Tuesday, May 12, 2020

आहार की पाचन क्रिया (वैश्वानर अग्नि) - दिनांक 9 मई 2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान - 

        भगवान ने गीता के अध्याय 17 में हमें 3 तरह के भोजन, सात्विक, राजस और तामस के विषय में विस्तार से बताया है। हम जैसा आहार लेते हैं वैसा ही हमारा अंतः करण होता है।  मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ही हमारे अंतःकरण हैं। अंत: आहार का असर हमारे मन, बुद्धि ,चित्त और अहंकार पर ही पड़ता है । आहार के आधार पर ही हमारा पूरा व्यक्तित्व बन जाता है ।भगवान ने गीता के श्लोक 6/17 में कहा है की दुखों का नाश करने वाला योग तो यथा योग्य आहार-विहार करने वाले को, यथा योग्य कर्मों में चेष्टा करने वाले को तथा यथा योग्य सोने और जगाने वाले का ही सिद्ध होता है। अतः भगवान ने हमें कैसा आहार लेना चाहिए और कितनी मात्रा में लेना चाहिए आदि के विषय में बताया।

         भगवान ने गीता के पुरुषोत्तम योग नामक अध्याय 15 के श्लोक 14 में हमारे द्वारा लिए गए अनेक प्रकार के आहार की पाचन क्रिया के विषय में बताया है:-

अहं वैश्र्वानरो भूत्वा प्राणीनां देहमाश्रित:।
प्राणापानसमायुक्त: पचाम्यन्नं चतुर्विधम।। 🎊🌈

        मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित रहने वाला प्राण और अपान से संयुक्त वैश्वानर अग्नि रूप होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूं ।

        जैसा कि हम जानते हैं कि हमारे द्वारा लिए गए आहार हमारे आमाशय में जाते हैं और वहां पर जो जठराग्नी मौजूद है वह उसको पचाती है , और फिर प्राण और अपान वायु द्वारा वह रस और अन्य पदार्थ शरीर के विभिन्न अंगों में जाकर शरीर का पोषण करते हैं  । इसी जठराग्नि को वैश्र्वानर अग्नि कहते हैं , जो कि भगवान ने कहा कि यह मैं ही हूं । अर्थात हमारे द्वारा लिए गए आहार को भगवान के प्रतिनिधि के रूप में जठराग्नी ही पचाकर हमारे शरीर का पोषण करती है। इसलिए आयुर्वेद में कहा है कि खाने के एकदम बाद पानी नहीं पीना चाहिए, इससे जठराग्नि मंद हो जाती है, और खाना देर में पचता है । जब जठराग्नि मंद हो जाती है तब भूख कम लगती है।

         अतः यदि हम शुद्ध शाकाहारी आहार नहीं लेंगे, जो कि एक तरह से अग्नि में दी गई अन्न कि भगवान को आहुतियां ही हैं तब क्या हम एक उचित कार्य कर रहे हैं । इस पर विचार करने की आवश्यकता है। भगवान ने तो गीता के श्लोक 9/27 में कहा हें  कि तू जो खाता है वह सब मेरे अर्पण कर दे ।  क्या हम अभक्ष्य पदार्थ (मांसाहार आदि) खाकर भगवान को अर्पण कर सकते हैं, क्या हमारे शरीर के अंदर उपस्थित जठराग्नी में इस प्रकार की आहुतियां दे सकते हैं । इसलिए हमें सात्विक आहार ही ग्रहण करना चाहिए , ताकि हम रोग मुक्त हो सकें , हमारी आयु बुद्धि और बल बढे जैसा कि गीता के श्लोक 17/8 में भगवान ने सात्विक आहार के बारे में हमें बताया है।

       भगवान ने उपरोक्त श्लोक में चार प्रकार के अन्न के विषय में कहा है , वह है भक्ष्य (रोटी ,आदि दांत से चबाया जाने वाला) ,भोज्य (निगल कर खाने वाला जैसे दूध आदि), लेह्य (चाट कर खाए जाने वाला, शहद चटनी आदि ),तथा चोष्य (चूस कर खाये जाने वाला जैसे गन्ना आदि) ।  भगवान कहते हैं कि इन सभी प्रकार के भोज्य पदार्थों को शरीर के अंदर वैश्र्वानर अग्नि के रूप में स्थित रहकर मैं ही पचाता हूं।  भगवान ने तो गीता में कहा है कि "
"जीवनम सर्व भूतेषु" अर्थात संपूर्ण भूतों में उनका जीवन मैं  हूं।  इसलिए हमें अपना प्रत्येक कार्य जिसमें आहार भी सम्मिलित है, पूरी तरह से विचार करके और उसके परिणाम आदि पर विचार करके ही करना चाहिए । भगवान ने गीता में हमें सभी मार्ग बता दिए हैं उनमें से सही  मार्ग चुनकर उस पर चलकर अपनी मंजिल तक तो हमें ही पहुंचना पड़ेगा । तभी हमारा मनुष्य जन्म में आना सफल हो सकता है।

      
         🙏 धन्यवाद🙏
          बी. के . शर्मा  

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