व्यावहारिक गीता ज्ञान
भगवान गीता के कर्म सन्यास योग नामक पांचवें अध्याय के 14 वें श्लोक में कर्ता, कर्म और कर्म फल के विषय में कहते हैं कि:-
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ।। ![🌻](https://mail.google.com/mail/e/1f33b)
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परमेश्वर मनुष्यों के ना तो करतापन की, न कर्मों की ओर, न कर्मफल के संयोग की ही रचना करते हैं किंतु स्वभाव ही बर्त रहा है। ![🎉](https://mail.google.com/mail/e/1f389)
भगवान कहते हैं कि मनुष्यों में कर्मों के करने में जो कर्तापन का भाव आता है वह भगवान का बनाया हुआ नहीं है ,आत्मा तो अकर्ता है । अज्ञान के कारण ही मनुष्य अपने को करता मानकर कर्म करने लग जाता है और फिर कर्मफल में आसक्त होकर उन कर्मों में बधं जाता है। भगवान ने पहले ही कर्म योग नामक तीसरे अध्याय के 27 वें श्लोक में स्पष्ट रूप से कहा है कि:-
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।। ![🌈](https://mail.google.com/mail/e/1f308)
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वास्तव में संपूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं तो भी जिसका अंत:करण अहंकार से मोहित हो रहा है , ऐसा अज्ञानी मैं कर्ता हूं, ऐसा मानता है।![🎊](https://mail.google.com/mail/e/1f38a)
अर्थात कर्तापन भगवान का बनाया हुआ नहीं है, अपितु हमारा अपना ही बनाया हुआ है, अतः हम स्वयं ही इसका त्याग भी कर सकते हैं । जब संपूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा ही किए जाते हैं तब कर्म तो जड़ ही हुए इसका चेतन आत्मा के साथ जो हमारा वास्तविक स्वरूप है कोई भी संबंध नहीं हो सकता । परंतु जब हम शरीर मन बुद्धि में आसक्त होकर कर्म करते हैं तब ही कर्ता भाव आ जाता है और कर्म फल में आसक्त होकर बंधन में पड़ जाते हैं।![🎉](https://mail.google.com/mail/e/1f389)
प्रकृति की तीनों गुण , सत् , रज और तम , विकार रूपी राग और द्वेष , पूर्व में किए गए कर्मों के संस्कार आदि के रूप में परिणित हुई प्रकृति अर्थात हमारा स्वभाव यह हमारी आदत ही सब कुछ करती है । अर्थात अहंकार से मोहित होकर अपने को कर्मों का कर्ता मान लेते हैं और बंधन में पड़ जाते हैं । वास्तव में आत्मा का इनसे कोई संबंध नहीं है । यह प्रकृति या भगवान की माया ही सब कुछ कर रही है जब तक प्रकृति या स्वभाव से हमारा संबंध बना हुआ है तब एक कर्तापन , कर्म और कर्म फल के साथ भी हमारा संबंध बना रहता है। अतः साधक को चाहिए कि कर्मों का कर्तापन या तो प्रकृति के अर्पण कर दें जैसा कि भगवान ने गीता के (5/8-9) श्लोक में कहा है कि सांख्य योगी तो यह मानता है कि कभी इंद्रियां अपने-अपने अर्थों में बढ़त या व्यवहार कर रही हैं मैं कुछ नहीं करता हूं । या सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण कर दे जैसा कि भगवान ने गीता के (5 /10 )श्लोक में कहा है। या फिर कर्मों के फल और आसक्ति का त्याग करके कर्मो से अपना संबंध विच्छेद कर ले जैसा कि भगवान ने गीता के (5 /11- 12) श्लोक में कहा है ।उपर्युक्त तीनों मार्गों में से किसी एक मार्ग का अनुसरण करके साधक भगवत्प्राप्ति रूप परम शांति को प्राप्त कर सकता है , और संसार में रहते हुए संसार या दूसरों के हित के लिए कर्म करता हुआ कर्म बंधन से मुक्त होकर आवागमन के चक्र से छूट सकता है।
धन्यवाद ![🙏](https://mail.google.com/mail/e/1f64f)
बी.के. शर्मा
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