व्यवहारिक गीता ज्ञान
भगवान ने गीता के मोक्ष सन्यास योग नामक 18 वें अध्याय के नवे श्लोक में कहा है कि:-
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन।
संडं त्यक्त्वा फलं चैव स त्याग: सात्विको मत: ।।
हे अर्जुन! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है - इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है - वही सात्विक त्याग कहा जाता है।
भगवान ने गीता के अनेकों श्लोकों में अपने-अपने स्वभाविक कर्तव्य कर्म बिना आसक्ति और फल की इच्छा ना रखते हुए करते रहने के लिए कहा है । जैसे कि भगवान गीता के श्लोक 3/8 में कहते हैं कि तू शास्त्र विधि से नियत किए हुए कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। श्लोक 3/19 में कहते हैं कि तू निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य कर्मों को भलीभांति करता रहे । क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है । गीता के श्लोक 5/10 में कहते हैं कि जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भांति पाप में लिप्त नहीं होता। इसके अतिरिक्त श्लोक 6/1 में कहते हैं कि जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह सन्यासी तथा योगी है । श्लोक 5/11 में कहते हैं कि कर्म योगी ममता और आसक्ति को त्यागकर अंतःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करता है । और श्लोक 5 /12 में कहते हैं कि कर्म योगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवत प्राप्ति रूप शांति को प्राप्त करता है । श्लोक 2/47 में कहते हैं कि तेरा कर्म करने में ही अधिकार है उसके फलों में कभी नहीं । इसलिए तू कर्मों के फल का हेतू मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ती ना हो।
यदि हम भगवान द्वारा कहे गए गीता के उपरोक्त श्लोको का चिंतन करें तब देखते हैं कि भगवान हमें अपने अपने कर्तव्य कर्मों को करने की कितनी प्रेरणा देते हैं बस केवल उनमें अपनी आसक्ति, ममता और फल की इच्छा से रहित होकर भगवान को अर्पण करके, भगवान द्वारा दिए गए इस मनुष्य शरीर से, भगवान द्वारा दिए गए अपने शास्त्र विहित कर्तव्य कर्मों को निष्काम भाव से करते रहें ताकि कर्म करते हुए कर्म बंधनों से मुक्त हो सकें।
भगवान ने इस श्लोक में भी कहा है कि शास्त्र विहित कर्म करना हमारा कर्तव्य है । आसक्ति और फल के त्याग को भगवान सात्विक त्याग कहते हैं। हम देखते हैं कि कुछ मनुष्य अपने कर्तव्य कर्म इसलिए नहीं करते कि इन्हें करने में शरीर में कष्ट होगा और आलसी की तरह पड़े रहते हैं ऐसे त्याग को भगवान ने राजस त्याग कहा है। ऐसे त्याग से अपने कर्तव्य कर्मों को न करने का पाप लगता है । कुछ मनुष्य अज्ञान या मोह (विवेक ना होना) के कारण अपने कर्तव्य कर्म नहीं करते, इसको तामस त्याग कहा है । भगवान ने हमें जो कर्तव्य कर्म दिए हैं या हमारे लिए निर्धारित किए हैं ,जो भी व्यापार ,नौकरी आदि जो भी हमारे कर्म हैं यदि हम उन्हें न करेंगे तब कर्मों की परंपरा टूट जाएगी और संसार में विघ्न उत्पन्न हो जाएगा । यदि किसान खेती न करें, दूसरे अपने अपने कर्म ना करें तब ईश्वर की इस सृष्टि में समस्या आ जाएगी और हम पाप के भागी होंगे, जिसका परिणाम भी हमें भुगतना होगा।
इसलिए राजस और तामस त्याग में जिनमें मनुष्य अपने कर्तव्य कर्मों का ही आलस्य या अज्ञान (मोह ) के कारण त्याग कर देता है उसकी निंदा की गई है। हमें केवल अपने कर्तव्य कर्म करते हुए अपने अंतःकरण में आसक्ति और फल की इच्छा को नहीं रखना है, इसी को सात्विक त्याग कहा है।
भगवान शंकराचार्य अपने भाष्य में कहते हैं कि जो अधिकारी, आसक्ति और फल वासना छोड़कर नित्य कर्म करता है, उसका फलासक्ती आदि दोषों से दूषित न किया हुआ अंत:करण, नित्य कर्मों के अनुष्ठान द्वारा संस्कृत (संस्कारवान) होकर विशुद्ध हो जाता है।
धन्यवाद
बी.के. शर्मा
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