जीव और ईश्वर – भाग
2
जीव और ईश्वर का भेद दूर करने के लिए और एकत्व का अनुभव करने के लिए हमें श्रुति की श्रण में जाना पड़ता है। तब हमें जीवात्मा का परमात्मा के साथ अभेद संबंध का विवेक होता है। ”अयमात्मा ब्रह्म” ‹यह आत्मा ब्रह्म ही है›“तत्वमसि” ‹तुम वह परमात्मा ही हो› “अहं ब्रह्मस्मि” ‹मैं ब्रह्म ही हॅू› आदि-आदि। गीता में भगवान कहते हैं कि मुझ निराकार परमात्मा से ही यह सब जगत जल से बर्फ के समान परिपूर्ण है।
‘‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना। 9/4
संसार की जो सत्ता हमें अनुभव होती है वह भी सच्चिदानंद परमेश्वर तत्व की ही है, स्वतंत्र सत्ता है ही नहीं। भगवान कहते हैं -
मनसा वचसा दृष्टया गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियैः।
अहमेव न मत्तोडन्यदिति बुध्यध्वमज्सा।। 11/13/24
मन से, वाणी से, दृष्टि से तथा अन्य इन्द्रियों से जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हॅू । अतः मेरे सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है यह सिद्धान्त हम सब को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए। विचार किजिये कि जब सब में एक ही अविभक्त सत्ता परिपूर्ण है, तो फिर उसमें मैं, तू, यह और वह - ये अलग-अलग विभाग कैसे हो सकते हैं। राग द्वेश कैसे हो सकते हैं। जिसकी सत्ता ही नहीं है, उसे मिटाने का अभ्यास भी करने की क्या आवश्यकता है।
जीव जब ईश्वर के सगुण रूप पर ध्यान करता है तब वह स्वयं को देह की दृष्टि से देखकर ईश्वर को सम्पूर्ण विश्व के कर्ता के रूप में देखता है और तब केवल भेदबुद्धि पूर्वक ही ध्यान हो सकता है क्योंकि ईश्वर की सर्वज्ञता और सर्वश्क्तिमत्ता जीव में किस प्रकार आ सकती है, अतः इस दृश्टि से जीव और ईष्वर में भेद है। इसलिए सगुण ध्यान भेद बुद्धि से ही किया जा सकता है। परन्तु यदि जीव और ईश्वर का स्वरूप हम देखें तब ज्ञात होगा कि दोनों ही चैतन्य स्वरूप हैं जो एक और अभिन्न है,
ईश्वर अंश जीव अविनाशी । चेतन, अमल, सहज, सुखरासी।। रामायण
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनः शाष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्शति।। गीता 15/7
रामायण और गीता में स्पष्ट रूप से कहा है कि जीव ईश्वर का ही अंश हैं, अतः अंश् अपने अंशी से किसी भी प्रकार से गुणों में एवं स्वभाव आदि में कैसे भिन्न हो सकता है। इसलिए इस चैतन्य स्वरूप की दृश्टि से यदि जीव, ‘‘वह ईश्वर मैं हू‘‘ ूइस प्रकार अभेद बुद्धि से ध्यान करता है तो निष्चय ही यह ध्यान पूर्व के ध्यान से उत्तम है- ऐसा श्रुति कहती है। इस अभेद भावना में ‘‘वह मैं हू‘‘ यह बुद्धि प्रयत्नपूर्वक रखनी पड़ती है। भगवान रमण महर्षि कहते हैं –
भाव शुयसद्भाव सुस्थितिः।
भावनाबलाद्भक्तिरूत्तमा।।
इस अभेद भावना के प्रभाव से भावशुन्य सत्स्वरूप में प्राप्त सम्यक स्थिति ही पराभक्ति है।
जीव और ईश्वर दोनों ही अकिंचन हैं। जीव इसलिए अकिंचन है कि उसके लिए संसार में ‘‘मेरा कुछ नहीं है‘‘ अर्थात उसका भगवान के सिवाय और किसी से संबंध नहीं है, और ईश्वर इसलिए अकिंचन है कि उनके सिवाय दूसरी कोई सत्ता नहीं हैं। गीता में भगवान कहते हैं -
मत्तः परतरं नान्यत्किच्दस्ति धनन्जय
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।। गीता 7/7
हे धनंञय मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृष मुझमें गुथा हुआ है।
भगवान शंकराचार्य जी ने तत्वबोध, नामक ग्रंथ में कहा हैः
स्थूल शरीराभिमानि जीवनात्मकं
ब्रह्मप्रतिबिम्बं भवति।
स एव जीवः प्रकृत्या
स्वस्मात् ईश्वर भिन्नत्वेन जानाति।
(सूक्ष्म शरीर में) ब्रह्म का प्रतिबिम्ब जो स्थूल शरीर का अभिमानी है उसी का नाम जीव है। यह जीव स्वभावतः ईश्वर को अपने से भिन्न समझता है। अन्तःकरण में उत्पन्न अहंवृत्ति ब्रह्म की प्रतिबिम्ब रूपा है। इसलिए वह ब्रह्म से भिन्न कुछ नहीं है। स्वयं ब्रह्म ही है। वह स्थूल शरीर से तादात्मय कर जीव कहलाता है। जीव जब अपनी उपाधियाँ त्याग दे तो वह ब्रह्म ही है। किन्तु जीव भाव में रहते हुए वह अपने को अन्य जीवों से पृथक समझता है। वह ईश्वर और अपने में भी भेद मानता है। वह ईश्वर को अपना स्वामी और अपने कर्मो का फलदाता स्वीकार करता है। अतः हमारा आत्मतत्व ही जीव और ईश्वर है, केवल अविद्या की उपाधि से घिरा होने के कारण जीव और माया की उपाधि से
ईश्वर कहलाता है। लेकिन जब विवेक उत्पन्न होता है और अज्ञान समाप्त हो जाता है, तब यह उपाधि भेद समाप्त हो जाता है। तब जीव को अपना शुद्ध आत्मा का स्वरूप प्राप्त हो जाता है और जन्म मरण रूपी संसार छूट जाता है। हम सबको ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे अज्ञान नष्ट हो जाये और सर्वत्र व्याप्त आत्मा का अपरोक्ष अनुभव हो। नानात्व का भ्रम समाप्त हो जाये, तभी मुक्ति प्राप्त होगी। गीता में भगवान कहते हैं-
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देषेऽर्जुन तिश्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। गीता 18/61 महेश्वर
हे अर्जुन, शरीर रूप यन्त्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मो के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है। जब तक जीव अपने आत्मतत्व रूपी ईश्वर की शरण में नहीं जाता तब तक वह अशान्त, दुखी एवं जन्म मरण रूपी संसार में अनेक जन्मों तक भटकता रहता है। लेकिन जैसे ही वह उस परमात्मा की शरण में जाता है तब उसकी कृपा से परम शांति को तथा सनातन परमधाम को प्राप्त हो जाता है। हमारे शरीर में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है। वही साक्षी होने से उपदृश्टा और यर्थाथ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीव रूप से भोक्ता, ब्रह्मा आदि का भी स्वामी होने के कारण महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानंद होने से परमात्मा कहा गया है। गीता में इसी ज्ञान को भगवान गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान कहते हैं।
उपद्रश्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वर: ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरूषः परः।। गीता 13/22
यह मनुष्य जीवन बहुत ही दुर्लभ है, हम सभी के पूर्वजन्मार्जित अनेकों पुण्यकर्मो को निमित्त बनाकर परमकृपालु परमात्मा ने हमारे कल्याण सम्पादन के लिए यह शरीर प्रदान किया है और फिर हमारे साथ ही स्वयं भी हमारे हृदय में अन्तर्यामी रूप से हमारे शरीर में ही निवास करते हैं। परन्तु हम अपने स्वरूप (परमात्मा) से बिछुड़ गये हैं, सुख की खोज में इधर-उधर भटकते रहते हैं लेकिन अंत में धोखा ही मिलता है, इसलिए हमें अपने सच्चिदानंद स्वरूप में स्थित होना है, जिससे असीम शान्ति की प्राप्ति हो सके और जन्म मरण से भी मुक्ति मिल सके। कब तक इसी तरह से भटकते रहेगें, अपने आपको पहचानिये, अभी भी समय है, मृत्यु आने से पहले अपने आप में स्थित होने का प्रयास तो शुरू कीजिए, उसमें जो आपको एक परमानन्द की अनुभूति होगी उसका आप वर्णन नहीं कर पायेगें, उसमें हमेशा- हमेशा के लिए स्थित हो जायेगें, सब कुछ करते ही, सब कुछ छूट जायेगा।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावष्श्यिते।।
ऊॅं शान्तिः शान्तिः शान्तिः
डा बी के शर्मा
11/440, वसुन्धरा (गाजियाबाद)
9811666162
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