व्यावहारिक गीता ज्ञान -
गीता में भगवान कर्म सन्यास योग नामक पांचवें अध्याय १२ वें के बारे में श्लोक में कहते हैं कि:-
युक्त: कर्मफलं त्यकत्वा शांतिमाप्रोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्त: कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ।।
कर्म योगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवत प्राप्ति रूप शांति को प्राप्त होता है और सकामपुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बधंता है।
गीता के (5/11) श्लोक में भगवान कहते हैं कि कर्म योगी ममता और आसक्ति को त्याग कर अंतःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं । और अगले इस श्लोक में कहते हैं कि कर्म योगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवत प्राप्ति रूप शांति को प्राप्त होता है । यदि हम इस पर विचार करें तब देखते हैं कि यदि कोई व्यक्ति कोई व्यापार या काम करने से पूर्व ही इच्छा रखता है कि मुझे इसे करने से बहुत सा धन प्राप्त होगा । तब उसे यदि लाभ होता है तब वह प्रसन्न होता है और यदि हानी होती है तब वह दुखी होता है । इसमें अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति आती ही रहती है । भगवान इस स्थिति में समभाव रखने को कहते हैं , समत्व योग उच्यते । अर्थात हानि लाभ, सुख-दुख, जय पराजय आदि स्थिति में समान स्थिति रखना ही योग है।
यदि हम कोई अपना निर्धारित (नियत) कर्म बिना फल की इच्छा रखकर ममता और आसक्ति को त्याग कर करें तब जो भी प्रारब्ध के अनुसार फल मिलेगा वह तो अवश्य ही मिलेगा । इच्छा रखने से ज्यादा फल और इच्छा न रखने से कम फल नहीं मिलेगा । निष्काम भाव से अर्थात फल की इच्छा न रखते हुए दूसरों के हित को ध्यान में रखते हुए कर्म करने से हमारा उन कर्मों के साथ संबंध विच्छेद हो जाता है और हम भगवत प्राप्त रूप शांति को प्राप्त होते हैं । दूसरी तरफ जब मनुष्य फल की इच्छा या कामना रखकर कार्य करता है तब वह फल में आसक्त होकर जन्म मरण रूप चक्र में फंस जाता है। इसी को भगवान ने कहा है कि सकाम पुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बंध जाता है।
स्वामी रामसुखदास जी ने चार प्रकार के कर्म फल का वर्णन साधक संजीवनी में किया है:-
१. दृष्ट कर्म फल- वर्तमान में किए जाने वाले नए कर्मों का फल जो तत्काल प्रत्यक्ष मिलता हुआ दिखता है जैसे भोजन करने से तृप्ति होना आदि।
२. अद़ष्ट कर्म फल-वर्तमान में किए जाने वाले नए कर्मों का फल, जो अभी तो संचित रूप से संग्रहित होता है पर भविष्य में इस लोक और परलोक में अनुकूलता या प्रतिकूलता के रूप में मिलेगा।
३. प्राप्त कर्मफल-प्रारब्ध के अनुसार वर्तमान में प्राप्त शरीर, जाति, वर्ण, धन, संपत्ति अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आदि।
४. अप्राप्त कर्मफल- प्रारब्ध कर्म के फल रूप में जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भविष्य में मिलने वाली हैं।
इन चार प्रकार के कर्म फलों में पहले दो तो क्रिपमाण कर्म के अधीन हैं तथा बाद के दो प्रारब्ध कर्म के अधीन है । कर्म फल का त्याग करने का अर्थ है- दृष्ट कर्मफल का आग्रह नहीं रखना तथा मिलने पर प्रसन्न या अप्रसन्न ना होना , अदृष्ट कर्म फल की आशा न रखना , प्राप्त कर्म फल में ममता ना रखना तथा मिलने पर सुखी दुखी ना होना और अपर्याप्त कर्म फल की कामना न करना
धन्यवाद
बी.के. शर्मा
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