धि से कर्मों का सकामभाव से आरंभ , अशांति और विषय भोगों की लालसा - यह सब उत्पन्न होते हैं। रजोगुण के बढ़ने पर मनुष्य के अंतःकरण में सत्व गुण के कार्य जैसे ज्ञान , विवेक शक्ति आदि और तमोगुण के कार्य जैसे कर्मों में इच्छा का न होना आलस्य , आदि दब जाते हैं। उसके अंदर धन का लोभ , स्वार्थ बुद्धि ,भोगों की इच्छा आदि उत्पन्न हो जाती है। मन चंचल हो जाता है नए-नए कर्म कर के अधिक से अधिक धन एकत्र करना चाहता है, उचित समय पर उस धन को लोकहित या दान में भी नहीं लगाना चाहता।
गीता के श्लोक 14/13 मैं भगवान कहते हैं कि तमोगुण के बढ़ने पर अंतःकरण और इंद्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद अर्थात व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अंतःकरण की मोहनी वृतियां यह सब उत्पन्न होते हैं । तमोगुण के बढ़ने पर विवेक शक्ति का अभाव हो जाता है अतः किसी विषय को समझने की शक्ति का ना रहना आदि। विवेक शक्ति न होने के कारण ऐसा मनुष्य अधर्म को धर्म मानता है और करने योग्य कर्म को न करके उनके विपरीत कर्म करता है।
उपरोक्त लक्षणों को ध्यान में रखते हुए हमें अपना लगातार आत्मनिरीक्षण करते रहना चाहिए कि हमारे अंदर कौन सा गुण बढ़ और घट रहा है। हमें सचेत रहते हुए रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्व गुण बढ़ाते रहना चाहिए। इसी में हमारा कल्याण निहित है और हम अपना इसी मनुष्य जीवन में उद्धार कर सकते हैं।
धन्यवाद
बी. के. शर्मा।
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