Monday, May 25, 2020

कर्म बंधन से मुक्ति - दिनांक 24 मई 2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान

भगवान गीता के अध्याय 4 के श्लोक 23 में कर्म बंधन से मुक्त पुरुष के  लक्षण बताते हैं:-

गतसॾग्स्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस:।
यज्ञायाचरत: कर्म समग्नं प्रविलीयते ।। 🎊

    जिसकी आसक्ती सर्वथा नष्ट हो गई हो , जो देहाभिभान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरंतर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है- ऐसा केवल यज्ञ संपादन के लिए कर्म करने वाले मनुष्य के संपूर्ण कर्म भली-भांति विलीन हो जाते हैं।

   भगवान ने इस श्लोक में मनुष्य के संपूर्ण कर्म विलीन होने की बात कही है, अर्थात क्रियमाण (वर्तमान के कार्य), संचित और प्रारब्ध कर्म जब विलीन (समाप्त) हो जाते हैं, तब ऐसा मनुष्य जीवित अवस्था में ही मुक्त हो जाता है। इसके लिए भगवान ने हमें चार बातों पर अपना ध्यान केंद्रित करके और उनको अपने दैनिक व्यवहार में उपयोग करते हुए अपना कर्तव्य कर्म करते हुए मुक्त हो जाना है।

१. आसक्ति के बिना अपने कर्म करने हैं

२. देह (शरीर ) के अभिमान और ममता से रहित होकर कर्म करना है

३. चित्त का निरंतर परमात्मा के साथ अर्थात अपने वास्तविक स्वरूप के साथ  स्थित रखते हुए कर्म करने हैं तथा
४. यज्ञ संपादन अर्थात स्वार्थ रहित होकर दूसरों के हित के लिए कर्म करने हैं।

     जब कर्म करते हुए हमारे अंदर यह भाव आता है कि यह कर्म तो मैं अपने हित के लिए कर रहा हूं उससे मुझे यह फल प्राप्त होगा और फिर में अनेक प्रकार के भोगों का सुख प्राप्त करूंगा, तब वह कर्म में आसक्ति के कारण उस कर्म के साथ अपना संबंध रखकर बंधन में पड़ जाता है। हम, व्यक्ति, परिस्थिति, क्रिया और पदार्थ जो की जड़ है उनके साथ अपना संबंध रख कर या उनमें आसक्त होकर स्वयं ही अपने को बंधन में डालते हैं। यदि हम अपने कर्तव्य कर्म पूर्ण निष्काम भाव से अर्थात कोई कामना न रखते हुए, बिना किसी स्वार्थ के, दूसरों के हित के लिए, करें तब हम कर्म करते हुए भी इनसे मुक्त हो सकते हैं, फल तो हमें अपने प्रारब्ध के अनुसार मिलेगा ही, बस केवल उसकी कामना न रखते हुए अपने नियत कर्म करते रहना है। भगवान ने गीता के श्लोक 18 /46 में कहा है कि जिस ईश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अतः हमें  कर्म करते हुए अपने भाव अपने स्वार्थ के लिए न रखते हुए, दूसरों के हित का भाव रखते हुए करने चाहिए।

     कर्म करते हुए हमें देहाभिमान अर्थात कर्तापन (मैं- पन) और ममता (मेरा-पन) को नहीं रखना है।अगर विचार करें कि कर्ता कौन है, क्या हमारा मन कर्ता है,  वह तो बुद्धि के अधीन होकर कर्म करता है, क्योंकि बुद्धि जिस कर्म को करने का निश्चय करती है, मन वैसा ही कामना करने लगता है । बुद्धि भी कर्ता नहीं हो सकती, चूंकि मन और बुद्धि तो अंत:करण के अंतर्गत आते हैं अतः करण या साधन है। ‌ भगवान ने गीता के श्लोक 18 /18 में तीन प्रकार के कर्म संग्रह, कर्ता, करण तथा क्रिया बताएं हैं। कर्म करने वाले का नाम कर्ता है, जिन साधनों से कर्म किया जाए, उनका नाम करण है और करने का नाम क्रिया है। करण ( मन ,बुद्धि आदि ), कर्ता के अधीन रहते हैं, और क्रिया की सिद्धि में अत्यंत उपयोगी होते हैं । अतः मनुष्य को  कर्म (क्रिया) करते हुए, मन, बुद्धि आदि जो साधन (करण) हैं उनका बहुत ही विवेक पूर्वक शास्त्रानुसार मैं- पन और  मेरा- पन से रहित होते रहने का प्रयास करते रहना चाहिए। इसी मैं-पन और मेरा- पन जो हमारे अंदर अनंत जन्मों से शरीर के साथ संबंध मानने से बना हुआ है उसको धीरे-धीरे विवेक पूर्वक छोड़ने का प्रयास करते रहना है, ताकि हम कर्म करते हुए उससे संबंध न रखते हुए मुक्त हो सकें।

   तीसरी बात भगवान कहते हैं कि जिस का चित्त निरंतर परमात्मा के ज्ञान में स्थिर रहता है अर्थात अपने वास्तविक स्वरूप या आत्मभाव में स्थिर रहता है । उसे यह ज्ञान रहता है कि वह तो ईश्वर का अंश होने से चेतन है जबकि सभी क्रिया, करण , पदार्थ , परिस्थिति जड़ है,  कर्म का आरंभ और अंत होता है, पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होते है इसलिए वह असत हैं जबकि वह स्वयं सत हैं, अर्थात इस शरीर से पहले भी था, इस शरीर के नाश हो जाने पर भी रहेगा । तब बीच की अवस्था में ही वह तमाम जड़ चीजों के साथ संबंध बनाकर क्यों फंसना चाहता है।  उसे तो बस निस्वार्थ भाव से  अपने कर्तव्य कर्म करने हैं ताकि वह  मुक्त हो सके।

  चौथी बात भगवान केवल यज्ञ संपादन के लिए कार्य करने वाले मनुष्य के विषय में कहते हैं। जब हमारे समस्त कर्म दूसरों के हित के लिए, बिना कोई अपना स्वार्थ रखते हुए होते हैं तब यही यज्ञ है ।  अपने वर्ण , आश्रम, परिस्थिति के अनुसार जिस मनुष्य का जो शास्त्र दृष्टि से निहित कर्तव्य है वहीं उसके लिए यज्ञ है । अतः उस शास्त्र विहित यज्ञ का संपादन करने के लिए हमें अपने कर्तव्य कर्म , पूरी निष्ठा,  ईमानदारी, निस्वार्थ भाव एवं निष्काम पूर्वक करने चाहिए।

   अतः यदि हम भगवान द्वारा  बतलाई गई चारों बातों का अपना कर्म  करते हुए  ध्यान पूर्वक पालन करते रहने का प्रयास करते रहेंगे तब हमारा संपूर्ण कर्म जिसमें हमारे पूर्व जन्मों के संचित कर्म जो हमारे अंत:करण में संचित हैं और हमारे वर्तमान जन्म के कर्म भी विलीन हो जाएंगे और हम इस जन्म मृत्यु के चक्र से छूट जाएंगे।

      धन्यवाद🙏
       बी.के. शर्मा

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