Saturday, May 2, 2020

आसक्ति रहित होकर कर्तव्य कर्म करना - दिनांक 12 अप्रैल 2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान - 

 गीता में भगवान कर्म योग नामक तीसरे अध्याय की 19वें श्लोक में कर्म करने के विषय में कहते हैं:-

🎉🌺 तस्मादसक्त: सतंत  कार्य कर्म समाचर।
असक्तो ह्माचरन्कर्म परमाप्रोति पुरुष:।। 🌷🎉

इसलिए तू निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म को भलीभांति करता रहे। 
क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

 🌈  भगवान ने गीता में (18/ 45) कहा है कि अपने अपने कर्मों में तत्परता पूर्वक लगा हुआ मनुष्य भगवत  प्राप्ति रूप परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।  फिर गीता में (३/८) कहा की वर्ण ,आश्रम ,स्वभाव और परिस्थिति के अनुरूप जो भी हमारे नियत कर्म हैं उनका हमें अवश्य पालन करना चाहिए । अब भगवान इस श्लोक में कहते हैं कि हमें आसक्ति से रहित होकर अपने अपने कर्तव्यकर्मों को भली प्रकार से करते रहना चाहिए । आसक्ति ही पतन करने वाली है, क्योंकि आसक्ति से ही कामना उत्पन्न होती है । आसक्ति के कारण ही पहले हम अपना सुख, आराम और भोग आदि देखते हैं और उसमें बधं जाते हैं फिर बार-बार जन्म मरण होता रहता है । आसक्ति के कारण ही पहले हम दूसरों के स्थान पर अपने हित का ध्यान करते हैं । आसक्ति रहित मनुष्य ही सभी प्राणियों के हित के विषय में सोचता है । हमें कहीं भी आसक्त नहीं होना है जब हमारा शरीर और यह संसार निरंतर बदल रहा है तब इस परिवर्तनशील जगत में क्या आसक्ति रखनी है ।  ईश्वर द्वारा दिए गए अपने-अपने निर्धारित कार्यों को संसार की सेवा में निष्काम भाव से करते रहना है ।  बदले में कुछ इच्छा नहीं रखनी है । प्रारब्ध के अनुसार हमें फल मिलता रहेगा ताकि हमारा जीवन सुचारू रूप से चलता रहे।  भगवान तो हमारे हृदय में स्थित होकर हमारे सभी कार्यों को देखते ही रहती हैं और अपने बच्चों की तरह हमारा पूरा ध्यान रखते हैं ; अंत: हमें चिंता न करते हुए बस केवल भगवान के वाक्यों पर पूरी श्रद्धा के साथ चिंतन करते हुए उन्हें अपने आचरण में उतारना चाहिए।🌈


धन्यवाद
बी.के. शर्मा

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