Wednesday, November 4, 2015

परमतत्व
                                                                       
हमारे मन में हर पल अनेक विचार आते रहते है, यह सिलसिला अनवरत रूप से जन्म से मृत्यु तक चलता रहता है, मन में आने वाली कुछ इच्छाओं या वासनाओं को ज्यों ही हम अपनी प्रसन्नता के लिए पूरी करते है, तभी अन्य इच्छाये उत्पन्न हो जाती है। अर्थात यदि हम अपने मन के आने वाली इच्छाओं को पूरा करने में लगते हैं, तब कभी भी यह समाप्त नहीं हो सकती है। और हम हमेशा के लिए प्रसन्न नहीं रह पाते हैं। अतः मन में आने वाले इच्छाओं को पूरा करने की प्रक्रिया को शुरू करने से पहले, हमे अपने विवेक से उसका विश्लेषण करना चाहिए, कि इसका उद्देश्य क्या हमारी आत्मा की उन्नति के लिए हैं या अवनति के लिए हम वासना को पूरा कर रहें हैं। हम कभी-कभी इनसे अलग होकर एक दृष्टा बनकर रह सकते हैं और तब हम महसूस करते हैं कि समुद्र में अनेको तरंगों की भांति यह इच्छाएं भी अपने आप आकर विलीन हो जाती है। भगवान ने गीता में कहा हैः
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितपज्ञस्तदोच्यते।। (2/55)

श्री भगवान बोले हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरूष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलिभॉति   त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थित पज्ञ कहा जाता है। शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, प्रतिष्ठा आदि अनुकुल पदार्थो के हमेशा बने रहने की, और प्रतिकुल पदार्थो के नष्ट हो जाने की मन में जो कामना है उसे वासना कहते हैं। वासना का स्थान मन में है, अतः बुद्धिके द्धारा अपने मन (चित्त) का हमेशा निरीक्षण और विश्लेषण करते रहना चाहिए।  दुर्गा सप्तसती के प्रथम श्लोक में ही देवी ने कहा हैः
                        ऊॅ ज्ञानिनामपि  चेतांसि देवी भगवती हि सा।
                        वलादाकृष्ण मोहाय महामाया प्रयच्छति ।।
वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खीचकर मोह में डाल देती है।” अतः ईश्वर की माया बड़े से बड़े ज्ञानियों के मन में भी जब मोह पैदा कर देती है तब साधारण मनुष्य के विषय में कहना ही कठिन है। आजकल के समय में तो हम देख भी रहे है कि कितने महापुरूष भी समाज को रास्ता दिखाने के स्थान पर स्वंय ही माया के वशीभूत  होकर भटक गये हैं। गीता में भगवान कहते हैं”
           
दैवी हृोषा गुणमयी मममाया दुरत्यया। प्रप)))
                   मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। (7/14)
क्योंकि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बडी दुस्तर है,  परंतु जो पुरूष केवल मुझको ही निरंतर भजते हैं, वे इस माया का उलंघन कर जाते हैं। अर्थात् संसार में तर जाते हैं। अतः जब भगवान ने इसको मेरी माया कहा है तब उसकी शरण में गये बिना इससे दूर होना स्वंय मनुष्य के वश में नहीं है। हमे संसार के एवं परिवार के अपने सभी दायित्वों को पूरी तरह से निष्काम भाव से निर्वाह करते हुए मन और बुद्धि से ईश्वर की शरण में रहना चाहिए अर्थात् अपने चित्त को वासनाओं, राग एवं द्धेष्‍ से मुक्त रखने की दिशा में प्रयत्न करते रहना चाहिए। गीता में भगवान कहते हैं:
                   मन आधत्स्व मयि बुद्धिं  निवेशय।
                   निवसिष्यसि मय्येव अत र्ध्‍व   संशय।।(12/8)
मुझमें मन को लगा और मुझमें  ही बुद्धि  को लगा इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमे कुछ भी संशय नहीं है। अतः हमें अपने चित्त को उस परमतत्व में स्थित रखना चाहिए, जो कि हमारे ही अंदर आत्मा रूप से स्थित है। मुण्डकोपनिषद् में आता है कि शौनक ऋषि जो बड़े भारी विश्वविद्यालय के अधिष्ठाता थे, पुराणों के अनुसार उनके ऋषिकुल में अठ्ठासी हजार ऋषि रहते थे, वे भी ब्रहमविद्या को जानने के लिए श्रद्धा पूर्वक महर्षि अडिगरा के पास गये  और अत्यन्त विनय पूर्वक महर्षि से पूछा-भगवन! जिसको भलिभॉति जान लेने पर यह जो कुछ देखने, सुनने और अनुमान करने में आता है, सब का सब जान लिया जाता है वह परमतत्व क्या है! कृपया बतलाइये कि उसे कैसे जाना जाये? तब महर्षि ने कहा कि मनुष्य के लिए जानने योग्य दो विद्यायें हैं- एक तो परा और दूसरी अपरा। जिसके द्धारा  इस लोक और परलोक संबंधी भोगों और उनकी प्राप्ति के साधनों का ज्ञान प्राप्त किया जाता है, वह तो अपरा विद्या है और जिसके द्धारा परब्रह्म अविनाशी परमात्मा का तत्वज्ञान होता है वह परा विद्या है। अतः उन सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सबके कर्ता-धर्ता परमेश्वर को जान लेने पर सब कुछ ज्ञात हो जाता है।
हमें प्रत्येक स्थिति, मान, अपमान, हर्ष-शोक, सुख-दुःख, हानि-लाभ, शुभ-अशुभ, राग-द्धष, जीवन-मरण, अनुकूल-प्रतिकूल आदि परिस्थिति, में सम भाव में स्थिर रहते रहने का अभ्यास करते रहना चाहिए, ताकि, हमारी बुद्धि स्थिर रहे और विषयों में अनासक्ति द्वारा इस संसार की यात्रा को पूरा करने का प्रयास करते रहें। जिस पुरूष की इन्द्रियां वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर होती है। अपनी स्थिति का हर समय भान करते रहें और उस परमतत्व को जानने एवं उसमें स्थित रहने का प्रयास करें, जिसको जानने के पश्चात और कुछ भी जानने की आवश्यकता नहीं रहती।

डा बी के शर्मा
11/440, वसुन्धरा (गाजियाबाद)

9811666162


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