Sunday, November 8, 2015

जैसा बीज, वैसा वृक्ष

मनुष्य जन्म से मृत्यु पर्यन्त मन से, वाणी से एवं शरीर से कर्म करता रहता है। कर्म का फल तीन तरह का होता है-अच्छा, बुरा और मिला-जुला। जिस परिस्थिति को हम चाहते हैं वह अच्छा कर्मफल है, जिसको हम नहीं चाहते वह बुरा कर्मफल है और जिसमें कुछ अच्छा कुछ बुरा भाग है, वह मिला-जुला कर्मफल है। फल की इच्छा रखने वाले को समय-समय पर तीनों ही फल मिलते हैं, कर्मफल का त्याग करने वालों को नहीं। हम जितने भी कर्म करते हैं, वे सब पकृति के द्धारा अर्थात् प्रकृति के कार्य-शरीर, इन्द्रिया, मन और बुद्धि के द्धारा ही होते हैं तथा फलस्वरूप परिस्थिति भी प्रकृति के द्धारा  ही बनती है। इसलिए कर्मो का और उनके फलों का सम्बन्ध केवल प्रकृति के साथ है। स्वयं से (चेतन स्वरूप) इनका सम्बन्ध नहीं है। इसलिए जब हम उनसे सम्बन्ध तोड लेते हैं तो फिर हम भोगी नहीं होंते, अपितु त्यागी बन जाते हैं। त्यागी अपने लिए कुछ नहीं करते हैं, उनको यह विवेक रहता है कि अपना जो सत्स्वरूप है, उसके लिए किसी भी क्रिया और वस्तु की आवश्यकता नहीं है। वह सबके हित में ही अपना हित मानता है तब वह स्वतः सर्वभूतहिते रताः हो जाता है। फिर उसके स्थूल शरीर से होने वाली क्रियायें सूक्ष्म शरीर से होने वाला परहित -चिंतन और कारण शरीर से होने वाली स्थिरता तीनो ही संसार के प्राणियों के हित के लिए होती है। कर्मयोगी निष्काम भाव से कर्म करता हुआ फल के साथ सम्बन्ध नहीं रखता, वह ममता और अहंकार रहित हो जाता है, निर्ममो निरहंकारः(गीता 2/71)

कर्म तीन प्रकार के होते हैं क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध। अभी वर्तमान में जो कर्म किए जाते हैं, वे क्रियमाण कर्म है। वर्तमान से पहले इसी जन्म में किए हुए अथवा पहले के अनेक जन्मों में किए हुए जो कर्म है, वे संचित कर्म हैं और संचित कर्मो में से जो कर्म फल देने के लिए हमारे सामने है वे प्रारब्ध कर्म है। क्रियमाण कर्म दो तरह के हैं, शास्त्रों में कहे हुए-के अनुसार जो कर्म हम करते हैं, वे शुभ कर्म हैं और शास्त्रों के विपरीत अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, आसक्ति को लेकर जो कर्म किए जाते हैं, वे अशुभ कर्म हैं।  मनुष्य शुभ और अशुभ कर्मो के करने का निर्णय लेने के लिए पूर्ण स्वतंत्र हैं, लेकिन जब उसे शास्त्रों के विपरीत कार्य करने पर एक बुरी परिस्थिति का सामना करना पडता है, तब वह इसके लिए किसी और शक्ति पर दोषारोपण करने लग जाता है और भूल जाता है कि इस परिस्थिति के लिए भी वह स्वयं ही   उत्तरदायी है और कोई  नहीं गीता में भगवान ने सम्पूर्ण कार्यो की सफलता के लिए पॉच  कारण बताए हैं उसमें अधिष्ठान,कर्ता, अनेक प्रकार के कारण विविध प्रकार की अलग-अलग चेष्टाए एवं पॉचवा कारण दैव (प्रारब्ध) है-    
  अधिष्ठानं तथा कर्ता करर्ण पृथग्विधम्।
                विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम्।।
                मनुष्य (कर्ता) जब कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों तथा मन, बुद्धि  और अहंकार(करण) - द्वारा अपने शरीर (अधिष्ठान)-से अनेक विधियों (चेष्टा)-द्धारा जो कर्म करता है, तब उस कर्म की सफलता के लिए मनुष्य के अथक प्रयासों के साथ ही भगवान ने पॉचवा  कारण दैव(प्रारब्ध) बताया है। जैसा कि पहले बताया गया है कि हमने जैसा शुभ और अशुभ कर्म किए हैं, उनका संस्कार हमारे अन्तःकरण में पडता है और हमारे ही संचित  कर्म प्रारब्ध रूप से हमारे सामने फलरूपों में जाते हैं। अनुकूल परिस्थिति आने पर इसका सारा श्रेय हम अपने आपको देते हैं। अतः कभी-कभी बहुत मेहनत करने पर भी, जब प्रतिकुल परिस्थिति जाती है, तब हम इसके लिए किसी अन्य को दोषी मानते हैं, जबकि इस सबके लिए हमारे वर्तमान के या भूतकाल के किए हुए कर्म ही उत्तरदायी हैं। इसीलिए अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में हमें  समान भाव अपनाना चाहिए और कर्ताभाव से उपर उठकर प्रत्येक परिस्थिति में ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए।               
अतः हमें प्रत्येक पल बडी ही सावधानी से अपने सभी नियत कार्यो को बिना किसी कर्तापन से और बिना फल की इच्छा से, पूर्ण निष्काम-भाव से, ममता और आसक्ति से रहित होकर केवल संसार के हित को ध्यान में रखते हुए एवं ईश्वर द्वारा बनाए गये उसके संसार की व्यवस्था को सूचारू रूप से चलाने में अपना कुछ योगदान देते हुए जीवन यापन करना है। कार्य की सफलता और विफलताओं में समान भाव रखते हुए प्रतिकुल और अनुकूल परिस्थिति-दोनों ही हमारे कर्म फलस्वरूप में ईश्वर की देन हैं और दोनों ही हमारे हित में हैं-इस तरह से समझते हुए इस संसार- यात्रा को पूरा करते हुए इससे मुक्त होने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। गीता में भगवान ने कहा है कि जो पुरूष सम्पूर्ण कर्मो को सब प्रकार से प्रकृति के द्धारा ही किए जाते हुए देखता है और आत्मा को आता देखता है, वही यथार्थ देखता है-
                प्रकृत्येव कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
                यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं पश्यति।। (13/29)  
अतः ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में स्थिर रहते हुए अपनी माया से हमारे ही किए हुए कर्मो के अनुसार हमें इस संसार में भ्रमण करवाते रहते हैं, अतः कर्म की सफलता और असफलता के लिए अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति के लिए हम स्वयं ही उत्तरदायी हैं, इसके लिए किसी और को दोष देने के स्थान पर केवल आत्म निरीक्षण करें और प्रत्येक कर्म को करने से पहले यह भलिभॉति  सोच लें कि जैसा बीज हम धरती में डालेंगे , उसी तरह का बृक्ष उत्पन्न होगा। अतः हम जैसे कर्म करेंगे और हमने किये थे उसी तरह का परिणाम हमें मिलेगा।
               
                                                         डा0 बी0 के0 शर्मा
            11/440, वसुन्धरा गाजियाबाद(0प्र0)                                                                                                

                  

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