व्यवहारिक गीता ज्ञान
गीता में भगवान मोक्ष सन्यास योग नामक 18 वें अध्याय के छठे श्लोक में कर्म में आसक्ति और फल के त्याग के विषय में कहते हैं कि:-
एतान्यपि तु कर्माणि संॾ त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ।।
इसलिए हे पार्थ ! इन यज्ञ दान और तप रूप कर्मों को तथा और भी संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए , यह मेरा निश्चय किया उत्तम मत है।
इससे पूर्व के श्लोकों में भी भगवान ने गीता के 6/1 श्लोक में कहां है कि जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है वह सन्यासी तथा योगी है । और गीता के 5/11 श्लोक में कहा कि कर्म योगी ममता और आसक्ति को त्याग कर अंत:करण की शुद्धि के लिए कर्म करता है।
अतः भगवान ने बार बार ममता, आसक्ति और फल की इच्छा न रखते हुए अपने अपने कर्तव्य कर्म करने के लिए कहा है । इस श्लोक में तो भगवान ने यह मेरा निश्चय किया उत्तम मत है कि संपूर्ण कर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य ही करना चाहिए तभी हम कर्म बंधन से मुक्त होकर जन्म मृत्यु के चक्र से छूट सकते हैं ।हम जानते हैं कि प्रत्येक कर्म का आरंभ और अंत होता है और फल का आरंभ और भोग कर अंत होता है । अतः यह परिवर्तनशील और जड या अनित्य है । जबकि हमारा अपना वास्तविक स्वरूप चेतन तथा नित्य है । अतः चेतन तत्व यदि जड रूपी कर्म को पकड़कर कहे कि मुझे कर्मों ने पकड़ रखा है तब यह कहां तक उचित है हमने इनमें ममता, आसक्ति और फल की इच्छा के कारण पकड़ रखा है, हम यदि कर्मों में मन द्वारा आसक्ति से रहित होकर करें तब हम कर्म करते हुए भी इनसे मुक्त हो सकते हैं।
राजा निमि को छठे योगीश्वर ने कर्म योग का उपदेश देते हुए कहा था कि वेद कर्मों की निर्वत्ती के लिए कर्म का विधान करता है जैसे बालक को मिठाई आदि का लालच देकर दवाई खिलाते हैं वैसे ही यह अनभिज्ञो को स्वर्ग आदि का प्रलोभन देकर श्रेष्ठ कर्मों में प्रवत्त करता है। जब हम फल की अभिलाषा छोड़कर, ममता और आसक्ति से रहित होकर कर्म करते हैं तब यह कर्म अकर्म हो जाते हैं। जब हम सभी कर्म भगवान को अर्पण करके करते हैं जैसा कि गीता के 5/10 वें श्लोक में आता है तब हम जल से कमल के पत्ते की भांति पाप से लिप्त नहीं होते अतः इस तरह से कर्म करते हुए हम कर्म बंधन से मुक्त हो जाते हैं और हमारी कर्मनिवृत्ति होने के कारण हमें अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
धन्यवाद
बी. के. शर्मा
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