व्यावहारिक गीता ज्ञान
भगवत गीता एक बहुत ही अलौकिक ग्रंथ है । इसमें साधक के लिए उपयोगी पूरी सामग्री मिलती है, चाहे वह किसी भी देश, वर्ण, समुदाय या संप्रदाय आदि का मनुष्य क्यों ना हो, इस ग्रंथ को पढ़कर इससे आकृष्ट हो जाता है । अगर हम भगवत गीता का थोड़ा सा भी पठन-पाठन करें तब हमें अपने उद्धार के लिए बहुत से उपाय मिल जाते हैं । गीता महात्त्म में आता है कि जो मनुष्य सदा गीता का पाठ करने वाला है तथा प्राणायाम में तत्पर रहता है, उसके इस जन्म और पूर्व जन्म में किए गए समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।
गीता में भगवान विभूति योग नामक दसवें अध्याय के श्लोक नंबर 20 में कहते हैं:-
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:।
अहमादिष्ज्ञ मध्य च भूतानामंत एव च ।।
हे अर्जुन ! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूं तथा संपूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूं।
जैसा कि हमने कल के कहे हुए गीता के श्लोक में देखा कि भगवान ने शरीर को क्षेत्र अर्थात खेत की संज्ञा दी, यह शरीर जड़ है,अनित्य है, नाशवान है । लेकिन सभी क्षेत्रों (शरीरों) में जो क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) है वही चेतन, नित्य और अविनाशी है, इसी चेतन तत्व के कारण यह जड़ शरीर क्रिया करता है, जब यह चेतन तत्व (आत्मा) इस शरीर को छोड़ कर चली जाती है तब यह जड़ शरीर जला दिया जाता है । जैसा कि पहले भी कहा है कि यंत्र जो कि जड़ है, बिजली के संपर्क में आने पर अपने स्वभाव के अनुसार क्रिया करने लगता है । जैसे भगवान ने कहा कि सभी क्षेत्रों (शरीरों) में क्षेत्रज्ञ (आत्मा) मुझे ही जान। उसी प्रकार इस श्लोक में भगवान कहते हैं कि सभी शरीरों के अंदर जो चेतन तत्व (आत्मा) है वह मैं ही हूं । हमें इनका ही ज्ञान करना है । जब हमारी दृष्टि दूसरों की तरफ जाये तब सब प्राणियों में आत्मारूप से भगवान ही विद्यमान है इस तरह भगवान का स्मरण करें । भगवान के बिना कोई भी चर अचर प्राणी नहीं है।
भगवान ने इस श्लोक में अपनी सम्पूर्ण विभूतियों का सार कहा है कि सभी प्राणियों को आदि, मध्य तथा अंत में, मैं ही हूं। यह नियम है कि जो वस्तु उत्पत्ति और विनाश शील है उसके आरंभ और अंत में जो तत्व रहता है, वही तत्व उसके मध्य में भी रहता है । जैसे सोने के बने गहने में यदि हम विचार करें तब एक सोने की अंगूठी (नाम एवं रूप) बनने से पहले भी सोना था अंगूठी बनने के बाद भी सोना है और अंगूठी के टूटने के बाद अर्थात उसका नाम और रूप समाप्त होने के बाद भी सोना ही रह जाता है । अर्थात तीनों अवस्थाओं में सोना ही सोना है, बस बीच की स्थिति में नाम और रूप के कारण वह भिन्न सा लगता है । इसी प्रकार सभी प्राणी आदि में भी परमात्मा स्वरुप थे और अंत में भी लीन होने के बाद भी परमात्मस्वरुप रहेंगे तथा मध्य में अर्थात हमारी वर्तमान अवस्था में नाम, रूप, आकृति, क्रिया स्वभाव आदि अलग-अलग होने पर भी वस्तुतः परमात्मस्वरुप ही हैं। यह बताने के लिए ही यहां भगवान ने अपने को संपूर्ण प्राणियों के आदि, मध्य और अंत में कहा है। यदि हम अनुभव करें तब यह गीता का श्लोक एक प्रकार गीता का सार ही है जो हमें अपने स्वरूप के विषय में अवगत कराता है कि हम वास्तव में परमात्मस्वरुप ही हैं, वह तो अनेकों जन्मों के कारण हम अपने स्वरूप को भूल गए हैं, भगवतगीता हमें अपने स्वरूप का भाव करा कर हमें उद्धार का मार्ग बताती है ताकि हम आवागमन के चक्र से दूर हो सके।
धन्यवाद
बी. के. शर्मा
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