Friday, May 1, 2020

भगवान को प्रिय मनुष्य के लक्षण - 2 April


व्यवहारिक गीता उपदेश 

गीता महत्त्व में आता है की जल से प्रतिदिन किया हुआ स्नान मनुष्यों के केवल शारीरिक मल का नाश करता है, परंतु गीता ज्ञान रूप जल  से एक बार भी किया हुआ स्नान संसार मल को नष्ट करने वाला है ।अतः आजकल जब हम सब अपने अपने घरों के अंदर  ही रह कर अपना जीवन यापन कर रहे हैं तब हम सब भगवान द्वारा दिए गए गीता ज्ञान का पठन-पाठन एवं चिंतन करते हुए इस ज्ञान को अपने दैनिक जीवन यापन का एक अंग बना सकें। इस लॉक डाउन  समय के पूरा  होने के पश्चात हमारे व्यवहार में कुछ अच्छा परिवर्तन हो सके ।अतः हमें इस समय का पूर्ण सदुपयोग करना है।

        भगवान गीता के भक्ति योग नामक अध्याय 12 के 13 एवं 14 वें श्लोक में कहते हैं:-

अव्देष्टा सर्व भूतानां मैत्र: करुण   एव च ।
निर्ममो  निरंहकार समदु:खसुख: क्षमी ।।
संतुष्ट: सतंत योगी यतात्मा दृढ़निश्चय: ।
मय्यर्पित  मनोबुध्दिर्यो मद्भक्त:
स मे प्रिये:।। 🙏🏿🌷

         जो सब मनुष्यों में द्वेष भाव से रहित है, अर्थात अपने लिए दुख देने वाले भी किसी प्राणी से द्वेष नहीं करता समस्त मनुष्यों को अपने समान ही समझता है, सभी में अपने प्रभु को ही व्याप्त देखता है। प्राणी मात्र स्वरूप से भगवान का ही अंश है ,अतः किसी भी प्राणी के प्रति थोड़ा सा द्वेष भाव रखना भगवान के प्रति ही द्वेष है।

         रामायण में आया है  "निजी प्रभु मय  देखहिं जगत केहि सन करहिं विरोध"।।

     जो सबके साथ मित्रता का भाव रखता है ।अपना अनिष्ट करने वालों के प्रति भी मित्रता का व्यवहार करता है और यह मानता है कि मेरा अनिष्ट करने वाला मेरे पूर्व कृत पाप कर्मों का नाश कर रहा है, अतः वह विशेष रूप से आदर का पात्र है अनिष्ट करने वाले ने अनिष्ट रूप में भगवान का विधान ही प्रस्तुत किया है अतः उसने जो किया है मेरे लिए ठीक ही किया है भगवान का विधान सर्वदा मंगल में ही होता है।

          जो दीन दुखियों पर करुणा एवं दया का भाव रखता है जैसा कि आज के समय में जो हमारे आसपास गरीब परिवार एवं कोई दुखी व्यक्ति है तब हमें उस पर करुणा रूप से उसकी पूरी सहायता या धन द्वारा करके नर सेवा नारायण सेवा का पालन करना चाहिए । पातंजल योग में चित्तशुद्धि के चार हेतु बताए हैं सूखियों के प्रति मैत्री, दुखियों के प्रति करुणा ,पुण्य आत्माओं के प्रति प्रसन्नता और पाप आत्मा के प्रति उपेक्षा के भाव से चित्त में निर्मलता आती है। परंतु भगवान ने इन चारों हेतुओं को दो में "मैत्र एवं करुणा" के रूप में कहा है।
        
           जो ममता से रहित और अहंकार से रहित है। प्राणियों और पदार्थों में ममता (मेरे मन का भाव) ही मनुष्य को संसार में बांधने वाली होती है। कभी-कभी हम प्राणियों और पदार्थों से अपनापन हटाने की चेष्टा तो करते हैं लेकिन अपने शरीर, मन ,बुद्धि और इंद्रियों से ममता हटाने की ओर विशेष ध्यान नहीं देते इसलिए सर्वथा निर्मम नहीं हो पाते ।

         जो सुख-दुख की प्राप्ति में समान रहता है अर्थात अनुकूलता - प्रतिकूलता उसके अंदर हर्ष - शोक आदि विकार पैदा नहीं कर सकते।जैसा कि आजकल की प्रतिकूल स्थिति में भी हमें बिना किसी शोक के साथ इस समय को व्यतीत करना है यह भी भगवान का कोई विधान है और इसका अंत भी हमारे मंगल के साथ ही होगा। इस स्थिति से भी हम भविष्य के लिए कुछ सीख ले सकते हैं ।
         
       जो क्षमावान है अर्थात अपना किसी तरह का भी अपराध करने वाले को किसी भी प्रकार का दंड की इच्छा ना रख कर उसको क्षमा कर देता है।

        जो सदा ही संतुष्ट है, लाभ और हानि में भी संतुष्ट रहता है। मन, इंद्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए हैं और मुझ में दृढ़ निश्चय वाला है - वह मुझ में अर्पण किए हुए मन बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझ को प्रिय है।
         भगवान का प्रिय होने के लिए हमें अपने अंदर इन गुणों को अपने दैनिक जीवन यापन में अपनाने का प्रयास करते रहना चाहिए।  इनका चिंतन करते रहना चाहिए यह भगवान की वाणी है।🙏 

धन्यवाद
बी.के. शर्मा

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