Wednesday, February 17, 2021

राग और द्वेष से लिप्त कर्म किसी का कल्याण नहीं करते

 हम सभी को अपने जीवन में आता हुआ सुख ज्यादा
अच्छा लगता है और जाता हुआ सुख उससे भी बुरा।
इसके ठीक विपरीत दुख आता हुआ बुरा लगता है, लेकिन
जाता हुआ दुख सबको अच्छा लगता है। इसलिए सुख और
दुख, दोनों के साथ अच्छा और बुरा शब्द परिस्थिति के
अनुसार जुड़ा रहता है। इसी प्रकार अगर हम अपना कर्तव्य
करने में सुख का अनुभव करते हैं, तब हम उस कर्म को
स्वार्थ बुद्धि के साथ करना चाहते हैं। वहीं दूसरी ओर
अगर हमें अपने नियत कर्म को करने में अधिक परिश्रम
या प्रतिकूल परिस्थिति के कारण दुख का अनुभव होता है

तब या तो हम उस कार्य को आरंभ ही नहीं करना चाहते
या फिर कोई न कोई बहाना बनाकर बीच में ही उसे छोड़
देते हैं।
गीता में भगवान श्री कृष्ण हताश-निराश अर्जुन से
कहते हैं, ‘जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को एक
तरह का ही समझकर युद्ध के लिए तू तैयार हो जा। इस
प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा।’ उस
समय युद्ध करना अर्जुन का कर्म था, जिससे वह विचलित
हो गया था, मगर भगवान ने उसे याद दिला दिया। आज हमारे
कर्म सामाजिक, व्यापारिक, राजनैतिक अलग-अलग क्षेत्रों में
हमारी परिस्थिति के अनुसार हैं। लेकिन आज भी हमें
अपने कर्म अपने हृदय के अंदर, अपने विचारों के अंदर
समान भाव रखते हुए करने का प्रयास करते रहना

चाहिए। दुख  या प्रतिकूल परिस्थिति आने पर भी अपने
शास्त्र नियत कर्तव्यों को पूरी निष्ठा, ईमानदारी और
तत्परतापूर्वक लोकहित की दृष्टि रखते हुए करते रहना
चाहिए, यही हमारा स्वधर्म है। कर्मों में राग-द्वेष रखना
ही पाप की श्रेणी में आता है। यदि हम समान भाव या
पक्षपात रहित होकर अपने कर्तव्य करते हैं, तब ऐसे कर्म
बंधन कारक नहीं होते। शायद ही कोई संत महात्मा हो,
जिन्होंने यह नहीं कहा कि निस्वार्थ भाव या लोकहित की
दृष्टि से कर्म करते हुए हम कर्मबंधन से मुक्त रहते हैं।
गीता में समभाव या समता को ही योग कहा गया है।
‘समत्वं योग उच्यते’ यानी की कर्म की सिद्धि-असिद्धि
आदि में समान भाव रखते हुए और आसक्ति से रहित
होकर कर्म करने की बात आती है। यदि हम समान भाव

या निस्वार्थ भाव से अपने कर्म को नहीं करेंगे तब
विपरीत परिस्थिति के आने पर हम विचलित हो सकते हैं
और कर्म को पूरे मनोयोग या एकाग्रता पूर्वक नहीं कर
पाएंगे। इसका परिणाम भी हमें उचित समय आने पर
स्वयं को ही भोगना पड़ेगा। कर्मों में समता ही कुशलता है
‘योग: कर्मसु कौशलम्’ यानी कर्म में कुशलता ही योग है।
समता का भाव रखे बिना कर्म करते हैं, तो उसमें हमारे
उद्धार की क्षमता नहीं है।
इसलिए हमारे विचारों और कर्मों में समता निरंतर
बनी रहनी चाहिए। समता से ही हम राग-द्वेष से दूर हो
सकते हैं जो हमारे जीवन में बंधन के मूल कारण है।
गीता में आता है, ‘जिनका मन समभाव में स्थित है,
उन्होंने इस जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार जीत

लिया गया है।’ जीवन में समत्व या समता लाना ही योग
है। समता में स्थित मनुष्य का चित्त निर्मल हो जाता है
और वह पाप-पुण्य से ऊपर उठ जाता है और संसार में
निर्लिप्त भाव से अपनी जीवन यात्रा पूरी करता है।
इसलिए हमें अपने विचारों में समता या समान भाव रखते
हुए बड़ी सावधानी पूर्वक अपने कर्तव्य करते रहने का
सतत् प्रयास करना चाहिए।

डॉ. बी. के. शर्मा
(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत

17 फरवरी 2021 को प्रकाशित हुआ है)

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