Wednesday, May 6, 2020

तमोगुणी (तामस) कर्ता - दिनांक 4 मई 2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान

       🎊भगवान गीता के मोक्ष सन्यास योग नामक 18 वें अध्याय के 28 वें श्लोक मैं तमोगुणी (तामस) कर्ता के लक्षण बताते हैं कि:-
 
🎉🌺 अयुक्त: प्राकृत: स्तब्ध: शठो नैष्कृतिको‌ऽलस: ।
विषादी  दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ।। 🎊🌺

       जो कर्ता अयुक्त , शिक्षा से रहित, घमंडी,धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री है । वह तामस कहा जाता है।

        भगवान ने गीता में हम सभी मनुष्यों को तीन श्रेणी में रखा है।  हमें स्वयं इस पर विचार करना है कि हम अभी किस श्रेणी के अंतर्गत आते हैं।
१. सात्विक कर्ता 2. राजस कर्ता  3. तामस कर्ता ।  कर्ता के अंदर जैसे भाव उसके अंत:करण में आते हैं या उसका जैसा स्वभाव या प्रकृति है वैसे ही उसके द्वारा कर्म होते हैं।

      भगवान ने गीता के श्लोक 18/26 में सात्विक कर्ता के पांच लक्षण बताये हैं कि वह आसक्ति से रहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त, कार्य के सिद्ध होने या ना होने में हर्ष - शोक से रहित होता है । उसके बाद श्लोक 18 /27 में राजस कर्ता के 6 लक्षण बताएं हैं कि वह आसक्ति से युक्त, कर्मों के फल को चाहने वाला, लोभी, दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला, अशुद्ध चारी और हर्ष -शोक से लिफ्त होता है।

     इस श्लोक में भगवान ने तामसिक कर्ता के 8 लक्षण बताएं हैं कि वह 

1. जिसका चित्त समाहित नहीं है अर्थात जिसके मन और इंद्रियां बस में नहीं है ,बल्कि वह स्वयं ही उनके वश में है । वह कर्तव्य और अकर्तव्य के विषय में विचार ही नहीं करता।

2. जिसको शास्त्रों का ज्ञान नहीं है अर्थात संस्कार हीन बुद्धि वाला है।  जिसको अपने कर्तव्य कर्म का भी ज्ञान नहीं है । उचित और अनुचित का भी कर्म करते हुए विचार नहीं करता।

3. जो घमंडी है, अर्थात जो कठोर स्वभाव वाला है, जिसमें विनय नहीं है। अपने घमंड के सामने दूसरों को कुछ नहीं समझता।

4. जो धूर्त अर्थात कपटी स्वभाव का है ,  अपने मन में दूसरों का अनिष्ट सोचता है,  दूसरों को ठग लेता है आदि- आदि

5. जो दूसरों की जीविका का नाश करने में तत्पर रहता है । यदि  किसी ने उसके साथ कभी अच्छा भी किया है तब भी वह समय आने पर उसका बुरा करने की आदत वाला है।

6. जो हमेशा दुखी स्वभाव का रहता है । हमेशा चिंता करता रहता है और चिंताओं के कारण शोक  करता रहता है , उसकी चिंताओं का अंत नहीं होता।

7. जिसके अंदर काम करने का उत्साह ही नहीं होता। अलसी की तरह पड़ा रहता है और सोचता रहता है अपने कर्तव्य कर्मों को करने की इच्छा ही नहीं होती।

8. जो कार्य को यदि आरंभ कर भी दे, तब समय पर उसे समाप्त नहीं करता ।  सोचता है ,कल कर लेंगे , अभी तो बहुत समय हैं, उसको लंबा खींचता रहता है।  कम समय में पूरा होने वाले कार्य में भी अधिक समय लगाता है।

       जिसके अंदर यह सभी या कुछ भी लक्षण हैं वह तामस कर्ता की श्रेणी में आता है। इन पर विचार करके हमें अपने अंदर से ऐसे लक्षणों को दूर करके अंततः सात्विक कर्ता के गुणों को अपनाने की दिशा में प्रयासरत रहना चाहिए। भगवान गीता के श्लोक 14 /14 में कहते  हैं कि जब यह मनुष्य सत्व गुण की बृध्दि में मृत्यु को प्राप्त होता है तब तो उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल दिव्य लोगों को प्राप्त होता है।  रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ मनुष्य कीट,  पशु आदि योनियों में उत्पन्न होता है। अपने अंदर जो कमियां हैं उनको हम ही दूर कर सकते । भगवान ने गीता के श्लोक 6/ 5 में कहा है कि अपने द्वारा अपना संसार- समुद्र से उद्धार करें और अपने को अधोगति में ना डालें, क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र हैं और आप ही अपना शत्रु हैं। 🎊🌷


       🙏धन्यवाद 
       बी .के .शर्मा।  

रजोगुणी (राजस) कर्ता - दिनांक 3 मई 2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान

     🎉भगवान गीता के मोक्ष सन्यास योग नामक 18वें अध्याय के 27 वें श्लोक  में रजोगुणी (राजस) कर्ता के लक्षण बताते हैं:-

👑🎊 रागी कर्मफलप्रेप्सूर्लूब्धो हिंसात्मकोऽशुचि:।
हर्षशोकान्वित: कर्ता राजस: परिकीर्तित: ।। 👑🎊

जो कर्ता आसक्ति से युक्त ,कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी  है, तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला, अशुद्धाचारी और हर्ष -शोक से लिप्त है - वह राजस कहा गया है।

     इसके पूर्व के श्लोक 18/ 26 में भगवान ने सात्विक कर्ता के पांच लक्षण बताए थे कि वह आसक्ति से रहित होकर कर्म करता है,  अहंकार के वचन न  बोलने वाला , धैर्य और उत्साह से युक्त,  तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष - शोक आदि विकारों से रहित होता है । इस श्लोक में भगवान ने रजोगुणी (राजस) कर्ता के 6 लक्षण बताए हैं 

१)  राजस  कर्ता आसक्ति से युक्त होकर ही अपने कर्म करता है,  उसे अपने घर ,परिवार , पैसे से बहुत आसक्ति होती है,  उसका मन हमेशा संसार के इन्हीं भौतिक नाश्वान पदार्थों में लगा रहता है । उसकी प्रत्येक क्रिया बहुत ही ममता पूर्वक होती है अतः उन्हीं में बंध कर रह जाता है , मुक्त ही नहीं हो पाता ।

२)  राजस कर्ता अपने प्रत्येक कर्म के फल को दृष्टि में रखकर ही करता है , यदि  समाज में कोई कर्म करेगा तब उसे इससे मान ,बड़ाई ,आदि मिलेगी इस पर दृष्टि  रखकर करेगा,  दान भी देगा तभी उसके मन में उसके फल की इच्छा होगी कि समाज में मेरा आदर होगा ।

 ३) राजस कर्ता लोभी स्वभाव  का होता है । उचित या अनुचित तरीके से केवल धन इकट्ठा करने की उसकी आदत बन जाती है। उचित अवसर आने पर भी बहुत ही कष्ट पूर्वक अपने धन को खर्च करता है दूसरों के हित के लिए तो बिल्कुल भी नहीं करता। मृत्यु पर्यंत धन को इकट्ठा करता रहता है और उसके पश्चात दूसरे व्यक्ति उसका भोग रूप में , दान रूप में, या ऐसा धन  अंततः नाश को प्राप्त होता है।  

४)  राजस कर्ता दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला होता है। राजस कर्ता अपने लोभ के कारण तथा अपने सुख भोग और आसक्ति के कारण,  कर्म करते समय यह ध्यान नहीं देता कि इससे किसी को कोई दुख या कष्ट तो नहीं हो रहा है,  वह तो केवल अपने को ही ध्यान में रखते हुए कर्म करता हैं और दूसरों की कोई प्ररवाह  उसे नहीं होती। 

५). राजस कर्ता को भगवान ने अशुद्ध कहा है । राजस कर्ता अपने लोभ, ममता और भोगो में आसक्ति के कारण जो धन या और भौतिक पदार्थ एकत्र करता है, वह अपवित्र हो जाती है चूंकि  उसमें उचित या अनुचित तरीकों का भी ध्यान नहीं रखा गया है और ऐसा कर्ता स्वयं भी सदाचार का पालन नहीं करता।
और 

६) राजस कर्ता हर्ष और शोक से युक्त रहता है।  चूंकि राजस कर्ता अपना प्रत्येक कर्म फल की इच्छा रखते हुए, आसक्ति के साथ करता है, तब यदि उसके अनुसार ही पूर्ण हो जाता है तब उसे बहुत ही हर्ष होता है और यदि उसके मन के अनुकूल उसे सफलता नहीं मिली तो उसके मन में बहुत दुख होता है । अतः अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति तो आती जाती रहती है लेकिन वह हर्ष और शोक में अपने जीवन में फंसा रहता है और कर्म बंधन में फंस जाता है।


इन्हीं कर्म बंधनों के कारण राजस  कर्ता अपने पूरे जीवन में फंसा रहता है और एक दिन मन में इच्छा और आसक्ति के साथ यह शरीर छोड़कर अपने किए गए कर्म के अनुसार दूसरा शरीर प्राप्त कर लेता है और यह आवागमन तब तक चलता रहता है, जब तक कि वह अपने स्वभाव में परिवर्तन करके अपने कर्म करने की विधि को भगवान द्वारा सात्विक कर्ता के विषय में बतलाए गए लक्षणों को अपने दैनिक व्यवहार में नहीं अपनाता।


     🙏 धन्यवाद
      बी. के. शर्मा 

Monday, May 4, 2020

सात्विक कर्ता - दिनांक 2 मई 2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान

भगवान ने गीता के मोक्ष सन्यास योग नामक 18 वें अध्याय के 26 वें श्लोक में सात्विक कर्ता के विषय में कहा है कि:-

🌷मुक्तसंगोडनहवादी धृत्यूत्साहसमन्वित:।
सिद्धियसिद्धियोर्निविकार: कर्ता सात्विक उच्यते ।। 🌷

जो कर्ता संगरहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष- शोकादि विकारों से रहित है-वह सात्विक कहा जाता है।

इससे पूर्व भगवान ने गीता के श्लोक 18 /23 में सात्विक कर्म के विषय में कहा कि जो कर्म शास्त्र विधि से नियत किया हुआ और करता पन के अहिमान से रहित हो तथा फल ना चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग द्वेष के किया गया हो इसके अतिरिक्त सात्विक त्याग के विषय में भगवान श्लोक 18/9 में कहते हैं कि जो शास्त्र विधि कर्म करना कर्तव्य है इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है और श्लोक 6/1 में कहते हैं कि जो पुरुष कर्मफल का आश्रय ना लेकर करने योग्य कर्म करता है वह सन्यासी तथा योगी है भगवान ने श्लोक 2/48 में कहा कि तू आसक्ती को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि बाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्म कर समत्व ही योग कहलाता है।

भगवान सात्विक कर्म उनको करने की विधि सात्विक त्याग आदि को बतला कर अब इस श्लोक में सात्विक करता के विषय में हमें पांच बातों को ध्यान में रखते हुए अपने अपने कर्तव्य कर्मों को करने के बारे में कहा है-

१.  जो संगरहित हो, अर्थात कर्म करते हुए उसे अपना कर्तव्य कर्म समझकर किसी राग, ममता, फल या भोगों की इच्छा न रखते हुए करना, अर्थात आसक्ति रहित होकर कर्म करना🌷

२. अहंकार के वचन न बोलने वाला, अर्थात अपने अंदर करता पन का कोई अभिमान न रखते हुए अपना कर्म करना; कार्य करने के पश्चात अपनी स्वयं की प्रशंसा करना कि मैंने यह कार्य किया है मैं इसे कर सकता था आदि आदि।  अहंकार पूर्वक किया गया कार्य राजस कर्म बन जाता है।🌷

३. अपने कर्तव्य कर्म को धैर्य पूर्वक करना अर्थात कर्म करते समय विघ्न बाधा आ जाए तब बिना उससे विचलित हुए अपना कर्तव्य कर्म करते रहना🌷

४. अपने कर्तव्य कर्म को पूरे उत्साह के साथ अर्थात पूरा मन और अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ करना 🌷

५. कर्तव्य कर्म करते हुए यदि कार्य हमारे अनुकूल हो गया तब बहुत हर्षित होना और यदि किसी विघ्न बाधा के कारण असफलता मिल गई तब शोक करना जो इन विकारों से रहित हो अर्थात निर्विकार रूप से कर्म करता हो यदि अंत:करण में कुछ हर्ष या शोक आ भी जाए तव वह बहुत लंबे समय तक ना रह कर अपनी पूर्व स्थिति में ही यथाशीघ्र स्थित हो जाए। मन में लिए ही ना रहे ताकि शोक के कारण बीमार ना हो जाए या बहुत हर्ष के कारण अपनी स्थिति में ना रहे अर्थात दोनों परिस्थिति में समान भाव रखने की कोशिश करें अभ्यास से इसमें सफलता मिल जाती है।🌷

भगवान द्वारा गीता में सात्विक कर्म सात्विक त्याग और सात्विक कर्ता के विषय मेंबतलाये हुए रास्ते पर हमें चलने का प्रयास करते हुए अपने कर्तव्य कर्म करने चाहिए ताकि हम कर्म करते हुए कर्म बंधन से मुक्त हो सकें । स्वामी रामसुखदास जी ने अपनी पुस्तक सत्संग के फूल में कहा है कि गीता अलौकिक ग्रंथ है इसके समान भी कोई ग्रंथ नहीं है वेदों का सार उपनिषद हैं और उपनिषदों का सार गीता है इस प्रकार गीता परंपरा से तो श्रेष्ठ है ही इसकी अपनी भी एक विलक्षणता है गीता बहुत ही अगाध ग्रंथ है यदि मनुष्य गीता के अनुसार कार्य करें तो उसके सब कार्य साधन हो जाएंगे गीता के अनुसार व्यवहार करते हुए परमार्थ की सिद्धी हो जाती है।🌷

🙏धन्यवाद🙏
बी॰ के० शर्मा 🌷

तमोगुणी (तामस) कर्म - दिनांक 1 मई 2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान
भगवान ने गीता के मोक्ष  सन्यास योग नामक 18वें अध्याय के 25 वें श्लोक में तमोगुणी कर्म के विषय में कहा है कि:-
 
🌺 अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पोरूषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ।। 🌺

          जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचार कर केवल अज्ञान से आरंभ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है।

भगवान ने गीता में तीन तरह के कर्म बतलाए हैं,
१. सात्विक कर्म २. राजस कर्म ३. तामस कर्म ।

सात्विक कर्म शास्त्र विधि से नियत किया हुआ, कर्तापन के अभिमान से रहित तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग, द्वेष से किया जाता है।  

रजोगुणी (राजस) कर्म भोगों (फल ) को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकार युक्त पुरुष द्वारा किया जाता है।  

         इस श्लोक में भगवान ने तमोगुणी (तामस) कर्म के विषय में कहा है कि यह कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और अपने सामर्थ्य का विचार न करके केवल अज्ञान से प्रारंभ किया जाता है।

      🎊👑सात्विक कर्म उच्च श्रेणी में आता है यह हमें कर्म बंधन से मुक्त करके इस जन्म मरण के आवागमन से भी मुक्त करता है और कर्म करते हुए अभिमान ना होने के कारण हमारे अंदर एक हल्का पन आ जाता है, और मृत्यु के बाद उच्च लोकों में ले जाता है।👑🎊

        🌺राजस कर्म में फल की इच्छा और अहंकार होने के कारण यह हमें कर्म बंधन में डालता है। मध्य श्रेणी में आता है। और जैसा कि भगवान शंकराचार्य जी ने भज गोविंदम में कहा है:-

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम।
इहे संसारे बहुदुस्तारे, 
कृपयाअपारे पाहि मुरारे।। 🎊 

  फल की ओर भोगों की इच्छा रखते हुए कर्म करते रहने के कारण , बार-बार जन्म होता है, मृत्यु होती है, बार-बार माता के गर्भ  में रहना पड़ता है, इस दुख रूपी संसार को केवल ईश्वर की कृपा से या भगवान द्वारा शास्त्रों में बतलाए  गए मार्ग पर चलकर ही पार पाया जा सकता है।

   तामस कर्म तो अत्यंत ही निम्न श्रेणी में आता है।  जब हम किसी भी कर्म को शुरू करने से पूर्व ना तो उसके परिणाम के विषय में विचार करते हैं कि इसके करने से किसी को सुख होगा या दुख होगा, यह लोकहित की दृष्टि से उचित है या नहीं। इसके करने से धर्म की ओर धन की हानि होगी या और भी किसी तरह की हानि हो सकती है। प्रकृति के भी यह विरुद्ध है, या नहीं, इससे किसी की हिंसा हो सकती है इस पर भी विचार न करना। इस कार्य  को पूरा करने की सामर्थ्य मेरे अंदर है भी या नहीं; इस पर भी विचार न करके , केवल मोह या अज्ञान के द्वारा यदि कार्य शुरू किया जाता है तब यह तामस कर्म की श्रेणी में आता है। तामस कर्म करने के कारण मनुष्य का पतन हो जाता है, और वह मृत्यु के पश्चात मनुष्य जन्म न प्राप्त करके ज्ञान रहित योनियों जैसे पशु, पक्षी, वृक्ष आदि में जन्म लेता है। अतः हमें अपना कल्याण करने के लिए भगवान द्वारा गीता में बतलाए गए इन 3 कर्मों के विषय में भली-भांति विचार करके अपने दैनिक कर्मों को करते रहना चाहिए ताकि हमारा मनुष्य जन्म लेना सफल हो सके।


    🙏 धन्यवाद
        बी .के. शर्मा 

Sunday, May 3, 2020

रजोगुणी (राजस) कर्म - दिनांक 30 अप्रैल 2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान

💦 भगवान ने गीता के मोक्ष सन्यास योग नामक 18 वे अध्याय के 24 वें श्लोक में रजोगुणी कर्म के विषय में कहां है:- 

🌈🎉 यत्तु कामेप्सुना कर्म साहक्ॾरेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ।। 🌷👑

परंतु जो कर्म बहुत  परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकार युक्त पुरुष द्वारा किया जाता है वह कर्म राजस कहा गया है ।

     भगवान ने गीता में इससे पूर्व के श्लोक 18/23 में सात्विक कर्म के विषय में बताया कि यह कर्म फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग -द्वेष से किया जाता है जबकि राजस कर्म कामना और फल की इच्छा पूर्वक किया जाता है।  इसके अतिरिक्त यदि कर्म करने वाले मनुष्य में कर्ता पन का अभिमान नहीं है और ना ही यह अहंकार है कि मैं ही इस कर्म को कर सकता हूं और वह पूर्ण निष्काम भाव से कर्म कर रहा है तब वह सात्विक कर्म है और उच्च श्रेणी का है।  जबकि राजस कर्म अहंकार युक्त पुरुष  द्वारा पूरे अभिमान पूर्वक और बहुत परिश्रम  से किया जाता है, ऐसा कर्म मध्यम श्रेणी का है और हमें कर्मबंधन में डालने वाला होता है।

     सात्विक कर्मों के कर्ता में कर्ता पन का अभिमान ना होने के कारण किसी प्रकार के परिश्रम का बोध नहीं होता, वह उसे बिना फल की इक्षा के अपना कर्तव्य कर्म समझकर करता है। जबकि राजस कर्म के कर्ता का शरीर में अहंकार होने के कारण तथा भोग एवं फल की इच्छा रखते हुए कर्म करने के कारण वह शरीर के परिश्रम और दुखों से स्वयं दुखी होता है।  अतः जो कर्म भोगो या फल की इच्छा से किए जाते हैं वह राजस‌  कर्म है तथा जिन कर्मों में फल की इच्छा तो कर्ता में नहीं है लेकिन कर्ता में अहंकार या अभिमान हैं कि मैं ही इस काम को करने वाला हूं ,मेरे समान दूसरा कोई नहीं है और चाहता हे कि मेरी सभी  लोग  इसके लिए प्रशंसा करें तब इस तरह के कर्म भी राजस कर्म है और मध्यम श्रेणी के हैं।

     राजस कर्मों का फल शास्त्रों में दुख बतलाया गया है चूंकि इनसे हम कर्म बंधन में पढ़कर बार-बार जन्म- मृत्यु के चक्र में पड़े रहते हैं।  अतः हमें कर्म करने से पहले अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिए और अपने अंतःकरण में कर्तापन का अभिमान ना रखते हुए, बिना किसी कामना के अपने-अपने निर्धारित कर्तव्य कर्म इस संसार में लोकहित की दृष्टि से करते रहना चाहिए।  इसी में हमारा कल्याण निहित है।  और हमारा मनुष्य जन्म लेना भी सफल हो जाएगा।  कर्म करते हुए ही हमारा उद्धार हो जाएगा।  लेकिन अपने दैनिक जीवन के व्यवहार में तो हमें स्वयं ही लाना पड़ेगा।🌷👑


      बी.के. शर्मा।  
धन्यवाद🙏

सात्विक कर्म - दिनांक 29 अप्रैल 2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान 

भगवान ने गीता के मोक्ष सन्यास योग नामक 18 वें अध्याय के 23 वें श्लोक में कहा है कि:-

🌈🎊 नियतं संगरहितम रागद्वेषत: कृतम।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्विक  मुच्यते ।। 🌈🎊

        जो कर्म शास्त्र विधि से  नियत किया हुआ और करता पन के अभिमान से रहित हो तथा फल ना चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग द्वेष के किया गया हो-वह सात्विक कहा गया है।

इस श्लोक में भगवान ने सात्विक कर्म के विषय में चार बातें हमें बतलाई हैं-

१. यह कर्म शास्त्र विधि से नियत किया हुआ हो, अर्थात जिस कर्म का शास्त्रों में निषेध (मना) किया गया हो ऐसा ना हो।

२. कर्म करने में हमारे अंदर करतापन का अभिमान ना हो।

३. फल की इच्छा न रखते हुए कर्म किया जाए और 

४. कर्म करते समय न हमारे अंदर उसके प्रति राग हो और न द्वेष हो।🎉👑

इससे पूर्व भगवान ने गीता के श्लोक 18/ 9 में सात्विक त्याग के विषय में आसक्ति और फल का त्याग करके शास्त्र विहित कर्म करने के लिए कहा है।  अतः सात्विक  कर्म करने के लिए हमारे अंदर करता पन का अभिमान नहीं होना चाहिए कि मैं ही इस कार्य को कर सकता हूं, दूसरा कोई नहीं।  मेरे ही अंदर इसको करने की सामर्थ्य या शक्ति है।  हमें यह याद रखना चाहिए कि हमारे शरीर में जो प्राण शक्ति हैं, जिसके द्वारा हमारा शरीर और इंद्रियां अपना अपना कार्य कर रही है वह परमात्मा द्वारा ही दी गई है और वह शक्ति परमात्मा का ही एक अंश है।  उसके हमारे शरीर से बाहर निकल जाने के बाद हम अपने इस शरीर के रहते हुए भी कुछ भी नहीं कर सकते और शरीर को नष्ट कर दिया जाता है।  अतः हमें कर्म करते हुए ऐसा अभिमान नहीं करना चाहिए कि मैं ही इसे अपनी शक्ति या सामर्थ्य से कर रहा हूं। परमात्मा हमारे  अंदर होने वाले अभिमान को बर्दाश्त नहीं करते, कभी कभी हमने देखा भी है कि बड़े-बड़े चाहे नेता हो या व्यापारी अपने अहंकार के कारण बहुत ऊपर पहुंचकर इसी जन्म में बहुत नीचे पहुंच जाते हैं बस केवल यादें ही रह जाती हैं। 

कर्तापन के अभिमान को लेकर केनोपनिषद में कथा आती है कि परमात्मा ने देवताओं पर कृपा करके उन्हें शक्ति प्रदान कर दी, जिससे उन्होंने असुरों पर विजय प्राप्त कर ली । यह विजय वास्तव में भगवान की ही थी, देवता तो केवल निमित्त मात्र थे, परंतु इस और देवताओं का ध्यान ही नहीं गया और वे भगवान की कृपा की ओर लक्ष्य न  करके भगवान की महिमा को अपनी महिमा  समझ बैठे और  अभिमान बस यह मानने लगे कि हम बड़े शक्तिशाली हैं एवं हमने अपने ही बल से असुरों को पराजित किया है।

देवताओं के अभिमान को भगवान समझ गए और सोचा कि यह अभिमान बना रहा तो इनका पतन हो जाएगा ।  अतः उनका अभिमान समाप्त करने के लिए दिव्य साकार यक्ष रूप में प्रकट हो गए । देवताओं ने उन  दिव्य यक्ष रूप भगवान का परिचय जानने के लिए पहले अग्नि देवता को भेजा । यक्ष ने पूछा  कि आप कौन हैं और आपमें क्या शक्ति है तब अग्नि  देवता ने कहा कि मैं अग्नि हूं और भूमंडल में जो कुछ दिख रहा है सब को जलाकर राख कर सकता हूं । तब यक्ष रुपी परमात्मा  ने अग्नि के सामने एक सूखा तिनका रखकर कहा कि  आप इसको जला दीजिए । अग्नि ने  अपनी पूरी शक्ति लगा दी लेकिन तिनके को तनिक भी आंच नहीं लगी । अग्नि देवता के वापस जाने के बाद फिर वायु देवता आए और यक्ष ने पूछा  आप कौन हैं और आप में क्या शक्ति है , तब वायु ने कहा मैं सभी को उड़ा सकता हूं ।यक्ष के द्वारा वायु के सामने रखे सूखे तिनके को भी देवता अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी हिला न सके। और वापस चले गए।

अग्नि में जो जलाने की शक्ति है और वायु में उड़ाने की जो शक्ति है और अन्य सभी में जो भी शक्तियां हैं वह तो शक्ति कै मूल भंडार परमात्मा से ही मिली हुई है । वे यदि उस शक्ति स्रोत को रोक दें तो फिर शक्ति कहां से आएगी । इसी प्रकार हमें कर्म करते समय अपने कर्तापन का अभिमान नहीं करना चाहिए। हम भी परमात्मा द्वारा दी गई शक्ति से उन्हीं के द्वारा दिए गए कर्तव्य कर्म  को केवल निमित्त मात्र या माध्यम बनकर कर रहे हैं ,फिर अभिमान कैसा।🌺


  🙏धन्यवाद🙏
    बी .के. शर्मा 🎊🌈