आत्मचिन्तन
मनुष्य जन्म अत्यंत
ही दुर्लभ है।
लेकिन हम मनुष्य
जन्म लेने के
पश्चात् अपने मार्ग
से भटक गये
हैं। अपने स्वरूप
को ही भूल
गये हैं। लाखों
जन्मो से यहां
से वहां भटक
रहे हैं। ईश्वर
बार-बार अवसर
देते हैं कि
हम अपने को
जाने। हम ईश्वर
के अंश होते
हुए उनको भूल
जाते हैं और
संसार जो कि
अनित्य है उसको
अपना मानकर बैठ
जाते हैं। यह
जानकर भी कि एक दिन
हमें यह परिवार,
धन, मकान आदि
सब कुछ छोडकर
चले जाना है,
केवल यहां पर
किए गये कर्मो का
लेखा-जोखा हमारे
साथ जाता है।
इसलिए अभी भी
समय है कि
हम जाग जाएं
और आत्मचिन्तन करना
शुरू करें।
नारद मुनि
ने सुकदेव जी
को उपदेश देते
हुए महाभारत के
शान्ति पर्व में
बताया है कि
सत्य के समान
कोई तप नहीं
है, राग के
समान कोई दु:ख और
त्याग के समान
कोई सुख नहीं
है। पाप कर्मो
से दूर रहना,
सदा पुण्य कर्मो
का अनुष्ठान करना,
साधु पुरूषों जैसा
बर्ताव और सदाचार
का पालन करना,
यह कल्याण का
साधन है। जहां
सुख का नाम
भी नहीं है-ऐसे मानव
शरीर को पाकर
जो विषयो में
आसक्त रहता है
वह मोह को
प्राप्त होता है।
विषयों का संयोग
दुख रूप ही
है वह दुखों
से छुटकारा नहीं
दिला सकता। विषयासक्त
पुरूष की बुद्धि चंचल
होती है वह
मोह जाल का विस्तार
करती है और
मोह जाल से
बंधा हुआ मनुष्य
इस लोक और
परलोक में भी दु:ख ही भोगता
है। जिसे कल्याण
प्राप्ति की इच्छा
हो, उसे प्रत्येक
उपाय से काम
और क्रोध को
दबाना चाहिए, क्योंकि
ये दोनों दोष
कल्याण का नाश
करने के लिए
उद्धत रहते
हैं। क्षमा सबसे
बडा बल है,
आत्मा का ज्ञान
सबसे बडा ज्ञान
है और सत्य
से बढकर कुछ
है ही नहीं।
सत्य बोलना सबसे
श्रेष्ठ है। किन्तु
हितकारक बात करना
सत्य से भी
बढकर है। जिससे
प्राणियों का अत्यंत
हित होता है,
वही सत्य है। जिसके
मन में कोई
कामना नहीं है,
जो किसी वस्तु
का संग्रह नहीं
करता तथा जिसने
सब कुछ त्याग
दिया है, वही विद्धान
है। जो अपने
वश में की
हुई इन्द्रियों के
द्धारा अनासक्त भाव से
विषयो का अनुभव
करता है। जिसका
चित्त शांत, निर्विकार
और एकाग्र है
तथा जो आत्मीय
कहलाने वाले देह
और इन्द्रियों के
साथ रहकर भी
उनसे एकाकार न
होकर विलग सा
ही रहता है,
वह मुक्त है
और उसे बहुत
शीघ्र कल्याण की
प्राप्ति होती है।
किसी की हिंसा
न करें, सबके
साथ मित्रता का
भाव रखें और
यह मनुष्य जन्म
पाकर किसी के
साथ बैर न
करें। जो आत्मतत्व
का ज्ञाता तथा
मन को वश
में रखने वाला
है उसे चाहिए
कि किसी
वस्तु का संग्रह
न करें, संतोष
रखे और कामना
तथा चंचलता का
त्याग कर दें।
इससे परम कल्याण
की सिद्धि होगी।
जिन्होंने भोंगो का त्याग
कर दिया है,
वे कभी शोक
में नहीं पडते।
जो परमात्मा को
जितने की इच्छा
रखता हो, उसे
तपस्वी, जितेन्द्रिय, मननशील,संयतचित्त और
विषयों में अनासक्त
रहना चाहिए। जीव
सदा कर्मो के
अधीन रहता है,
वह शुभ कर्मो
के अनुष्ठान से
देवता होता है,
शुभ अशुभ दोनों
के आचरण से
मनुष्य योनि में
जन्म पाता है और
केवल अशुभ कर्मो
से पशु पछी
आदि नीच योनियों
मे जन्म ग्रहण
करता है। उन
योनियों में जीव
को सदा जरा,
मृत्यु तथा नाना
प्रकार के दु:खो का शिकार
होना पडता है।
इस प्रकार संसार
में जन्म लेने
वाला प्रत्येक
प्राणि को संताप की
आग में पकाया
जाता है।
यह देह
पंचभूतों का घर
है। इसमें हड्डियों
के खम्भे लगे
हैं, यह नश
नाडियो से बंधा हुआ,
रक्त मांस से
लिपा हुआ और
चमडे से मढा
हुआ है। इसमें
मल मूत्र भरा
है जिसके कारण
दुर्गंध आती है
यह जरा और
शोक से व्याप्त,
रोगों का आश्रय,
आतुर, रजोगुण रूपी
धूल से ढका
हुआ और अनित्य
है। अतः हमे इसकी
आसक्ति का त्याग
कर देना चाहिए।
शरीर में प्राण,
अपान, व्यान, समान
और उदान इन पॉच भेदों
वाला प्राण प्रविष्ट
होकर चेष्टा युक्त
कर रहा है।
उसी शरीर के
भीतर हृदय के
मध्य भाग में
मन द्धारा ज्ञाता
रूप से जानने
में आने वाला
यह सूक्ष्म जीवात्मा
भी रहता है।
परन्तु समस्त प्राणियों के
समस्त अन्तःकरण प्राणों
से ओतप्रोत हो
रहे हैं अर्थात्
इस प्राण और
इन्द्रियों के तृप्त
करने के लिए
उत्पन्न हुइ नाना
प्रकार की भोगवासनाओं
से मलिन और
छुब्ध हो रहें
हैं। इस कारण
सब लोग परमात्मा
को नहीं जान
पाते। अन्तःकरण के
विशुद्ध होने
पर ही यह
जीवात्मा सब प्रकार
से समर्थ होता
है। अतः मनुष्य
यदि भोगों से
विरक्त होकर परमात्मा
के चिंतन में
लग जाता है,
तब परमात्मा को
प्राप्त कर लेता
है। मुण्डकोपनिषद के
द्धितीय खण्ड में
आया है कि
थोडा सा विचार
करने पर प्रत्येक
बुद्धिमान मनुष्य की समझ
में यह बात
आ जाती है कि इस प्रत्यक्ष
दिखाई देने वाले
जगत के रचइता
और परमाधार कोई
एक परमेश्वर अवश्य
है। इस प्रकार
जिनमें यह सम्पूर्ण
जगत स्थित हुआ
प्रतीत होता है
उन परम विशुद्ध प्रकाशमय
धाम स्वरूप परब्रम्ह परमात्मा को समस्त
भोगों की कामना
का त्याग करके
निरंतर उनका
ध्यान करने वाला
साधक जान लेता
है। यह बात
निश्चित है कि
जो मनुष्य उन
परम पुरूष परमात्मा
की उपासना करते
हैं और एकमात्र
उन्हीं को चाहते
हैं, वे सर्वथापूर्ण
निष्काम होकर रहते
हैं। किसी प्रकार
के भोगो में
उनका मन नहीं
अटकता, अतः वे
इस रजोवीर्यमय शरीर
को लॉघ जाते
हैं। उनका पुनर्जन्म
नहीं होता। इसीलिए
उन्हें बुद्धिमान कहा
गया है, क्योंकि
जो सार वस्तु
के लिए असार
को त्याग दे
वही बुद्धिमान है।
जो कोई भी
उस परब्रम्ह परमात्मा
को जान लेता
है वह ब्रम्ह
ही हो जाता
है। सब प्रकार
के शोक और
चिन्ताओं से सर्वथा
पार हो जाता
है, सम्पूर्ण पापसमुदाय
से सर्वथा तर
जाता है, हृदय
में स्थित सब
प्रकार के संशय,
देहाभिमान, विषयासक्ति आदि ग्रथिंयों
से सर्वथा छूटकर
अमर हो जाता
है। जन्म मृत्यु से रहित
हो जाता है।
तैत्रियोपनिषद में आया
है कि जब तक जीवात्मा
उन परबम्ह परमात्मा
से थोडा सा
भी अन्तर किये
रहता है अर्थात्
उन्हें थोडी देर
के लिए भूल
जाता है। तब
तक उसके लिए
भय है, अर्थात
उसका पुनर्जन्म होना
सम्भव है, क्योंकि
जिस समय उसकी
परमात्मा में स्थिति
नहीं है, वह
भगवान को भूला
हुआ है, उसी
समय यदि उसकी
मृत्यु हो गयी
तो फिर उसका
अंतिम संस्कार के
अनुसार जन्म होना
निश्चित है, क्योंकि
भगवान ने गीता
में कहा है-
जिस-जिस भाव
को स्मरण करता
हुआ मनुष्य अंतकाल
में शरीर छोडता
है, उसी के
अनुसार उसे जन्म
ग्रहण करना पडता
है और मृत्यु
प्रारब्ध के अनुसार
कभी भी आ
सकती है। इसलिए
योगभ्रष्ट का पुनर्जन्म
होने की बात
गीता में कही
गयी है।
आज अधिकांश
मनुष्य अशांत है, किसी
न किसी बीमारी
और चिंताओं से
ग्रस्त है, कामनाओ
और आसक्तियों से
अपने आप को
जकड रखा है
शान्ति की तलाश
में जगह-जगह
भटकता रहता है, कभी
किसी को कभी
किसी को गुरू बनाता
है लेकिन फिर
भी पूर्ण शांति
को प्राप्त नहीं
हो पाता। जिस
शांति और परमात्मा
को बाहर
जगह जगह ढूढता है
वह परमदेव परब्रम्ह
परमात्मा अपने ही
भीतर-हृदय में
अन्तर्यामी रूप से
स्थित है। इनको जानने के लिए कहीं बाहरजानेकी आवश्यकता
नहीं है। अपने ही भीतर स्थित परमात्मा को
जानने की चेष्टा
करनी चाहिए, क्योंकि
इनसे बढकर जानने
योग्य दूसरी कोई
वस्तु है ही
नहीं। इन एक
को जानने से
ही सबका ज्ञान
हो जाता है।
यह ही सबके
कारण और परमाधार
है। श्रवेताश्रतरोपनिषद में
आया है कि
जिस प्रकार तिलों
में तेल, दही
में घी, ऊपर
से सूखी हुई
नदी के भीतरी
श्रोतों में जल
तथा अरणियों में
अग्नि छिपी रहती
है, उसी प्रकार
परमात्मा हमारे हृदयरूप गुफा
में छिपे हैं।
जिस प्रकार अपने-अपने स्थान
में छिपे हुए
तेल आदि उनके
लिए बताए हुए
उपायों से उपलब्ध
किए जा सकते
है उसी प्रकार
जो कोई साधक
विषयों से विरक्त
होकर सदाचार सत्यभाषण
तथा संयम रूप
तपस्या के द्धारा साधन करता
हुआ पूर्वोत्त प्रकार
से उनका निरन्तर
ध्यान करता रहता
है, उनके द्धारा वे
परब्रम्ह परमात्मा भी प्राप्त
किए जा सकते
हैं।
मनुष्य रूपी शरीर
में जीवात्मा और
परमात्मा दोनों मौजूद हैं
लेकिन अनेक जन्मों
के कर्मो के
संस्कार स्वरूप हम अपने
वास्तविक स्वरूप को भूल
गये हैं जैसे
बहुत किमती रत्न
मिट्टी में सन
जाने पर अपने
वास्तविक रूप से
विमुख हो जाता
है और उसकी
धूल मिट्टी हटाने
पर उसमें चमक
आ जाती है
उसी प्रकार ध्यान
योग के द्धारा हम
अपने वास्तविक रूप
को पहचान पाते
हैं और जैसे
ही हम भोग
विलास, कामनाओं, आसक्ति आदि
को छोडकर ईश्वर
की तरफ देखते
हैं अर्थात् जीवात्मा,
परमात्मा की तरफ
मुंह कर लेता
हैं तब तत्काल
ही वह शोक
रहित हो जाता
है। गीता के
दूसरे अध्याय में
भगवान कहते हैं
कि अर्जुन तू
आसक्ति को त्याग
कर तथा सिद्धि
और असिद्धि में समान
बुद्धि वाला होकर
योग में स्थित
हुआ कर्तब्यकर्मो को
कर, समत्व ही
योग कहलाता है।
समबुद्धियुक्त पुरूष पुण्य और
पाप दोनों को
इसी लोक में
त्याग देता है
अर्थात् उनसे मुक्त
हो जाता है।
समबुद्धि से
युक्त पुरूष कर्मो
से उत्पन्न होने
वाले फल को
त्याग कर जन्म
रूप बन्धन से
मुक्त हो निर्विकार
परमपद को प्राप्त
हो जाते हैं। गीता
में भगवान स्थिर
बुद्धि पुरूष के लक्षण
बताते हुए कहते
हैं, कि जिस
काल में यह
पुरूष मन में
स्थित सम्पूर्ण कामनाओं
को भलीभॉति त्याग देता है
और आत्मा से
आत्मा में ही संतुष्ट रहता
है उस काल
में वह स्थितप्रज्ञ
कहा जाता है।
जिसके राग, भय,
क्रेाध समाप्त हो गये
हैं, सुख दुख
में, शुभ-अशुभ
में, जो समान
रहता हो, जिस
पुरूष की इन्द्रियां
वश में होती हैं
अर्थात् जिस पुरूष
की इन्द्रियां इन्द्रियों
के विषयों से
सब प्रकार निग्रह
की हुई है
उसी की बुद्धि स्थिर
है। जो पुरूष
सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग
कर ममता रहित,
अहंकार रहित और
स्पृहारहित हुआ विचरता
है, वही शान्ति
को प्राप्त होता
है।
जीवन में
सुख की अपेक्षा
दुःख ही अधिक
होता है किंतु
जो सुख और
दुख दोनों की
ही चिंता छोड
देता है वह
अक्षय ब्रम्ह को
प्राप्त हो जाता
है। मनुष्य धन
का संग्रह करते
करते पहले की
अपेक्षा ऊची स्थिति
को प्राप्त होकर
भी कभी तृप्त
नहीं होते, और
वे अधिक की
आशा लिए ही
मर जाते हैं।
इसलिए विद्धान पुरूष सदा संतुष्ट
रहते हैं संग्रह
का अन्त है
विनाश, ऊंचे चढने
का अन्त है
नीचे गिरना, संयोग
का अन्त है
वियोग और जीवन
का अन्त है
मरण। तृष्णा का
कभी अंत नहीं
होता। संतोष ही
परम सुख है।
अतः विवेकी पुरूष
संतोष को ही
परम धन मानते
हैं। आयु लगातार
बीत रही है
वह कभी विश्राम
नहीं लेती। जब
अपना शरीर ही
अनित्य है तो
दूसरी किस वस्तु
को नित्य समझा जाए। जो
मनुष्य सब प्राणियों
के भीतर मन
से परे परमात्मा
चिंतन करते हैं
वे अपनी संसार
यात्रा समाप्त करके परमपद
का साक्षात्कार करते हुए
शोक के पार
हो जाते हैं।
अतः हमे आज
से ही आत्मचिंतन
शुरू कर देना
चाहिए ताकि यही
जन्म हमारा अंतिम
जन्म बन सके
और संसार में
आवागमन से छूट
सके।
ॐ
शॉति,
शॉति, शॉति।
डा बी के शर्मा
11/440, वसुन्धरा (गाजियाबाद)
9811666162
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