Thursday, May 21, 2020

कर्म बंधन से छूटने का उपाय - दिनांक 20 मई 2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान

    भगवान गीता के अध्याय 4 के श्लोक 22 में कर्म करते हुए कर्म बंधन से छूटने के उपाय के विषय में कहते हैं:-
 
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्बातीतो विमत्सर:।🌷
सम: सिद्धावसिंद्भौ च कृत्वापि न निबध्यते ।। 

         जो बिना इच्छा के अपने आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्ट रहता है,  जिसमें ईर्ष्या  का सर्वथा अभाव हो गया है , जो हर्ष-शोक आदि द्वन्दो से सर्वथा अतीत हो गया है- ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला कर्म योगी कर्म करता हुआ उन से नहीं बंधता ।

        इस श्लोक में भगवान ने चार बातों का पालन करने के लिए कहा है, जिससे कर्म करते हुए भी कर्म योगी कर्म बंधन से मुक्त रहता है:

१. कर्म करते हुए किसी भी प्रकार की फल की इच्छा न रखते हुए जो प्रारब्ध के अनुसार पदार्थ प्राप्त हो जाये उसमें सदा संतुष्ट रहना।

२. किसी भी प्रकार की किसी के भी साथ ईर्ष्या न रखना ।

३. हर्ष-शोक आदि द्वन्दों से प्रभावित न  होना तथा

४. सिद्धि और असिद्धि में समान भाव रखना।

       इससे पूर्व भी भगवान ने गीता के अध्याय 2 के श्लोक 50 और 51 में कहा है कि सम बुद्धि से युक्त होकर ही हमें अपने कर्तव्य कर्म करते रहने चाहिए।  यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है । अर्थात कर्म बंधन से छूटने का उपाय है। सम बुद्धि युक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है। सम बुद्धि से युक्त ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्म रूप बंधन से मुक्त होकर निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं।

      शास्त्रों में कर्म तीन प्रकार के बतलाए गए हैं  

१. क्रियमाण  
२. संचित 
३. प्रारब्ध।  

     वर्तमान में हमारे द्वारा किए जाने वाला प्रत्येक कार्य क्रियमाण कहलाता है,  जैसे ही यह पूरा हो जाता है तत्काल ही संचित बन जाता है । अतः वर्तमान में हमारे किए जाने वाले कार्य  हमारे अंतःकरण में संचित होते जाते हैं। इनमें से कुछ पुण्य (अच्छे) कर्म और कुछ पाप (बुरे) कर्म होते हैं । हमारे ही संचित कर्म उचित समय आने पर फल रूप में या प्रारब्ध के रूप में हमें भोगने के लिए सुख-दुख रूप से मिलते हैं।  अतः हमारे द्वारा किए जाने वाले कर्म का फल हमारी इच्छा अनुसार ही मिलेगा ऐसा कैसे कह सकते हैं । उदाहरण के लिए    यदि  हम कोई व्यापार फल की इच्छा रखते हुए शुरू करते हैं कि इससे मुझे इतना लाभ होगा,  फिर मैं मकान एवं गाडी लूंगा आदि भोगों की भी इच्छा रखते हैं । तब यदि हमारे अनुकूल परिणाम नहीं हुआ तब  हमें दुख होता है और यदि हो गया तब सुख मिलता है । लेकिन यदि विचार करें तब कर्म का फल या प्रारब्ध तो हमारे बस में नहीं है,  यह तो हमारे संचित कर्मों पर ही निर्भर करता है । तब हम कर्म शुरू करते समय फल की इच्छा ही क्यों रखते हैं । भगवान ने तो गीता के श्लोक 2/47 में हमें बताया है कि तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फल में कभी नहीं । इसलिए तू कर्मों के फल का हेतू मत हो तथा तेरा कर्म न करने में भी आसक्ती न हो।

      शास्त्रों में आता है कि जब तक अंत:करण में संचित कर्म रहते हैं तब तक वह प्रारब्ध रूप में हमारे सामने आते रहते हैं।  क्योंकि संचित कर्मों से स्फुरणा  अर्थात हमारी बुद्धि की वृत्तियां या हमारे अंदर उस तरह के कार्य करने की प्रेरणा उत्पन्न होती है। स्फुरणा से क्रियमाण   कर्म उत्पन्न होते हैं , क्रियमाण  से पुन: संचित और संचित से प्रारब्ध बनता है।  इसलिए इस कर्म प्रभाव में हम हमेशा चलते रहते हैं और  मुक्ति नहीं हो पाती। यदि हम देखें तब संचित कर्म द्वारा हमारे अंदर जो कर्म प्रेरणा उत्पन्न होती है उन कर्मों को करने की विधि को लेकर हम पूरी तरह से स्वतंत्र हैं । यहीं पर हमें गीता में भगवान द्वारा बताए गए रास्ते पर चलना है।  अपने कर्तव्य कर्म हमें बिना फल की इच्छा रखते हुए, आसक्ति रहित होकर, कर्ताभाव न रखते हुए पूर्व निर्लिप्त भाव से लोकहित की दृष्टि रखते हुए करने चाहिए ताकि हम कर्म बंधन में न पडकर इन से मुक्त हो सकें। इससे हमारे पूर्व में संचित कर्म भी नष्ट हो जाते हैं।    

      रामचरितमानस में भी आता है कि शंकर भगवान कहते हैं:

 "होइहि सोई जो राम रचिराखा। 
को करि तर्क बढ़ावै साखा ।।
अस कहि लगे जपन हरिनामा । गई सती जहं प्रभु सुखधामा ।।

        कि जो कुछ राम ने रच रखा है वही होगा। तर्क  करके कौन विस्तार बढ़ाये।  मन में ऐसा कहकर शिवजी भगवान श्री हरि का नाम जपने लगे और सती जी वहां गई जहां सुख के धाम प्रभु श्रीराम थे। इसी प्रकार हमें भी कर्म करने पर फल की इच्छा न रखते हुए अपने कर्म  करने चाहिये,अंत में वही फल मिलेगा जो ईश्वर की इच्छा होगी और हमारा प्रारब्ध  होगा । फिर हम इच्छा और आसक्ति रखकर क्यों अपने आप को कर्म बंधन में फंसा कर रखते हैं।

      उपरोक्त श्लोक में भगवान द्वारा कही गई चारों बातों का अपने दैनिक व्यवहार में और अपने कर्तव्य कर्म में हमें पालन करने का प्रयास करते रहना चाहिए ताकि हम कर्म करते हुए भी कर्म बंधन से मुक्त होकर इस जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट सकें।


       🙏धन्यवाद
          बी .के. शर्मा 

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