Sunday, May 10, 2020

तामसी बुद्धि वाले मनुष्य - दिनांक 7 मई 2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान - 

       भगवान गीता के मोक्ष सन्यास योग नामक 18वें अध्याय के श्लोक 32 में तामसी बुद्धि वाले मनुष्य के लक्षण बताते हैं कि:-

👑 अधर्म धर्ममीति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्श्च बुद्धि:  सा पार्थ तामसी।। 👑


       हे अर्जुन, जो तमोगुण से घिरी बुद्धि अधर्म को भी यह धर्म है ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य सभी पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है वह बुद्धि तामसी है।

      भगवान ने गीता में मनुष्यों को उनकी बुद्धि के अनुसार तीन श्रेणियों में रखा है। सात्विक बुद्धि वाले मनुष्य, राजसी बुद्धि वाले एवं तामसी बुद्धि वाले मनुष्य।  जैसी हममें बुद्धि होगी, वैसे ही हमारे द्वारा कर्म किए जाएंगे,  वैसा ही हमारा व्यवहार होगा । चूंकि बुध्दि  ही तो हमारे शरीर रूपी रथ की सारथी है ,मन इसकी लगाम है , हमारी इंद्रियां इसके घोड़े हैं और जीवात्मा इस रथ में सवार है । अतः यदि शरीर रूपी रथ का सारथी ठीक है तब वह मन रूपी लगाम द्वारा इंद्रिय रूपी घोड़ों को वश में रखते हुए इस रथ में सवार जीव को इस संसार से पार अर्थात मुक्त कर देता है ।  इसलिए बुद्धि का बहुत ही महत्व है, हमें स्वयं ही इसका निरीक्षण करते रहना चाहिए और शास्त्रों के अध्ययन द्वारा, सत्संग द्वारा  इसे सात्विक बुद्धि की श्रेणी में भगवान द्वारा गीता में बताए गए अनुसार रखना चाहिए। सात्विक बुध्दि के  द्बारा मनुष्य अपने कर्तव्य और अकर्तव्य, भय और अभय , बंधन और मोक्ष तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग को यथार्थ रूप से जानता है । जबकि राजसी बुद्धि वाला मनुष्य धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को अपने लोभी प्रवृत्ति के द्वारा और भोगों में तल्लीन रहने के कारण यथार्थ रूप से नहीं जान पाता।

       तामसी बुद्धि वाले मनुष्य तो  वेद , उपनिषद और गीता में बतलाए गए भगवान के वचनों के विपरीत आचरण करता है ,  वह अज्ञानी, घमंडी और धूर्त तामसिक कर्ता अधर्म को धर्म मानता है और जो शास्त्रों में कर्मों का निषेध है, वही कर्म करता है । आजकल के समय में इस युग में ऐसे काफी व्यक्ति मिल जाते हैं जो धर्म विरुद्ध आचरण करना ही अपना धर्म मानते हैं। तमोगुण से ढकी रहने के कारण ऐसे मनुष्य की बुद्धि कि विवेक शक्ति सर्वथा लुप्त हो जाती है । इसके कारण प्रत्येक विषय में इनका उल्टा ही निश्चय होता है ।  इनका खाना पीना, जीविका के साधन , समाज में व्यवहार आदि शास्त्र विरूद्ध ही होते हैं ।  ऐसी बुद्धि मनुष्य को अधोगति में ले जाने वाली है।  इसलिए यदि हमें अपना कल्याण करना है तब इस प्रकार की विपरीत बुद्धि का पूर्णतया त्याग कर देना चाहिए।

        हमें अपने सभी कार्य पूरी तरह विचार करके ही करने चाहिए ।  मनुष्य जन्म बहुत ही दुर्लभ है , अतं समय में देखा जाता है कि लाखों रुपए खर्च करने के बाद भी हम कुछ और समय अपने जीवन का नहीं प्राप्त कर सकते हैं । अतः यदि इस दुर्लभ शरीर का अमूल्य समय हम बिना विचार किए बिताएंगे तब हमें ही आगे चलकर पछताना पड़ेगा ।  जैसा कि गिरधर कवि ने कहा है:-

👑 
बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताए ।
काम बिगारे आपनो जग में होत हंसाए ।।

जग में होत हंसाय  ,चित्त में चैन ना पावे ।
खान-पान सनमान राग रंग मन नहीं भावे। ।।
कह गिरधर कविराय करम गति टरत न टारे ।
खटकत है जीय माहि किया जो बिना विचारै।। 🎊
         
        मनुष्य जन्म ही जीवात्मा के कल्याण का एकमात्र साधन है । भगवान ने हमें बुद्धि भी प्रदान की है , उसे सद्विचार और सत्कर्म में लगाने की आवश्यकता है । भगवान ने गीता में सात्विक बुद्धि , सात्विक  कर्म और सात्विक कर्ता आदि के लक्षण विस्तारपूर्वक हमारे कल्याण के लिए बताएं हैं । यदि हम उनको केवल पढ़कर ही छोड़ दें तब हमारा कल्याण नहीं हो पाएगा, हमें उनको अपने व्यवहार में लाना पड़ेगा , तभी हमारा कल्याण हो सकता है । यदि हम गीता के एक - दो श्लोक को अपने जीवन में धारण कर लें अर्थात अपना व्यवहार उन्हीं के अनुसार करें तब हमारा बहुत जल्दी कल्याण हो सकता है । उदाहरण के लिए यदि हमें कोई रोग है और उसकी औषधि की भी हमें जानकारी प्राप्त हो गई है , हमने उसे खरीद कर अपने पास रख लिया है , किंतु उसका सेवन नहीं किया और सब को कहते हैं कि मुझे रोग और औषधि का पूर्ण ज्ञान है लेकिन तब भी ठीक नहीं हो पा रहा हूं । लेकिन ठीक तो हम तभी होंगे जब हम उस औषधि का सेवन कर लेंगे । इसी प्रकार यदि हम गीता शास्त्र में भगवान के कहे हुए वचनों का केवल पाठ  ही करेंगे तब उतनी जल्दी प्रत्यक्ष कल्याण नहीं होगा जितना कि यदि हम उन्हें अपने स्वयं के जीवन में , दैनिक व्यवहार में , और अपने कर्तव्य कर्म में अपना कर प्राप्त कर सकते हैं । इसके लिए प्रयत्न तो हमें ही करना पड़ेगा , भगवान ने तो हमें सही मार्ग बतला दिया है।

      🙏 धन्यवाद
       बी. के. शर्मा 

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