Tuesday, April 19, 2016

परमात्मतत्व

               दुर्लभ मनुष्य शरीर के प्राप्त होने पर हमें सर्वदा परमात्मतत्व को जानने की जिज्ञासा रहती है, जैसे की पुत्र को जन्म से ही यदि अपने पिता के दर्शन न हो तब उसे हमेशा यही चाह होती है, कि मेरे पिता कैसे होंगे, कौन होंगे और वह उनसे हमेशा मिलना चाहेगा। मनुष्य जो कि विवेक प्रधान होने के कारण जानता है कि हम परमात्मा के अॅंश हैं, इसलिए वह हमेशा परमात्मतत्व की खोज में लगा रहता है लेकिन हमें संसार तो प्रत्यक्ष रूप से दीखता है और परमात्मा को केवल मानते हैं प्रत्यक्ष रूप से दर्शन नहीं होते। शास्त्र कहते हैं कि संसार में परमात्मा है और परमात्मा में संसार है। साधक की साधना में जब तक संसार की मुख्यता रहती है, तब तक परमात्मा की मान्यता गौण रहती है, साधन करते-करते ज्यों-ज्यों परमात्मा की मान्यता मुख्य होती चली जाती है, त्यों ही त्यों संसार की मान्यता गौण हो जाती हैं। फिर यह भाव होता है कि संसार पहले नहीं था, प्रत्येक क्षण परिवर्तित हो रहा है और फिर बाद में भी नहीं रहेगा, बहुत से शहर नष्ट होते हुए देखें हैं, जैसे कि समय-समय पर खुदाई में अनेक तरह से प्राचीन सभ्यताओं का ज्ञान होता है। मनुष्य को अपना शरीर बचपन से जवानी, फिर बुढ़ापा में बदलते हुए दीखता है, यह भी प्रतिदिन बदलते हुए समाप्ति की दिशा में चलते जा रहा है। इसलिए हमें अपने आप को जानने का प्रयास करते हुए ही उस परमतत्व के विषय में जानना चाहिए जो कि हमारे इस जन्म का एक प्रमुख उद्देश्य है।

                 अज्ञान के कारण ही हम अपने वास्तविक स्वरूप को ही अपना शरीर मानकर विषय भोगो में सच्चा सुख मानने लगते हैं तथा उसी में मोहित हो जाते हैं इसी से हमे जन्म मृत्यु रूप संसार में भटकना पड़ता है। जब अविवेकी जीव अपने कर्मो के अनुसार जन्म-मृत्यु के चक्र में भटकने लगता है, तब सात्विक कर्मो की आसक्ति से वह ऋषि लोक और देव लोक में, राजसिक कर्मो की आसक्ति से मनुष्य और असुर योनी में तथा तामसी कर्मो की आसक्ति से भूत-प्रेत एवं पशु-पक्षी आदि योनियों में जाता है। जब जीव बुद्धि के गुणों को देखता है तब स्वयं निष्क्रिय होने पर भी उसका अनुकरण करने के लिए बाध्य हो जाता है। आत्मा तो  नित्य शुद्ध-बुद्ध मुक्त स्वरूप ही है। विषयों के सत्य न होने पर भी जो जीव विषयों का ही चिन्तन करता रहता हैं, उसका यह जन्म मृत्यु रूप संसार चक्र कभी निवृत नहीं होता, जैसे स्वप्न में प्राप्त अनर्थ परंपरा जागे बिना निवृत्त नहीं होती। वस्तुतः आत्म दृष्टि ही समस्त विपत्तियों से बचने का एकमात्र साधन है। (आत्मनाअत्मानमुद्वरेत)

               श्रीमद्धभागवत् महापुराण के एकादश स्कन्ध में भगवान श्री कृष्ण देवगुरू बृहस्पति के शिष्य उद्धव जी से कहते है कि चोरी, हिंसा, झूठ बोलना, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, अहंकार, भेदबुद्धि, बैर, अविश्वास, स्पर्धाजुआ और शराब ये पंद्रह अनर्थ मनुष्यों में धन के कारण ही माने गये हैं। इसलिए कल्याणकारी पुरूष को चाहिए कि स्वार्थ एवं परमार्थ के विरोधी अर्थनामधारी अनर्थ को दूर से ही छोड़ दें। देवताओं के भी प्रार्थनीय मनुष्य जन्म  को प्राप्त करके जो अपने सच्चे स्वार्थ-परमार्थ का नाश करते हैं वे अशुभ गति को प्राप्त करते हैं ।

                 दान, अपने धर्म का पालन, नियम, यम, वेदाध्ययन, सत्कर्म और ब्रह्मचर्यादि श्रेष्ठ व्रत-इन सबका अन्तिम फल यही है कि मन एकाग्र हो जाए, भगवान में लग जाये, मन का समाहित हो जाना ही परम योग है। जिसका मन शांत और समाहित हो उसे दान आदि समस्त सत्कर्मो का फल प्राप्त हो चुका है। और जिसका मन चंचल है अथवा आलस्य से अभिभूत हो रहा है, उसका इस दानादि शुभ कर्मो से अब तक कोई लाभ नहीं हुआ। भगवान श्री कृष्ण  उद्धव जी से कहते हैं कि इस संसार में मनुष्य को कोई दूसरा सुख या दुख नहीं देता, यह तो उसके चित्त का भ्रममात्र है। यह सारा संसार और इसके भीतर मित्र, उदासीन और शत्रु के भेद अज्ञानकल्पित है। इसलिए अपनी वृत्तियों को अपने स्वरूप में तन्मय कर दो और फिर उपनी सारी शक्ति लगाकर मन को वश में कर लो और फिर अपने स्वरूप में ही नित्यमुक्त होकर स्थित हो जाओ। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं-योगिन

                                यतन्तो योगिनश्‍चैनं  पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
                                यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ।। (गीता 15/11)

                 यत्न करने वाले योगी लोग अपने आप में स्थित इस परमात्मतत्व का अनुभव करते हैं । परंतु जिन्होंने अपना अन्तःकरण शुद्ध नहीं किया है ऐसे अविवेकी मनुष्य यत्न करने पर भी इस तत्व का अनुभव नहीं करते।  अपने आप में स्थित तत्व का अनुभव अपने आप से ही हो सकता है, इन्द्रियां, मन, बुद्धि आदि से नहीं। अपने आप में स्थित तत्व का अनुभव करने के लिए किसी दूसरे की सहायता लेने की जरूरत भी नहीं हैं। प्रकृति के कार्य से उस तत्व को कैसे जाना जा सकता है जो प्रकृति से अतीत हैअतः प्रकृति के कार्य का त्याग ( सम्बन्ध विच्छेद) करने पर ही तत्व की प्राप्ति होती है और व अपने आप में ही होती है। परमात्मतत्व जड़ पदार्थो की सहायता से नहीं प्रत्युत जड़ता के त्याग से मिलता है। यह भी देखा गया है कि ध्यान, स्वाध्याय, जप  आदि करने पर भी हमें उस परम तत्व का अनुभव नहीं हो पाता। उसका कारण है कि हमारे अन्तःकरण  में  जड़ता  (सांसारिक भोग और संग्रह)  का अभी भी महत्व है। यद्धपि हमारा यह प्रयास भी निष्फल नहीं जाता, तथापि वर्तमान में परम तत्व का अनुभव नहीं हो पाता।  वर्तमान में परमात्मतत्व का अनुभव होने के लिए जड़ता का सर्वथा त्याग होना आवश्यक है। हमारा शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियां आदि प्रकृति का हिस्सा होने से जड़ पदार्थ है और हमारा स्वरूप (जीव) नित्य है। अतः जैसे ही हम जड़ पदार्थ से दूर होते हैं तब स्वयं ही बिना प्रयास के उस तत्व में जो कि नित्य है, विलीन हो जाते हैं। ब्रह्म में किसी प्रकार का विकल्प नहीं है, वह केवल- अद्धितीय सत्य है, वह ब्रह्म ही माया और उसमें प्रतिविम्बित जीव के रूप में- दृश्य ओर दृष्टा के रूप में -दो भागों में विभक्त सा हो गया। उनमें से एक वस्तु को प्रकृति (जड़) कहतें हैं, दूसरी वस्तु को, जो ज्ञानस्वरूप है, पुरूष (चेतन) कहते हैं।   भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं-

                                                ममैवांशों जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
                                                मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।। (गीता 15/7)

                 इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है, परन्तु वह प्रकृति में स्थित मन और पाचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है (अपना मान लेता है)। अतः आत्मा परमात्मा का ही अंश है, परन्तु प्रकृति के कार्य शरीर, इन्द्रियां प्राण, मन आदि के साथ अपना संबंध बना लेने के कारण जीव हो गया है-हमारा यह जीवपना वास्तविक नहीं है, यह तो नाटक के पात्र की तरह ही हम अपनी भूमिका निभा रहें है, परन्तु वास्तव में हमे ज्ञान रहना चाहिए कि हम कौन हैं, और हमारा स्वरूप क्या है। भगवान स्वंय कहते हैं कि यह जीव तो मेरा ही अंश है (ममैवांशो), इसमें प्रकृति का कुछ भी अंश नहीं है। यह शरीरादि जड़ पदार्थो के साथ मिलकर अपने असली चेतन-स्वरूप को भूल गया है। बस उसका केवल बोध करना है। इस शरीर के द्धारा अपने नियत कर्तब्य का, राग और द्धेष से रहित होकर निष्काम भाव से पालन करना है और ध्यान रखना है कि भगवान की इस व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में हम केवल निमित्त मात्र होकर अपना योगदान कर रहे हैं, इसमें कर्ता भाव का जरा सा भी अहंकार नहीं होना चाहिए, हमारे पूर्व भी यह संसार चल रहा था, बाद में भी चलता रहेगा, तब हम वर्तमान में यह सोचकर क्यों अहंकार करते हैं कि इस व्यवस्था को केवल हम ही चला रहें है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि पहले भगवान का होकर फिर नाम जप आदि करें तब अनेक जन्मों की बिगड़ी स्थिति आज अभी सुधर सकती है-
                                बिगरी जन्म अनेक की सुधरै अबही आज।
                                होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु।। ( दोहावली 22)

                              राम! राम!! राम!!! 

(डा.बी.के.शर्मा)

11440, वसुन्धरा

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