Sunday, June 1, 2025
शरीर और आत्मा
शरीर और आत्मा इन दोनों में अत्यन्त भेद है। शरीर की नौ अवस्थाएं गर्भाधन, गर्भवृद्धी, जन्म, बाल्यावस्था, कुमारावस्था, जवानी, अधेड़ अवस्था, बुढ़ापा और मृत्यु है। यह शरीर जीव से भिन्न है। देह, इन्द्रिय, प्राण और मन में स्थित आत्मा ही जब उनका अभिमान कर बैठता है - उन्हें अपना स्वरूप मान लेता है - तब उसका नाम जीव हो जाता है। उस सूक्ष्मातिसूक्ष्म आत्मा की मूर्ति है - गुण और कर्मों का बना हुआ सूक्ष्म शरीर। उसे ही कहीं सूत्रात्मा कहा जाता है और कहीं महतत्त्व। वही कालरूप परमेश्वर के अधीन होकर जन्म-मृत्यु रूप संसार में इधर-उधर भटकता रहता है।
श्रीमद्भागवत पुराण में उद्धव जी भगवान से पूछते हैं कि आत्मा है दृष्टा और शरीर है दृश्य। आत्मा स्वयं प्रकाश है और शरीर है जड़। ऐसी स्थिति में जन्म मृत्यु रूप संसार न शरीर को हो सकता है और न आत्मा को। परन्तु इसका होना भी उपलब्ध होता है, तब यह होता किसको है? आत्मा तो अविनाशी, प्राकृत-अप्राकृत गुणों से रहित, शुद्ध, स्वयंप्रकाश और सभी प्रकार के आवरणों से रहित है तथा शरीर विनाशी, सगुण, अशुद्ध, प्रकाश्य और आवृत्त है। आत्मा अग्नि के समान प्रकाशमान है, तो शरीर काठ की तरह अचेतन। फिर यह जन्म मृत्युरूप संसार है किसे?
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, वस्तुतः संसार का अस्तित्व नहीं है तथापि जब तक देह, इन्द्रिय और प्राणों के साथ आत्मा की संबंध भ्रांति है, तब तक अविवेकी पुरुष को वह सत्य सा स्फुरित है। जैसे स्वप्न में अनेकों विपत्तियाँ आती है पर वास्तव में वे हैं नहीं, फिर भी स्वप्न टूटने तक उनका अस्तित्व नहीं मिटता, वैसे ही संसार के न होने पर भी जो उसमें प्रतीत होने वाले विषयों का चिन्तन करते रहते हैं, उनके जन्म मृत्यु रूप संसार की निवृत्ति नहीं होती। अहंकार ही शोक, हर्ष, भय, क्रोध, लोभ, मोह, स्पृहा और जन्म-मृत्यु का शिकार बनता है। आत्मा से तो इनका कोई संबंध ही नहीं है। वास्तव में मन, वाणी, प्राण और शरीर अहंकार के ही कार्य हैं। यह है तो निर्मूल, परन्तु देवता, मनुष्य आदि अनेक रूपों में इसी की प्रतीति होती है।
आत्मा और अनात्मा (शरीर आदि) के स्वरूप को पृथक पृथक भलीभाँति समझना ही ज्ञान है, क्योंकि विवेक होते ही द्वैत का अस्तित्व मिट जाता है। उसका साधन है तपस्या के द्वारा हृदय को शुद्ध करके वेदादि शास्त्रों का श्रवण करना। अनेकों प्रकार के गुण और कर्मों से युक्त देह, इन्द्रिय आदि पदार्थ पहले अज्ञान के कारण आत्मा से अभिन्न मान लिए गये थे, उनका विवेक नहीं था। अब आत्मदृष्टि होने पर अज्ञान और उसके कार्यों की निवृत्ति हो जाती है। इसलिए अज्ञान की निवृत्ति ही अभिष्ट है। वृत्तियों के द्वारा न तो आत्मा का ग्रहण हो सकता है और न त्याग। जैसे सूर्य उदय होने पर मनुष्य के नेत्रों के सामने से अन्धकार का पर्दा हटा देते हैं, किसी नयी वस्तु का निर्माण नहीं करते, वैसे ही अपने स्वरूप का दृढ़ अपरोक्षज्ञान पुरुष के बुद्धिगत अज्ञान का आवरण नष्ट कर देता है। आत्मा नित्य अपरोक्ष है, उसकी प्राप्ति नहीं करनी पड़ती। वह स्वयंप्रकाश है। उसमें अज्ञान आदि किसी प्रकार के विकार नहीं है। वह जन्मरहित है अर्थात् कभी किसी प्रकार भी वृत्ति में आरूढ़ नहीं होता। इसलिए अप्रमेय है। ज्ञान आदि के द्वारा उसका संस्कार भी नहीं किया जा सकता।
मनुष्यों का मन कर्म संस्कारों का पुँज है। उन संस्कारों के अनुसार भोग प्राप्त करने के लिए उसके साथ पाँच इन्द्रियाँ भी लगी हुई है। इसी का नाम है सूक्ष्म या लिंग शरीर। वही कर्मों के अनुसार एक शरीर से दूसरे शरीर में, एक लोक से दूसरे लोक में आता जाता रहता है। आत्मा इस लिंग शरीर से सर्वथा पृथक है। उसका आना जाना नहीं होता, परन्तु जब वह अपने को लिंग शरीर ही समझ बैठता है, उसी में अहंकार कर लेता है, तब उसे भी अपना आना जाना प्रतीत होने लगता है।
मन कर्मों के अधीन है, वह देखे हुए या सुने हुए विषयों का चिन्तन करने लगता है और क्षण भर में ही उनमें तदाकार हो जाता है तथा उन्हीं पूर्व चिन्तित विषयों में लीन हो जाता है। जब यह जीव किसी भी शरीर को अभेद भाव से मैं के रूप में स्वीकार कर लेता है, तब उसे ही जन्म कहते हैं, वैसे ही जैसे स्वप्नकालीन और मनोरथ कालीन शरीर में अभिमान करना ही स्वप्न और मनोरथ कहा जाता है। यह वर्तमान देह में स्थित जीव जैसे पूर्व देह का स्मरण नहीं करता, वैसे ही स्वप्न या मनोरथ में स्थित जीव भी पहले के स्वप्न और मनोरथ को स्मरण नहीं करता, प्रत्युत उस वर्तमान स्वप्न और मनोरथ में पूर्व सिद्ध होने पर भी अपने को नवीन सा ही समझता है।
काल की गति सूक्ष्म है। उसे साधरणतः देखा नहीं जा सकता। उसके द्वारा प्रतिक्षण ही शरीरों की उत्पत्ति और नाश होते रहते हैं। सूक्ष्म होने के कारण ही प्रतिक्षण होने वाले जन्म-मरण नहीं दिख पड़ते। जैसे काल के प्रभाव से दिये की लौ, नदियों के प्रवाह अथवा वृक्ष के फलों की विशेष विशेष अवस्थाएँ बदलती रहती है, वैसे ही समस्त प्राणियों के शरीरों की आयु, अवस्था आदि भी बदलती रहती है। जैसे यह उन्हीं ज्योतियों का वही दीपक है, प्रवाह का यह वही जल है - ऐसा समझना और कहना मिथ्या है, वैसे ही विषय चिन्तन में व्यर्थ आयु बिताने वाले अविवेकी पुरुषों का ऐसा कहना और समझना कि वह वही पुरुष है, सर्वथा मिथ्या है। यद्यपि वह भ्रान्त पुरुष भी अपने कर्मों के बीज द्वारा न पैदा होता है और न मरता ही है, वह भी अजन्मा और अमर ही है, फिर भी वह भ्रान्ति से वह उत्पन्न होता है और मरता सा भी है, जैसे कि काष्ठ से युक्त अग्नि पैदा होता और नष्ट होता दिखाई देता है।
जब अविवेकी जीव अपने कर्मों के अनुसार जन्म-मृत्यु के चक्र में भटकने लगता है, तब सात्विक कर्मों की आसक्ति से वह ऋषिलोक और देवलोक में, राजसिक कर्मों की आसक्ति से मनुष्य और असुर योनियों में तथा तामसी कर्मों की आसक्ति से भूत-प्रेत एवं पशु-पक्षी आदि योनियों में जाता है। जब मनुष्य किसी को नाचते गाते देखता है, तब वह स्वयं भी उसका अनुकरण करने - तान तोड़ने लगता है। वैसे ही जब जीव बुद्धि के गुणों को देखता है, तब स्वयं निष्क्रिय होने पर भी उसका अनुकरण करने के लिए बाध्य हो जाता है। जैसे नदी-तालाब आदि के जल के हिलने या चंचल होने पर उसमें प्रतिबिम्बित तट के वृक्ष भी उसके साथ हिलते-डोलते से जान पड़ते है, जैसे घुमाये जाने वाले नेत्रा के साथ साथ पृथ्वी भी घूमती हुई सी दिखायी देती है। भगवान श्रीकृष्ण भागवत के एकादश स्कंध में उद्धव जी से कहते हैं वैसे ही आत्मा का विषयानुभवरूप संसार भी सर्वथा असत्य है। आत्मा तो नित्य शुद्ध-बुद्ध मुक्त स्वभाव ही है। विषयों के सत्य न होने पर भी जो जीव विषयों का ही चिन्तन करता रहता है, उसका यह जन्म मृत्युरूप संसार चक्र कभी निवृत्त नहीं होता, जैसे स्वप्न में प्राप्त अनर्थ परम्परा जागे बिना निवृत्त नहीं होती। इसलिए इन दुष्ट कभी तृप्त ना होने वाली इन्द्रियों (शरीर) से विषयों को मत भोगो। आत्म विषयक अज्ञान से प्रतीत होने वाला सांसारिक भेदभाव भ्रममूलक ही है, ऐसा समझो। वस्तुतः आत्मदृष्टि ही समस्त विपत्तियों से बचने का एकमात्र साधन है।
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