Sunday, May 3, 2020

सात्विक कर्म - दिनांक 29 अप्रैल 2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान 

भगवान ने गीता के मोक्ष सन्यास योग नामक 18 वें अध्याय के 23 वें श्लोक में कहा है कि:-

🌈🎊 नियतं संगरहितम रागद्वेषत: कृतम।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्विक  मुच्यते ।। 🌈🎊

        जो कर्म शास्त्र विधि से  नियत किया हुआ और करता पन के अभिमान से रहित हो तथा फल ना चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग द्वेष के किया गया हो-वह सात्विक कहा गया है।

इस श्लोक में भगवान ने सात्विक कर्म के विषय में चार बातें हमें बतलाई हैं-

१. यह कर्म शास्त्र विधि से नियत किया हुआ हो, अर्थात जिस कर्म का शास्त्रों में निषेध (मना) किया गया हो ऐसा ना हो।

२. कर्म करने में हमारे अंदर करतापन का अभिमान ना हो।

३. फल की इच्छा न रखते हुए कर्म किया जाए और 

४. कर्म करते समय न हमारे अंदर उसके प्रति राग हो और न द्वेष हो।🎉👑

इससे पूर्व भगवान ने गीता के श्लोक 18/ 9 में सात्विक त्याग के विषय में आसक्ति और फल का त्याग करके शास्त्र विहित कर्म करने के लिए कहा है।  अतः सात्विक  कर्म करने के लिए हमारे अंदर करता पन का अभिमान नहीं होना चाहिए कि मैं ही इस कार्य को कर सकता हूं, दूसरा कोई नहीं।  मेरे ही अंदर इसको करने की सामर्थ्य या शक्ति है।  हमें यह याद रखना चाहिए कि हमारे शरीर में जो प्राण शक्ति हैं, जिसके द्वारा हमारा शरीर और इंद्रियां अपना अपना कार्य कर रही है वह परमात्मा द्वारा ही दी गई है और वह शक्ति परमात्मा का ही एक अंश है।  उसके हमारे शरीर से बाहर निकल जाने के बाद हम अपने इस शरीर के रहते हुए भी कुछ भी नहीं कर सकते और शरीर को नष्ट कर दिया जाता है।  अतः हमें कर्म करते हुए ऐसा अभिमान नहीं करना चाहिए कि मैं ही इसे अपनी शक्ति या सामर्थ्य से कर रहा हूं। परमात्मा हमारे  अंदर होने वाले अभिमान को बर्दाश्त नहीं करते, कभी कभी हमने देखा भी है कि बड़े-बड़े चाहे नेता हो या व्यापारी अपने अहंकार के कारण बहुत ऊपर पहुंचकर इसी जन्म में बहुत नीचे पहुंच जाते हैं बस केवल यादें ही रह जाती हैं। 

कर्तापन के अभिमान को लेकर केनोपनिषद में कथा आती है कि परमात्मा ने देवताओं पर कृपा करके उन्हें शक्ति प्रदान कर दी, जिससे उन्होंने असुरों पर विजय प्राप्त कर ली । यह विजय वास्तव में भगवान की ही थी, देवता तो केवल निमित्त मात्र थे, परंतु इस और देवताओं का ध्यान ही नहीं गया और वे भगवान की कृपा की ओर लक्ष्य न  करके भगवान की महिमा को अपनी महिमा  समझ बैठे और  अभिमान बस यह मानने लगे कि हम बड़े शक्तिशाली हैं एवं हमने अपने ही बल से असुरों को पराजित किया है।

देवताओं के अभिमान को भगवान समझ गए और सोचा कि यह अभिमान बना रहा तो इनका पतन हो जाएगा ।  अतः उनका अभिमान समाप्त करने के लिए दिव्य साकार यक्ष रूप में प्रकट हो गए । देवताओं ने उन  दिव्य यक्ष रूप भगवान का परिचय जानने के लिए पहले अग्नि देवता को भेजा । यक्ष ने पूछा  कि आप कौन हैं और आपमें क्या शक्ति है तब अग्नि  देवता ने कहा कि मैं अग्नि हूं और भूमंडल में जो कुछ दिख रहा है सब को जलाकर राख कर सकता हूं । तब यक्ष रुपी परमात्मा  ने अग्नि के सामने एक सूखा तिनका रखकर कहा कि  आप इसको जला दीजिए । अग्नि ने  अपनी पूरी शक्ति लगा दी लेकिन तिनके को तनिक भी आंच नहीं लगी । अग्नि देवता के वापस जाने के बाद फिर वायु देवता आए और यक्ष ने पूछा  आप कौन हैं और आप में क्या शक्ति है , तब वायु ने कहा मैं सभी को उड़ा सकता हूं ।यक्ष के द्वारा वायु के सामने रखे सूखे तिनके को भी देवता अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी हिला न सके। और वापस चले गए।

अग्नि में जो जलाने की शक्ति है और वायु में उड़ाने की जो शक्ति है और अन्य सभी में जो भी शक्तियां हैं वह तो शक्ति कै मूल भंडार परमात्मा से ही मिली हुई है । वे यदि उस शक्ति स्रोत को रोक दें तो फिर शक्ति कहां से आएगी । इसी प्रकार हमें कर्म करते समय अपने कर्तापन का अभिमान नहीं करना चाहिए। हम भी परमात्मा द्वारा दी गई शक्ति से उन्हीं के द्वारा दिए गए कर्तव्य कर्म  को केवल निमित्त मात्र या माध्यम बनकर कर रहे हैं ,फिर अभिमान कैसा।🌺


  🙏धन्यवाद🙏
    बी .के. शर्मा 🎊🌈

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