कर्तव्य-कर्म
श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत के युद्ध के शुरू
होने से पूर्व
युद्ध के मैदान
में कौरवों एवं
पाण्डवों की सेनाओं
के मध्य में,
हम सभी मनुष्य
जाति के हित
के लिए एक
दिशा दिखाने हेतु
अर्जुन को माध्यम
बनाकर भगवान श्री
कृष्ण के मुख
से उजागर हुई
है। इसका आरम्भ
विषाद योग से
हुआ है, और
समापन मोक्ष सन्यास
योग से हुआ
है। यदि हम
सभी आज अपने
विषय में विचार
करें, तब हम
किसी न किसी
विषाद से ही
समय-समय पर
ग्रसित होते रहते
हैं, और उससे
दूर होने का
ही विचार करते
हैं, कि जल्दी
से जल्दी अपने
दुःख,शोक और
विषाद से दूर
हो सके ।
इसी का उपाय
हमें श्रीमद्भगवद्गीता की शरण
में जाने पर
मिलता है। जैसे
हम जब कोई
वस्तु या उपकरण
बाजार से खरीदते
हैं तब उसके
साथ एक छोटी
सी पुस्तिका भी
मिलती है जिसे
पढ़कर हम उसका
ठीक से उपयोग
करना शुरू करते
हैं और समय
के साथ-साथ
हम उसमें कुशल
हो जाते हैं।
ठीक उसी प्रकार
हमें अपनी जीवन
शैली को सुचारू
रूप से चलाने
हेतु एवं अपने
विषाद से दूर
होने के लिए
एवं सभी अपने
नियत कर्मो को
इस संसार में
भली-भॉंति करते हुए
मोक्ष प्राप्ति के
लिए ईश्वर ने
हम पर कृपा
करके श्रीमदभगवद्गीता को हमारे
लिए इस कलयुग
के शुरू होने के पूर्व ही हमें
प्रदान कर दी
थी। बस केवल
इसमें कहे गये
भगवान के दिशा-निर्देशों को अपने
दैनिक व्यवहार में
पालन करना हैं।
भगवद्पाद् आचार्य शंकराचार्य जी
भजगोविंदम् में कहते
हैं किः-
भगवत्गीता किंचिदधीता, गंगाजललवकंणिका पीता ।
सकृदपि येन मुरारिसमर्चा, क्रियते तस्य यमेन न चर्चा ।।
(भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम्.........।)
जिसने भगवद्गीता का
थोडा-सा भी
अध्ययन कर लिया,
जिसने गंगाजल का
एक बूद भी
पी लिया, जिसने
एक बार भी
मुरारि की भली भॉंति पूजा कर
ली, उसके पास
यमराज कभी नहीं
आते।
भगवद्गीता उपनिषदों का
सारांश है। उस
गीता रूप गंगा
जल को पी
लेने पर पुनः
इस संसार में
जन्म नहीं लेना
पडता। भगवद्गीता में
बताया गया है
कि मनुष्य के
दैनिक जीवन में
उपनिषद के सिद्धांतों का कैसे
प्रयोग किया जाए।
बुद्धिमानी के साथ
गीता के अध्ययन
से हमारे जीवन
तथा वाह्य जगत
की घटनाओं के
प्रति हमारे बौद्धिकदृष्टिकोण
का उचित ढंग
से पुनर्निर्माण होता
है। केवल अध्ययन
से ही हमें
आत्मज्ञान नहीं मिल
सकता, बल्कि हमें
उसको अपने जीवन
में पालन करना
पडेगा। दार्शनिक विचारों को
जीवन में उतारने
की कला ही
सभी धर्मो का
सार है। गीता
में भगवान श्री
कृष्ण कहते हैं
:-
न हि कश्चित्क्षणमपि जापि तिष्ठत्यकर्मकृत्
कार्यते हृवश: कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणै।। (गीता 3/5)
निःसन्देह कोई भी
मनुष्य किसी भी
काल में क्षणमात्र
भी बिना कर्म
किये नहीं रहता,
क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय
प्रकृति जनित गुणों
द्वारा परवश हुआ
कर्म करने के
लिये बाध्य किया
जाता है। हम
सभी जन्म
से मृत्युपर्यन्त कर्म
करते हैं, लेकिन
उनमें आसक्ति, राग,द्धेष और
फल की इच्छा
आदि होने के
कारण हम उनसे
बंध जाते हैं,
और उनका फल
प्राप्त करने हेतु
बार-बार इस
संसार चक्र में
भ्रमण करते हुए
अनेकों योनियों में आते-जाते रहते
हैं।
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो हृाचरनकर्म परमान्पोति पूरूषः।। (गीता 3/19)
इसलिए तू निरन्तर
आसक्ति से रहित
होकर सदा कर्तव्य
कर्म को भली-भॉंति करता
रहे। क्योंकि आसक्ति
से रहित होकर
कर्म करता हुआ
मनुष्य परमात्मा को प्राप्त
हो जाता है।
अतः हमें अपने
दैनिक जीवन में
प्रत्येक कार्य आसक्ति रहित
रहते हुए, बिना
राग, द्धेष एवं फल की
इच्छा से अलग
होकर केवल ईश्वर
द्धारा दिए गये
अपने दायित्व को
पूर्ण रूप से
निभाते हुए करना
चाहिए। गीता में
भगवान कहते हैं
कि जो पूरूष
कर्म फल का
आश्रय न लेकर
करने योग्य कर्म
करता है वह
सन्यासी तथा योगी
है और केवल
अग्नि का त्याग
करने वाला सन्यासी
नहीं है तथा
केवल क्रियाओं का
त्याग करने वाला
योगी नहीं है।
हम प्रायः मनुष्यों
के स्वभाव एवं
आचरण और कार्य
करने की पद्धति
के अनुसार कुछ
को बहुत अच्छी श्रेणी
में लाने के
लिए अपने अंदर
झॉकना होगा। अपने
अंदर मौजूद आसूरी
प्रवृति को दूर
करने हेतु, सात्विक
कार्यों को लगातार
करते रहना चाहिए।
लगातार
संसार की तरफ
देखते रहने के
स्थान पर अपने
अंदर मौजूद दुर्गुणों
का अवलोकन करते
रहना चाहिए और
प्रत्येक कार्य को मन,वाणी और
शरीर से करते
हुए ऐसा प्रयत्न
करना चाहिए कि
इससे किसी प्रकार
का किसी को
कष्ट न हों।
गीता में भगवान
कहते हैं कि
:-
यस्य नाहन्कृतो भावोंबुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स
इमॉंल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ।। (गीता 18/17)
जिस पुरूष
के अन्तःकरण में
मैं कर्ता हॅू ऐसा
भाव नहीं है
तथा जिसकी बुद्धि
सांसारिक पदार्थो में और
कर्मो में लिप्त नहीं
होती, वह पुरूष
इन सब लोकों
को मारकर भी
वास्तव में न
तो मारता है
और न पाप
से बॅंधता है।
कठोपनिषद में यमराज,
नचिकेता से कहते
हैं कि़:-
ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके,गुहां प्रविष्र्टा परमे परार्धे ।
छायातपौ ब्रहमविदो वदन्ति,पंचाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः ।।
यमराज ने यहा
जीवात्मा और परमात्मा
के नित्य सम्बन्ध
का परिचय देते
हुए कहा कि
ब्रहमवेत्ता ज्ञानी महानुभाव
तथा यज्ञादि शुभ
कर्मो का अनुष्ठान
करने वाले आस्तिक
सज्जन -सभी एक
स्वर से यही
करते है कि
यह मनुष्य-शरीर
बहुत ही दुर्लभ
है। पूर्वजन्मार्जित अनेको
पुण्यकर्मो को निमित्त
बनाकर परम कृपालु
परमात्मा कृपापरवश हो जीव
को उसके कल्याण
सम्पादन के लिये
यह श्रेष्ठ शरीर
प्रदान करते हैं
और फिर उस
जीवात्मा के साथ
ही स्वयं भी
उसी के हृदय
के अन्तस्तल में
-परब्रम्ह के निवास
स्वरूप श्रेष्ठ स्थान में
अन्तर्यामी रूप से
प्रविष्ट हो रहते
हैं इतना ही
नहीं, वे दोनों
साथ ही साथ
वहॉं सत्य का
पालन करते हैं-शुभ कर्मो
के अवश्यम्भावी सत्फल
का भोग करते
हैं। अवश्य ही
दोनों के भोग
में बडा अन्तर
है। उनका प्रत्येक
प्राणी के हृदय
में निवास करके
उसके शुभ कर्मो
के फल का
उपभोग करना उनकी
वैसी ही लीला
है, जैसी अजन्मा
होकर जन्म ग्रहण
करना। इसलिये यह
कहा जाता है
कि वे भोगते
हुए भी शुभ
-कर्म का फल
भुगताते हैं और
जीवात्मा पीता है।
फल भोगता है
। परंतु जीवात्मा
फलभोग के समय
असंग नहीं रहता।
वह अभिमानवश उसमें
सुख का उपभोग
करता है। इस
प्रकार साथ रहने
पर भी जीवात्मा
और परमात्मा दोनों
छाया और धूप
की भाँति परस्पर
भिन्न है। जीवात्मा
छाया की भॉंति
अल्प प्रकाश-अल्पज्ञ
है और परमात्मा
घूप की भॉति
पूर्ण प्रकाश-सर्वज्ञ।
परंतु जीवात्मा में
जो कुछ अल्पज्ञान
है, वह भी
परमात्मा का ही
है, जैसे छाया
में अल्प -प्रकाश
पूर्णप्रकाशरूप घूप का
ही होता है।
इस रहस्य
को समझकर मनुष्य
को अपने में
किसी प्रकार की
भी शक्ति सामर्थ्य एवं कर्तापन
का अभिमान नहीं
करना चाहिये और
अन्तर्यामी रूप से
सदा-सर्वदा अपने
हृदय में रहने
वाले परम आत्मीय
परम कृपालु परमात्मा
का नित्य-निरन्तर
चिन्तन करते हुए
अपना कर्तव्य कर्म
करते रहना चाहिए।
(डा बी के शर्मा)
11/440, वसुन्धरा, गजियाबाद
No comments:
Post a Comment