हम सब यह जानते हैं कि बिना बीज के कोई चीज पैदा नहीं होती। बीज से ही बीज पैदा होता है और बीज से ही फल उत्पन्न होता है। किसान खेत में जाकर जैसा बीज बो आता है, उसी के अनुसार उसे फल मिलता है। गीता में हमारे शरीर को क्षेत्र कहा गया है और इसको जो जानता है उसका नाम क्षेत्रज्ञ दिया गया है। जैसे खेत में बोये हुए बीजों का उनके अनुरूप फल समय पर प्रकट होता है, उसी प्रकार मन, वाणी और शरीर से किए गए कर्मों के संस्कार रूप बीजों का अच्छा, बुरा या मिला-जुला फल समय पर प्रकट हो जाता है। इसलिए शरीर को क्षेत्र कहा गया है।
हमें प्रत्येक कर्म करने से पहले ही अच्छी तरह सोच-विचार कर लेना चाहिए। चूंकि हमारा प्रत्येक किया हुआ कर्म एक बीज रूप में हमारे संस्कारों में स्थापित होकर उपयुक्त समय आने पर प्रारब्ध (भाग्य) रूप में हमारे सामने प्रकट होता है। इसके लिए हम स्वयं ही उत्तरदायी होते हैं। जैसे बीज खेत में बोए बिना फल नहीं दे सकता, उसी प्रकार प्रारब्ध भी पुरुषार्थ के बिना काम नहीं देता। कर्म करने वाला मनुष्य अपने बुरे या भले कर्म का फल स्वयं ही भोगता है। यह बात संसार में प्रत्यक्ष दिखाई देती है। शुभ कर्म करने से सुख और पाप कर्म करने से अंत में दुख ही मिलता है। पुरुषार्थी मनुष्य सर्वत्र सम्मान पाता है किंतु जो निकम्मा है वह घाव पर नमक छिड़कने के समान दुख भोगता है। पुरुषार्थ करने पर मनुष्य को प्रारब्ध के अनुसार फल मिल जाता है, पर चुपचाप बैठे रहने पर प्रारब्ध किसी को कोई फल नहीं दे सकता। गीता में भगवान कहते हैं कि कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, कर्मफल के प्रति तेरी आसक्ति न हो। कर्म करने पर मनुष्य को प्रारब्ध के अनुसार फल की प्राप्ति होती रहती है, इसमें अपनी इच्छा क्यों रखनी है।
मनुष्य शुभ और अशुभ कर्मों के करने का निर्णय लेने के लिए पूर्ण स्वतंत्र है। शास्त्रों में कहे हुए के अनुसार जो कर्म हम करते हैं, वे शुभ कर्म हैं और शास्त्रों के कहे के विपरीत, यानी काम, क्रोध, लोभ और आसक्ति आदि के साथ जो कर्म किए जाते हैं वे अशुभ कर्म हैं। मनुष्य जब अशुभ या बुरा कर्म करने पर एक प्रतिकूल या दुखदायी परिस्थिति का सामना करता है, तब वह इसके लिए दूसरों पर दोषारोपण करने लग जाता है। ऐसा करते समय वह भूल जाता है कि इस परिस्थिति के लिए वह स्वयं ही उत्तरदायी है, अन्य कोई नहीं। बोए हुए बीज के अनुसार ही उसे यह फल या प्रतिकूल परिस्थिति प्राप्त हुई है। इसलिए प्रत्येक पल बड़ी ही सावधानी से अपने सभी नियत कर्मों को निस्वार्थ भाव, ममता और आसक्ति रहित होकर संसार के हित को ध्यान में रखते हुए तत्परतापूर्वक ईमानदारी के साथ करते रहना चाहिए।
कर्म की सफलता या असफलता के लिए या अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति के लिए हम स्वयं ही उत्तरदायी हैं। इसके लिए किसी अन्य को दोष देने के स्थान पर केवल आत्मनिरीक्षण करें और प्रत्येक कर्म को करने से पहले यह भली-भाँति विचार कर लें कि जैसा बीज हम धरती में डालेंगे, उसी तरह का वृक्ष उत्पन्न होगा। हमने जैसे-जैसे कर्म किये थे, या कर रहे हैं और भविष्य में करेगें, उसी तरह का परिणाम हमारे समक्ष उपस्थित होता रहेगा।
डॉ बी. के. शर्मा
(यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत 27 जनवरी 2021 को प्रकाशित हुआ है।)
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