व्यवहारिक गीता ज्ञान
गीता में भगवान सांख्य योग नामक द्वितीय अध्याय के 47 वें श्लोक मैं कर्म करने के विषय में कहते हैं कि:-
![🎉](https://mail.google.com/mail/e/1f389)
कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन ।
मां कर्मफलहेतु भूर्मा ते सग्डोड्स्त्वकर्मणि ।। ![🎉](https://mail.google.com/mail/e/1f389)
![🌈](https://mail.google.com/mail/e/1f308)
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ती ना हो ।
भगवान ने गीता में अनेकों श्लोकों में कर्मों के फल के त्याग के विषय में बताया है जैसे गीता के 5/12 श्लोक में भगवान कहते हैं कि कर्म योगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवत्प्राप्ति रूप शांति को प्राप्त करता है। फिर 6/1 श्लोक में कहते हैं कि जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है वह सन्यासी तथा योगी है।
इस श्लोक में भगवान चार बातें कहते हैं:-
1. कर्म करने में ही तेरा अधिकार है।
2. उन किए गए कर्मों के फल में कभी तेरा अधिकार नहीं है।
3. तू कर्मफल का हेतू भी मत बन और
4. कर्म न करने में भी तेरी आसक्ति ना हो।
हम जानते हैं कि मनुष्य योनि ही कर्म योनि है और हम नए कर्म करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र हैं बाकी योनियां भोगि योंनिया हैं वह अपने पूर्व में किए हुए कर्मों को और अभी किए जा रहे कर्मों को केवल भोगते रहते हैं। हम जो कर्म करते हैं तब देखते हैं कि उनका फल हमें क्या मिलेगा यह हमारे वश में नहीं हैं। पुरानी कर्मों के अनुसार हमारे सामने अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियां आती रहती हैं और वर्तमान में किए गए कर्म हमारे भविष्य का निर्माण करते हैं। अतः हम कर्म करने में तो स्वतंत्र हैं लेकिन उनके फल प्राप्त करने में परतंत्र हैं। अतः हमें कर्म करने में ममता, आसक्ति और फल की इच्छा न रखते हुए दूसरों के हित के लिए निर्लिप्त भाव से करने चाहिए।
![🌺](https://mail.google.com/mail/e/1f33a)
श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंध में आता है कि राजा निमि जोकि महाराज इक्ष्वाकु (जिस वंश में भगवान राम ने अवतार लिया था) के पुत्र थे योगेश्वरों से पूछा कि हमें कर्म योग का उपदेश दीजिए, जिसके द्वारा शुद्ध होकर मनुष्य शीघ्रता शीघ्र कर्तव्य, कर्म और कर्म फल की निर्वत्ति करने वाला ज्ञान प्राप्त करता है।
छठे योगिश्वर आविर्होत्र जी ने कहा- जिसका अज्ञान निर्वत्त नहीं हुआ है, जिसकी इंद्रियां वश में नहीं है, वह यदि मनमाने ढंग से वेदोक्त कर्मों का परित्याग कर देता है तो वह शास्त्रविहीत कर्मों का आचरण न करने के कारण विकर्म रूप अधर्म ही करता है, इसलिए वह मृत्यु के बाद फिर मृत्यु को प्राप्त होता है। इसलिए फल की अभिलाषा छोड़कर और भगवान को समर्पित करके जो वेदांत कर्म का ही अनुष्ठान करता है उसे कर्मों की निवृत्ति से प्राप्त होने वाली ज्ञान रूपी सिद्धि मिल जाती है।
![👑](https://mail.google.com/mail/e/1f451)
इसलिए हमें भी अपने नियत, निर्धारित और स्वाभाविक कर्म फल की इच्छा न रखते हुए, भगवान को अर्पण करने के पश्चात कोई भी आ्सक्ती न रखते हुए, भगवान के द्वारा दी गई सामग्री जैसे हमारा शरीर,मन, बुद्धि आदि से केवल निमित्त मात्र बनकर ही करने चाहिए ताकि हम कर्म बंधन से मुक्त हो सकें।![🎊](https://mail.google.com/mail/e/1f38a)
![💦](https://mail.google.com/mail/e/1f4a6)
धन्यवाद![🙏](https://mail.google.com/mail/e/1f64f)
बी.के .शर्मा ![🙂](https://mail.google.com/mail/e/1f642)
No comments:
Post a Comment