Tuesday, December 10, 2024
गीता हमें समता में रहना सिखाती है।
आज गीता जयन्ती है। मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष मोक्षदा एकादशी के दिन कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में दोनों सेनाओं के मध्य में स्थित होकर अर्जुन के मोहरूपी विषाद को दूर करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश संपूर्ण मानव जाति के कल्याण के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व दिया था। हम सभी के अन्दर जो अशान्ति और अज्ञान रूपी जो मोह या विषाद उत्पन्न होता है, उसको दूर करने के लिए गीता का उपदेश विषाद योग से प्रारम्भ होकर मोक्षसन्यास योग पर पूर्ण होता है। गीता माहात्म्य में आता है कि ‘सम्पूर्ण उपनिषदें गौ के समान है, गोपालनन्दन श्रीकृष्ण दूहनेवाले हैं, अर्जुन बछड़ा है तथा महान गीतामृत ही उस गौ का दूग्ध है और शुद्ध बुद्धि वाला श्रेष्ठ मनुष्य की इसका भोक्ता है।
जिस तरह से हम बाजार से कोई उपकरण खरीद कर लाते हैं, तब उसके साथ एक छोटी सी पुस्तिका भी मिलती है, जिसके द्वारा उस उपकरण का ठीक प्रकार से इस्तेमाल करने आदि का हमें ज्ञान प्राप्त होता है। इसी तरह से हमें जो यह मानव शरीर प्राप्त हुआ है उसके द्वारा किस प्रकार से हम अपना दैनिक व्यवहार एवं कर्तव्यकर्म ज्ञानपूर्वक, निष्काम भाव से करते हुए एक तनावरहित एवं शांति पूर्ण जीवन यापन के साथ साथ अपने वास्तविक स्वरूप को भी जानते हुए इस संसार के आवागमन अर्थात बार बार जन्म मृत्यु के चक्र से छूट सकें ऐसा ज्ञान हमें गीता शास्त्र के मात्र 700 श्लोकों से प्राप्त हो जाता है।
गीता में भगवान कहते है कि कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है अर्थात ज्ञान प्राप्ति का कारण है, अतः शास्त्र विधि से नियत कर्म ही करने योग्य हैं। जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न तो सिद्धि को अर्थात पुरुषार्थ के साधन धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की योग्यता को प्राप्त होता है, न इस लोक में सुख पाता है, और न परम गति अर्थात स्वर्ग या मोक्ष को पाता है।
गीत हमें समबुद्धि के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है, जिसके द्वारा हम अपने जीवन में आने वाली अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में विचलित न हों। ‘समत्वं योग उच्यते’ अर्थात समता को ही योग कहा जाता है यह समता ही गीता की आत्मा है। इस समता रूपी योग में स्थित मनुष्य कभी विचलित या अशांत अथवा तनाव में नहीं आता और धैर्य पूर्वक अपना मानसिक संतुलन बनाये हुए प्रतिकूल या विपरीत परिस्थिति से भी बाहर निकलने का मार्ग निकाल ही लेता है। अन्यथा छोटी छोटी बातों में ही हम विचलित हो जाते हैं, कोई हमे हमारी इच्छा के विपरीत कुछ कह भी दे तब हम भी वैसी ही प्रतिक्रिया करके उसको बढ़ा
कर अपने जीवन में तनाव ले आते हैं। श्रेष्ठ व्यक्ति वही है, जिसकी बुद्धि प्रत्येक अवस्था में सम अर्थात स्थिर रहती है। ऐसे व्यक्ति को गीता में भगवान ने स्थितप्रज्ञ कहा है और उसका 18 श्लोकों में बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। भगवान कहते हैं ‘‘जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरूष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परमशान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं।’’
हमारी बुद्धि हमारा मार्गदर्शन करती है, उसी के निश्चय के अनुरूप हम अपना प्रत्येक कार्य करते हैं अर्थात बुद्धि हमारी सारथि है जिस प्रकार महाभारत के युद्ध में अर्जुन के सारथि भगवान श्रीकृष्ण थे। जब हमारा जीवन गीता में बतलाये हुए मार्ग के अनुसार चलता है तब भगवान हमारी बुद्धि में बैठकर हमारा मार्गदर्शन करते हैं। भगवान ने गीता में कहा है कि मेरे में मन लगाने वाले और मेरा ध्यान करने वाले भक्तों को में बुद्धियोग देता हूँ, जिससे वे मुझे ही प्राप्त होते हैं। अर्थात बुद्धियोग या समबुद्धि वाला व्यक्ति ही राग-द्वेष से रहित रहता हुआ उचित-अनुचित कार्य का ठीक-ठीक निर्णय ले पाता है और ऐसा व्यक्ति ही राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा सांसारिक विषयों में विचरण करता हुआ भी अतःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है।
बी. के. शर्मा
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