Thursday, April 7, 2016

भक्ति मार्ग
प्रायः हमारी यह धारणा रहती है कि आत्मतत्व को जानना और परमात्मतत्व की प्राप्ति बहुत कठिन है। इसके लिए हम थोड़ा सा प्रयास करके फिर छोड़ देते हैं और संसार की तरफ मुड़कर उसी में आसक्त होकर अपना जीवनयापन करते हुए संसार से विदा ले लेते हैं।  भगवान श्रीकृष्ण ने भी इस ओर हमारा ध्यान दिलाते हुए कहा है-

            मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये
            सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः।। (गीता 7/3)

हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्व से अर्थात् यथार्थ रूप से जानता है।

मनुष्य योनि बहत ही दुर्लभ है, भगवान की असीम कृपा से और हमारे अनेकों जन्मों के अर्जित पुण्यों से हमें मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ है। मनुष्य को भगवत प्राप्ति के लिए साधन करने का जन्मसिद्ध अधिकार है। जाति, धर्म, वर्ण, आश्रम और देश की विभिन्नता का कोई भी इसमें प्रतिबन्ध नहीं है। मनुष्य के अतिरिक्त जितनी भी  योनियॉ हैं वह अधिकांश भोग योनियॉ हैं उनमें नवीन कर्म करने का अधिकार नहीं है अतएव प्राणी उनमें भगवत प्राप्ति के लिए साधन नहीं कर पाता। देवादि योनियों में शक्ति होने पर भी वे भोगों की अधिकता और खास करके अधिकार न होने से साधन नहीं कर पाते। मनुष्य शरीर प्राप्त होने पर भी जन्म जन्मान्तरों के संस्कारों से भोगों में अत्यन्त आसक्ति और भगवान में श्रद्धा, प्रेम का अभाव या कमी रहने के कारण अधिकांश मनुष्य तो इस ओर विचार ही नहीं कर पाते। जिनके पूर्वसंस्कार शुभ होते हैं और जिनकी भगवान, महापुरूष और शास्त्रों में श्रद्धा भक्ति होती है, ऐसे हजारों मनुष्यों में कोई बिरला ही उस दिशा में प्रयत्न करते हैं। राम चरित मानस के उत्तर काण्ड में कहा गया है-

            मम माया संभव संसारा। जीव चराचर विविध प्रकारा।
            सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सबते अधिक मनुज मोहि भाए।।

यह सारा संसार मेरी माया से उत्पन्न है। इसमें अनेकों प्रकार के चराचर जीव हैं, वे सभी मुझे प्रिय हैं, क्योंकि सभी मेरे उत्पन्न किए हुए हैं। किंतु मनुष्य मुझको सबसे अधिक अच्छे लगते हैं।

नर तन सम नहिं कवनिउ देहीं। जीव चराचर जाचत तेही।।
            नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी। ग्यान विराग भगति सुभ देनी।।

मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। यह मनुष्य शरीर नरक स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है।

कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक आधार राम गुन गाना।।
सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि।।
भव तर कहु संसय नाही। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं।।
कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहीं पापा।।
कलिजुग सम जुग आन नहिं जो नर कर विस्वास।
राम गुन गन विमल भव तर बिनहिं प्रयास।। (रामचरितमानस)


कलियुग में न तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है। श्रीराम जी का गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतःएव सारे भरोसे त्यागकर जो श्रीराम जी को भजता है और प्रेम सहित उनके गुण समूहों को गाता है। वही भव सागर से तर जाता है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं। नाम का प्रताप कलियुग में प्रत्यक्ष है। कलियुग की एक पवित्र महिमा है कि मानसिक पुण्य तो होते हैं पर पाप नहीं होते। यदि मनुष्य विश्वास करे तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है क्योंकि इस युग में श्रीराम जी के निर्मल गुण समूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम के तर जाता है। श्रुति पुरान  सब  ग्रंथ कहाहीं, रघुपति भगति बिना सुख नाहीं ।। अर्थात् श्रुति पुराण और सभी ग्रथ कहते हैं कि रघुनाथ जी की भक्ति के बिना सुख नहीं है।

राम रहस्योपनिषद में वर्णन मिलता है कि जब सनकादिक तथा अन्य ऋषियों ने हनुमान जी से पूछा कि अट्ठारह पुराणो, स्मृतियों, चारों वेदों तथा छहों शास्त्रों और अध्यात्म विद्या के ग्रंथों में किस तत्व का उपदेश हुआ है तब हनुमान जी ने कहा:

 राम एव परं ब्रहम्, राम एव परं तपः।
 एवं परं तत्व श्रीरामों ब्रह्मतारकम्।।

अर्थात् श्रीराम ही परम ब्रह्म हैं श्रीराम ही परम तपस्वरूप हैं, श्रीराम ही परम तत्व हैं और श्रीराम ही तारक ब्रह्म हैं।

श्री महादेव जी पार्वती जी से कहते हैं: हे सुमुखि! रामनाम विष्णु सहस्त्रनाम् के तुल्य है। मै सर्वदा राम राम रामइस प्रकार मैं मनोरम राम-नाम में ही रमण करता हॅू।

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे। 
सहस्त्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने।। (रामरक्षास्त्रोत)

श्री भगन्नाम-कीर्तन की महिमा के बारे में नारदपुराण में आता है कि जो लोग प्रतिदिन हरे! केशव! गोविन्द! वासुदेव! जगन्मय! इस प्रकार कीर्तन करते हैं उन्हें कलियुग बाधा नही पहुंचाता।

             हरे केशव गोविन्द वासुदेव जगन्मय।
             इतीरयन्ति ये नित्यं न हि तान्बाधते कलिः।।

राम चरित मानस में आता है कि जल को मथने से भले ही घी उत्पन्न हो जाए और बालू को पेरने से भले ही तेल निकल आये, परंतु श्री हरि के भजन बिना संसार रूपी समुंद्र से नहीं तरा जा सकता, यह सिद्धांत अटल है। अतः हम जो भी मन्त्र का जप करते हैं या भगवान का जो भी नाम लेते हैं उसमें हमारी पूरी श्रद्धा और पूर्ण विश्वास का होना भी अत्यंत ही जरूरी है। जैसे बीज के अंदर बृक्ष है, तिल के अंदर तेल है, दूध के अंदर घी है पर वह दीखते नहीं हैं, हमारे द्धारा उपयुक्त विधि का पालन एवं प्रयास करने के बाद हम उनका प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं उसी प्रकार भगवान के नाम के अंदर भगवान के सारे गुण हैं पर दिखते नहीं। अतः जो नाम का जप रूप बीज है, उसे यदि हम अपने हृदयरूपी भूमि में बोकर ध्यानरूपी जल से नित्यप्रति पूरी श्रद्धा और विश्वास से सींचते रहें तब भगवान के क्षमा, दया, समता, संतोष, शान्ति, सत्य, सरलता, प्रेम, ज्ञान, वैराग्य आदि समस्त गुण हमारे अंदर  अंकुरित होकर विकसित हो जाते हैं, जिससे हम भगवान को प्राप्त हो जाते हैं। गीता में भगवान कहते हैं किः-

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते में युक्तमा मताः।। (गीता 12/2)

मुझमें मन को एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुण रूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं।

भगवन्नाम के जप के प्रभाव से हमारे अंदर के सभी दुर्गुण, दुराचार, आलस्य, दुर्व्‍यसन आदि विकारों का नाश हो जाता है और भगवान के प्रिय हो जाते हैं। गीता में भगवान कहते है-

अद्धेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करूण एव च।
निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी।।
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मभ्दक्तः स में प्रियः।। (गीता 12/13)

जो पुरूष सब भूतों में द्धेष भाव से रहित, स्वार्थ-रहित सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहॅकार से रहित, सुख-दुःखो की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है, तथा जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए है और मुझमें दृ़ढ़ निश्चय वाला है- वह मुझमें अर्पण किये हुए मन बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।

हमें नाम जप और हरि भजन के साथ-साथ अपने दुर्गुणो पर भी ध्यान देते हुए उन्हे दूर करते रहने का प्रयास लगातार करते रहना चाहिए। कई बार हम देखतें हैं कि हम मन में किसी अन्य के विषय में सोचते कुछ हैं, बोलते कुछ हैं और करते कुछ हैं अतः हमारे मन, बचन और कर्म में सामंजस्य नहीं हो पाता। यदि हम सभी में एक ही आत्मा जो कि परमात्मा का ही अंश हैं का विचार करते हैं तब सिया राम मैं सब जग जानी के सिद्धांत को मानते हुए भेद-भाव और राग-द्धेष का प्रश्न ही कहां आता है। शास्त्रों के अध्ययन, हरिभजन, नाम जप आदि के द्धारा अपने मन को अपनी ही आत्मा में विलीन करते हुए, परम आनन्द में स्थित होकर, कामना रहित, जीवन यापन करने का प्रयास करते हुए इस संसार से आनन्द सहित विदा लेनी चाहिए।  

                        राम! राम!! राम!!!  

डा.बी.के.शर्मा

11/440,वसुन्धरा

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