व्यवहारिक गीता ज्ञान
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ।। 

परंतु जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकार युक्त पुरुष द्वारा किया जाता है वह कर्म राजस कहा गया है ।
भगवान ने गीता में इससे पूर्व के श्लोक 18/23 में सात्विक कर्म के विषय में बताया कि यह कर्म फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग -द्वेष से किया जाता है जबकि राजस कर्म कामना और फल की इच्छा पूर्वक किया जाता है। इसके अतिरिक्त यदि कर्म करने वाले मनुष्य में कर्ता पन का अभिमान नहीं है और ना ही यह अहंकार है कि मैं ही इस कर्म को कर सकता हूं और वह पूर्ण निष्काम भाव से कर्म कर रहा है तब वह सात्विक कर्म है और उच्च श्रेणी का है। जबकि राजस कर्म अहंकार युक्त पुरुष द्वारा पूरे अभिमान पूर्वक और बहुत परिश्रम से किया जाता है, ऐसा कर्म मध्यम श्रेणी का है और हमें कर्मबंधन में डालने वाला होता है।
सात्विक कर्मों के कर्ता में कर्ता पन का अभिमान ना होने के कारण किसी प्रकार के परिश्रम का बोध नहीं होता, वह उसे बिना फल की इक्षा के अपना कर्तव्य कर्म समझकर करता है। जबकि राजस कर्म के कर्ता का शरीर में अहंकार होने के कारण तथा भोग एवं फल की इच्छा रखते हुए कर्म करने के कारण वह शरीर के परिश्रम और दुखों से स्वयं दुखी होता है। अतः जो कर्म भोगो या फल की इच्छा से किए जाते हैं वह राजस कर्म है तथा जिन कर्मों में फल की इच्छा तो कर्ता में नहीं है लेकिन कर्ता में अहंकार या अभिमान हैं कि मैं ही इस काम को करने वाला हूं ,मेरे समान दूसरा कोई नहीं है और चाहता हे कि मेरी सभी लोग इसके लिए प्रशंसा करें तब इस तरह के कर्म भी राजस कर्म है और मध्यम श्रेणी के हैं।
राजस कर्मों का फल शास्त्रों में दुख बतलाया गया है चूंकि इनसे हम कर्म बंधन में पढ़कर बार-बार जन्म- मृत्यु के चक्र में पड़े रहते हैं। अतः हमें कर्म करने से पहले अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिए और अपने अंतःकरण में कर्तापन का अभिमान ना रखते हुए, बिना किसी कामना के अपने-अपने निर्धारित कर्तव्य कर्म इस संसार में लोकहित की दृष्टि से करते रहना चाहिए। इसी में हमारा कल्याण निहित है। और हमारा मनुष्य जन्म लेना भी सफल हो जाएगा। कर्म करते हुए ही हमारा उद्धार हो जाएगा। लेकिन अपने दैनिक जीवन के व्यवहार में तो हमें स्वयं ही लाना पड़ेगा।

बी.के. शर्मा।
धन्यवाद
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