Thursday, October 1, 2015





स्थित प्रज्ञ

हमारे मन में हर पल अनेक विचार आते रहते है, यह सिलसिला अनवरत रूप से जन्म से मृत्यु तक चलता रहता है, मन में आने वाली कुछ इच्छाओं या वासनाओं को ज्यों ही हम अपनी प्रसन्नता के लिए पूरी करते है तभी अन्य इच्छाये उत्पन्न हो जाती हैः अर्थात यदि हम अपने मन के आने वाली इच्छाओं को पूरा करने में लगते हैं तब कभी भी यह समाप्त नहीं हो सकती है। और हम हमेशा के लिए प्रसन्न नहीं रह जाते हैं। अतः मन में आने वाले इच्छाओं को पूरा करने की प्रक्रिया को शुरू करने से पहले हमें अपने विवेक से उसका विश्लेषण करना चाहिए, कि इसका उद्देश्य क्या हमारी आत्मा की उन्नति के लिए हैं या अवनति के लिए एक वासना को पूरा कर रहें हैं, तब कुछ समय के पश्चात हमें लगता है कि समुद्र में अनेको तरंगों की भांति यह अपने आप आकर चली जायेंगी, हम कभी-कभी इनसे अलग होकर एक दृष्टा बनकर रह सकते हैं। भगवान ने गीता में कहें हैं-

            शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, प्रतिष्ठा आदि अनुकूल पदार्थो के हमेशा बने रहने की ओर प्रतिकूल पदार्थो के नष्ठ हो जाने की मन में जो कामना है उसे वासना कहते हैं। अतः वासना का स्थान मन है, अतः बुद्धि के द्वारा उसने मन का (चित्त) हमेशा निरीक्षण और विश्लेषण करते रहना चाहिए। दुर्गा सप्तसती के प्रथम श्लोक में ही देवी ने कहा हैः-

                        ऊॅ ज्ञानिनामणि चेतांसि देवी भगवती हि सा।
                        नलादाकृष्ण मोहाप महामापा प्रपच्हति ।।
           
वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खीचकर मोह में डाल देती है। अतः ईश्वर की माया बड़े से बड़े ज्ञानियों के मन में भी जब मोह पैदा कर देती है तब साधारण मनुष्य के विषय में कहना ही कठिन है। आजकल के समय में तो हम देख भी रहे है कि कितने महापुरूष भी समाज को रास्ता दिखाने के स्थान पर स्वंय ही माया के वशीभूत  होकर भटक गये हैं। गीता में भगवान कहते हैं कि ’’मेरी माया बड़ी ही दुस्तर है’’

अतः जब भगवान ने इसको मेरी माया ’’कहा है तब उनकी शरण में गये बिना इससे दूर होना स्वंय मनुष्य के वश में नहीं है। हमें संसार के एवं परिवार के अपने सभी दायित्वों को पूरी तरह से निर्वाह करते हुए मन और बुद्धि से ईश्वर को शरण में रहना चाहिए अर्थात् अपने को वासनाओं, राग एवं द्वेष से मुक्त रखने की दिशा में प्रयत्न करते रहने चाहिए।  

            अतः हमें अपने चित्त को उस परमतत्व में स्थित रखना चाहिए, जो कि हमारे ही अंदर आत्मा रूप से स्थित हैं, मुण्डकोपनिषद् में आता है कि शौनक ऋषि जो बड़े भारी विश्वविद्यालयके अधिष्ठाता थे, पुराणों के अनुसार उनके ऋषिकुल में अद्वासी हजार ऋषि रहते थे, और अत्यन्त विनयपूर्वक महर्षि से पूछा-भगवान! जिसको भी भांति जाने लेने पर यह जो कुछ देखने, सुनने और अनुमान करने में आता है, सब का सब जान लिया जाता है वह परमतत्व क्या है! कृपया बतलाइये कि उसे कैसे जाना जाये? तब महर्षि ने कहा कि मनुष्य के लिए जानने योग्य दो रिधायें हैं- एक तो परा और दूसरी अपरा। जिसके द्वारा इस लोक और परलोक संबंधी भोगों और उनकी प्राप्ति के साधनों का ज्ञान प्राप्त किया जाता है, वह तो अपरा विद्या है और जिसके द्वारा परब्रह्म अविनाशी परमात्मा का तत्वज्ञान होता है वह परा विद्या है। अतः उन सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सवके कत्र्ता-धर्ता परमेश्वर को जान लेने पर सब कुछ ज्ञात हो जाता है।

            हमें प्रत्येक स्थिति, मान, अपमान, हर्ष-शोक, सुख-दुःख, हानि-लाभ, राग-द्वेष, जीवन-मरण, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति, शुभ-अशुभ आदि में सम भाव में स्थिर रहते रहने का अभ्यास करते रहने चाहिए, ताकि, हमारी बुद्धि स्थिर रहे और विषयों में अनासक्ति द्वारा इस संसार को यात्रा को पूरा करने का प्रयास करते हैं। जिस पुरूष की इन्द्रियां वश में होती हैं, उसी को बुद्धि स्थिर होती है। अपनी स्थिति का हम समय ज्ञान करते रहें और उस परमतत्व को जानने एवं उसमें स्थित रहने का प्रयास करें जिसको जानने के पश्चात और कुछ भी जानने की आवश्यकता नहीं है।

डा बी के शर्मा
11/440, वसुन्धरा (गाजियाबाद)

9811666162

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