कुछ वर्ष पूर्व मनुष्य यदि लोक या शास्त्र मर्यादा के विपरीत जाकर कुछ कार्य कर देता था तब यदि उसे दूसरे व्यक्ति भी कुछ न कहें तब भी उसे अपने अंदर से ही एक प्रकार की लज्जा, संकोच और आत्मग्लानि का अनुभव होता था। तथा वह भविष्य में ऐसे कार्यों को पुनः न करने का संकल्प कर लेता था। लेकिन आज के समय में मनुष्य समाज और शास्त्र की मर्यादा के विपरीत कार्य करके लज्जा या संकोच के स्थान पर अपने को गौरवान्वित अनुभव करता है। थोड़े से लाभ के लिए अनुचित तरीकों को अपनाना, दूसरे जो हम पर विश्वास करते हैं उन्हें ठेस पहुँचाना, झूठ के रूप में अधर्म के मार्ग पर चलना, स्वास्थ्य रक्षक दवाइयाँ और खाद्य पदार्थों में हानिकारक पदार्थों की मिलावट आदि के द्वारा मनुष्य दूसरों का अहित करता है। अज्ञान के कारण वह यह नहीं जानता कि जो बीज हम बोते हैं, उसी की फसल उपयुक्त समय आने पर हमें ही काटनी पड़ती है।
हमारे द्वारा किया गया प्रत्येक शुभ या अशुभ कर्म संस्कार बीज के रूप में हमारे अंदर संचित हो जाता है। और पूर्वकृत शुभ-अशुभ कर्म आदि का संस्कार जब वर्तमान समय में प्रकट होता है तब वैसा ही हमारा स्वभाव या आदत बन जाती है और फिर वैसे ही हम कर्म करने की चेष्टा करते हैं। अतः प्रत्येक कार्य को भलीभाँति विचार कर ही करना चाहिए। कर्मों की गति बड़ी ही सूक्ष्म होती है। जिस जिस अवस्था में जैसा जैसा कर्म किया गया होता है उस उस अवस्था में प्राणी को उसका फल निश्चित ही भोगना पड़ता है। कर्म करने में तो मनुष्य पूरी तरह से स्वतंत्र है, परन्तु कर्मफल हमारी अपनी इच्छा के ही अनुरूप मिलेगा यह हमारे हाथ में नहीं है। कोई भी अपने जीवन में दुख आये ऐसी इच्छा नहीं करता परन्तु फिर भी वह हमारे जीवन में आता है जो हमारे ही द्वारा किये गये किसी पूर्व कर्म का फल है। दूसरा कोई भी व्यक्ति इसके लिए दोषी नहीं है। अतः शुभ-अशुभ कर्म का फल सुख-दुख के रूप में प्राणी को स्वयं ही भोगना पड़ता है, दूसरा कोई उसे नहीं भोग सकता। जिस प्रकार से कर्मफल को भोगना निश्चित होता है, उसे वैसे ही और स्वयं को ही भोगना पड़ता है।
दूसरों का अहित करने पर हमारा हित होगा यह हमारा बहुत बड़ा अज्ञान है। कुछ समय के लिए हमें या दूसरों को लगता है कि अशुभ या पाप कर्म को वर्तमान समय में करने पर भी हमें सुख या लाभ की प्राप्ति हो रही है। तब हमें यह समझना होगा कि यह वर्तमान में प्राप्त सुख, लाभ या अनुकूल परिस्थिति हमारे द्वारा पूर्व में किये गये इस जन्म या पूर्वजन्म के किसी शुभ कर्म का फल है। और वर्तमान में हमारे द्वारा किये जाने वाले अशुभ कर्मों का फल उचित समय आने पर हमें ही भोगना पड़ेगा। सुख और अनुकूल परिस्थिति का हमारे जीवन में आना हमारे द्वारा किये गये पुण्य या शुभ कर्म का फल और दुख या प्रतिकूल परिस्थिति का आना हमारे द्वारा ही किये गये पाप या अशुभ कर्म का फल है। हमारे द्वारा शुभ-अशुभ कर्म करने के कारण हमारे जीवन में सुख-दुख आते जाते रहते हैं। सुख और शान्ति की प्राप्ति के लिए हमें अशुभ कर्म का त्याग करना चाहिए। और शुभ कर्मों को हो करना चाहिए। इससे हमारा अंतःकरण अर्थात मन निर्मल होता है, हमारे भाव, आचरण एवं विचार शुद्ध होते हैं। हमारे जीवन में शांति, सुख और आनन्द स्थायी रूप से निवास करते हैं।
दूसरों के हित के लिए निष्काम भाव से अर्थात अपने स्वार्थ और लोभ की पूर्ति का लक्ष्य न रखते हुए सभी शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म यज्ञ की श्रेणी में ही आते हैं। कर्तव्य और अकर्तव्य में शास्त्र ही प्रमाण हैं। यदि मनुष्य शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण करता है तब वह सुख और शान्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। अतः हमारे जीवन में ज्ञान और कर्म दोनों का ही होना आवश्यक है। बिना ज्ञान के कर्म अन्धा है और बिना कर्म के ज्ञान पंगु है। इसलिए भलीभांति विचार करके कि हमारे द्वारा किये गये कर्म से समाज का कोई अहित तो नहीं होगा, लोकमर्यादा-शास्त्रमर्यादा आदि के विपरीत तो नहीं है, तभी ज्ञानपूर्वक उस कार्य को सम्पन्न करना चाहिए। ऐसे कार्य को करते समय भी हमें सुख और आनन्द की अनुभूति होगी और उसका फल भी श्रेष्ठ ही होगा।
बी. के शर्मा
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